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डॉ.पुष्पा दीक्षित के काव्यों में संस्कार तत्त्व
संिेक्षपका
संस्कार शब्द सम+्कृ +घञ ्के योग से बना ह ै| जिसका अर्थ ह ै-संवरना, शदु्ध करना | दसूरे शब्दों में संस्कार
सम ्और कार दो शब्दों के योग से बना ह,ै सम ्का अर्थ ह ैसम्यक् अर्ाथत ्अच्छे और कार का अर्थ ह ैकायथ अर्वा कृजत
| हमारे िीवन में संस्कारों का जवशषे स्र्ान ह ै| भारतीय संस्कृजत अपने संस्कारों के बल पर सभी संस्कृजतयों से श्रेष्ठ बनी
हुई ह ै | मनसु्मजृत में संस्कारों की महत्ता को स्पष्ट करते हुए जलखा गया ह ै जक-“िन्मना िायते शदू्र: संस्काराद ् जिि:
उच्यते |” संस्कारों की संख्या के जवषय में जविानों में मतैक्य नहीं ह ै| कुछ इसकी संख्या 40, कुछ 18, कुछ 13, तर्ा
कुछ लोग 16 मानते हैं | मनसु्मजृत के अनसुार भी 16 संस्कार हैं | इन्हीं 16 संस्कारों को हमारे यहााँ मान्यता जमली ह ै
| हमारे दजैनक िीवन में वातावरण का बहुत असर पड़ता ह|ै हम िसैे वातावरण में रहेंगे, वैसे ही हमारे संस्कार होंग,े हम
उसी प्रकार का आचरण करेंगे|आधजुनकयगु में पाश्चात्य संस्कृजत एव ंसभ्यता का अत्यजधक बोलबाला हो गया ह ैपरन्त ु
इसके पश्चात ्भी भारतीय संस्कृजत अपनी महत्ता को बनाये हुए ह ै | उक्त शोधपत्र में इसी जवषय पर ससन्दभथ जवस्तार से
प्रकाश डाला गया ह ै|
की वडड : समकालीन संस्कृत काव्य, भारतीय संस्कृक्षत, नारी-चेतना |
रचनात्मकता के क्षेत्र में महिलायें हकसी भी मामले में कम निीं िैं | औरत मर्द की सबसे बड़ी ताकत ि ै| मर्द की हिन्र्गी
अधरूी ि,ै औरत उसे परू्द करती ि ै| मर्द की हिन्र्गी अधँेरी ि,ै औरत उसे रौशनी र्तेी ि,ै मर्द की हिन्र्गी फीकी ि,ै औरत
उसमें रौनक लती ि ै| औरत न िो तो मर्द की र्हुनया वीरान िो िाय और आर्मी अपना गला घोंटकर मर िाय |
अरुण कुमार क्षनषाद
शोधच्छात्र
प्राकृत एव ंसंस्कृत भाषा हवभाग,लखनऊ
हवश्वहवद्यालय, लखनऊ।
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िमे्स स्टीफेन के अनसुार- “औरतें मर्दों से अधिक बुधिमान होती हैं, क्योंधक वे जानती कम, समझती अधिक हैं
|”
अनेक प्रकार की पाररवाररक, सामाहिक आहर् हिम्मरे्ाररयों के साथ-साथ महिलायें लेखन के क्षेत्र में भी हकसी से कम
निीं िैं |
‘अहननहशखा’डॉ. पषु्पा र्ीहक्षत का एक प्रहसद्ध काव्य संग्रि ि ै | डॉ. पषु्पा र्ीहक्षत स्वतन्त्रोत्तर संस्कृत काव्यधारा की
सशक्त िस्ताक्षर ि ै| हिन्िोंने यगुीन हवसंगहतयों, सामाहिक, रािनैहतक हस्थहतयों एव ंतज्िन्य र्शा-र्रु्दशाओ ंका सम्यक्
अकंन हकया ि ै| उनकी कहवताओ ंमें अनभुहूत की गिनता, वचैाररक पररपक्वता और भाषा की प्राञ्िलता िो पाठकों
को सिि आकृष्ट कर उन्िें सोचने पर हववश कर र्तेी ि ै|
डॉ. पषु्पा र्ीहक्षत का िन्म 12 िनू 1943 में िबलपरु (म.प्र.) में िुआ1| आपके हपता पहडडत सनु्र्रलाल शकु्ल एक
प्रहसद्ध हचहकत्सक एव ंर्शदन व संस्कृत के अच्छे हवद्वान थे | आपकी माता का नाम िानकी र्वेी था | समकालीन पररवशे
का यथाथद उनकी कहवताओ ंमें किीं खलेु तो किीं व्यंनय के आकार में उभरा ि ै| ‘अहननहशखा एक हवप्रलम्भ गीहतकाव्य
ि ै | इसका प्रकाशन 1984 में ऋतम्भरा प्रकाशन बी-5, िबलपरु (म.प्र.) से िुआ | सम्प्रहत आप सरकारी महिला
स्नातकोत्तर मिाहवद्यालय हबलासपरु (म.प्र.) में संस्कृत की हवभागाध्यक्ष िैं |
‘प्रीहतरीहतरीदृशी’ शीषदक कहवता में नाहयका अपने को पतंगा (शलभ) और अपने प्रेमी (नायक) को र्ीपक की भांहत
मानती ि ै| िसेै पतंगा र्ीपक (लौ) के प्रेम में अपने प्रार् की आिुहत र् ेर्तेा ि ैऔर र्ीपक अनहभज्ञ रिता ि ै| उसी प्रकार
से यि नाहयका भी अपने प्रेमी के प्यार में हनश्छल भाव से अपने प्रार्ों को न्यौछावर करने को तत्पर ि ै–
प्रीधतरीधतरीदृशी न केनधिच्छ्रूता ,
शालभेन यादृशी सम्प्प्रर्दधशताा |
नावगम्प्यते प्रर्दीपकेन सा व्यथा,
एकपक्षतोऽसवो यर्दधननसात्कृता2||
नाहयका ‘पारसरत्नहमर्ं’ कहवता में शारीररक प्रेम (लौहकक प्रेम) की िगि आध्याहत्मक प्रेम (पारलौहकक प्रेम) की
अहभलाषा रखती ि ै| तभी तो वि किती ि ै| मझु ेतमु्िारे संसगद की निीं र्शदन की आकांक्षा ि ै–
1.आधहुनक ससं्कृत कवहयहत्रयाँ, डॉ.अचदना कुमारी र्बुे,नविीवन पहललकेशन,हनवाई(रािस्थान),प्रथम स.ं2006 प.ृस.ं96 2. अहननहशखा, प्रीहतरीहतरीदृशी, डॉ.पुष्पा र्ीहक्षत,ऋतम्भरा प्रकाशन,बी-5,िबलपुर(म.प्र.)1984,प.ृस.ं76
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धवलक्षणरत्नधमर्द ंकधलतम ्
यर्दवेक्षणमात्रधमतं मम लौह-
धनभं ह्रर्दयं तपनीयधमर्दम्3||
एक हवरहिर्ी स्त्री का िसैा सिीव हचत्रर् डॉ.पषु्पा र्ीहक्षत ने अपने काव्य में हकया ि,ै वसैा अन्यत्र र्लुदभ ि ै| यथा –
गता नो गन्ता वा शममधप ि पीङाऽनवधसता
न याता नो याता क्षममधप धवरामं मम कथा
न रेमे रन्ता वा धवकधलतधमर्दम्प्मे हतमनो-
मनोज्ञोऽधस त्वं रे ! न ि मम मनोऽज्ञायत कथम्4?
अहप च –
मम शान्तधमर्द ंधनभृतं सधुितं
हृर्दयस्य गृह ंज्वधलतं ज्वधलतं5|
पहत के साथ सती िोने की प्रथा भारत में िी पाई िाती ि ै| भारतीय नारी िी अपने पात्यव्रत धमद का पालन करती ि ै|
िमारे र्शे की िी स्त्री अपने पहत को र्वेता मानती ि ैतथा िन्म-िन्मान्तर तक उसी एक का साथ चािती ि ै| पाश्चात्य
र्शेों में इस प्रकार का कोई धमद निीं ि ै| विाँ पर प्रेम के स्थान पर वासना का आहधक्य ि ै|
‘कोर्मकंे र्हेि म’े शीषदक कहवता में नाहयका अपने हप्रयतम से किती ि ैहक- मझु ेआप अपने हर्ल में थोड़ा सा स्थान र्े
र्ीहिये | मझु ेतमुसे हकसी चीि की बिुत अहधक इच्छा निीं ि ै| वि अहधकार न िता कर याचना कर रिी ि ै| ऐसी
भावना केवल भारतीय संस्कृहत में िी पाई िाती ि ै| यथा –
कामये तव हृधर्द धनवास ंहस्यते सकलैजानैैः |
अधय ! धवशालतमेऽधप हृर्दये कोणमेकं रे्दधह मे
प्रीणये हृर्दयं त्वर्दीयं केन धवधिना मे6||
3. अहननहशखा, पारसरत्नहमर्म्, डॉ.पुष्पा र्ीहक्षत ,प.ृस.ं56 4.विी
5.विी,प.ृस.ं92 6.विी,’कोर्मकंे र्हेि म’े,प.ृ स.ं43
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नाहयका नायक से ‘तववीतर्ये हृर्ये’ कहवता में किती ि ैमरेा हृर्य तमु्िारे प्रहत एकर्म हनमदल ि ै | तभी मैं तमु्िारे
प्रहतहबम्ब को र्खे लेती ि ँ | वि किती ि ै– तमु्िारे हर्ल में किीं-न-किीं र्ोष अवश्य ि ै| इसहलए तमु मझु ेउतना प्यार
निीं र्तेे हितना की र्नेा चाहिए | उसे संर्िे िोता ि ैकी उसका हप्रयतम परस्त्री गमन की तरफ बढ रिा ि ै| इसहलए वि
उसे उलािना र्तेी ि ै| इस तरि का रूठना और मनाना भी भारतीय संस्कृहत की अपनी एक हवशषेता ि ै| प्रेम की प्रगाढ़ता
के हलए तकरार का िोना आवश्यक ि ै| इस बात को भी केवल भारत के िी लोग मानते िैं |
मम धनश्चयशुभ्रजले हृर्दये,
नवरुपधमर्द ंप्रधतधबम्प्बयुतं
मधलने मुकुरे भवतो हृर्दये
मम रुपधमर्दन्नधह संधममतम्7||
अन्यत्र भी-
अधय ! ते धवशालहृर्दये पूरोऽधस्त रागधसन्िो: |
कृपणोऽधस धबन्रु्दरधप नो र्दत्तोऽधत धनर्दायेन8||
सारांशत: किा िा सकता ि ै हक- डॉ. पषु्पा र्ीहक्षत समकालीन संस्कृत साहित्य की नवीन काव्य धारा की हवहशष्ट
कवहयत्री ि ै| उन्िोंने परम्परागत वस्त ुऔर काव्य भाषा को नया बर्लाव हर्या ि ै| उनकी कहवता लोकिीवन से िड़ुी
समस्याओ ंका र्स्ताविे ि ै| इसीहलये उसकी प्रामाहर्कता हनहवदवार् ि ै|
7.विी,’तववीतर्ये हृर्ये’ प.ृस.ं9 8.विी, ‘िाताहवहचत्रतेयम’,प.ृस.ं30