vardaan premchand hindi

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प्रमेचंद

वरदान

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वरदान

विन्घ्याचल पिवत मध्यरावि के विविड़ अन्धकार में काल

देि की भाांवत खड़ा था। उस पर उगे हुए छोटे-छोटे िृक्ष

इस प्रकार दविगोचर होते थे, मािो ये उसकी जटाएां है और

अिभुजा देिी का मन्दिर वजसके कलश पर शे्वत पताकाएां

िायु की मि-मि तरांगोां में लहरा रही थी ां, उस देि का

मस्तक है मांवदर में एक विलवमलाता हुआ दीपक था, वजसे

देखकर वकसी धुांधले तारे का माि हो जाता था।

अधवरावि व्यतीत हो चुकी थी। चारोां और भयािह

सन्नाटा छाया हुआ था। गांगाजी की काली तरांगें पिवत के

िीचे सुखद प्रिाह से बह रही थी ां। उिके बहाि से एक

मिोरांजक राग की ध्ववि विकल रही थी। ठौर-ठौर िािोां पर

और वकिारोां के आस-पास मल्लाहोां के चूल्ोां की आांच

वदखायी देती थी। ऐसे समय में एक शे्वत िस्त्रधाररणी स्त्री

अिभुजा देिी के समु्मख हाथ बाांधे बैठी हुई थी। उसका

प्रौढ़ मुखमण्डल पीला था और भािोां से कुलीिता प्रकट

होती थी। उसिे देर तक वसर िुकाये रहिे के पश्चात कहा।

‘माता! आज बीस िर्व से कोई मांगलिार ऐसा िही ां गया

जबवक मैंिे तुम्हारे चरणो पर वसर ि िुकाया हो। एक वदि

भी ऐसा िही ां गया जबवक मैंिे तुम्हारे चरणोां का ध्याि ि

वकया हो। तुम जगताररणी महारािी हो। तुम्हारी इतिी सेिा

करिे पर भी मेरे मि की अवभलार्ा पूरी ि हुई। मैं तुम्हें

छोड़कर कहाां जाऊ ?’

‘माता। मैंिे सैकड़ोां व्रत रखे, देिताओां की उपासिाएां

की’, तीथवयाञाएां की, परनु्त मिोरथ पूरा ि हुआ। तब

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तुम्हारी शरण आयी। अब तुम्हें छोड़कर कहाां जाऊां ? तुमिे

सदा अपिे भक्तो की इच्छाएां पूरी की है। क्या मैं तुम्हारे

दरबार से विराश हो जाऊां ?’

सुिामा इसी प्रकार देर तक वििती करती रही।

अकस्मात उसके वचत्त पर अचेत करिे िाले अिुराग का

आक्रमण हुआ। उसकी आांखें बि हो गयी ां और काि में

ध्ववि आयी

‘सुिामा! मैं तुिसे बहुत प्रसन्न ूंां। माांग, क्या माांगती है?

सुिामा रोमाांवचत हो गयी। उसका हृदय धड़किे लगा।

आज बीस िर्व के पश्चात महारािी िे उसे दशवि वदये। िह

काांपती हुई बोली ‘जो कुछ माांगूांगी, िह महारािी देंगी’ ?

‘हाां, वमलेगा।’

‘मैंिे बड़ी तपस्या की है अतएि बड़ा भारी िरदाि

माांगूगी।’

‘क्या लेगी कुबेर का धि’?

‘िही ां।’

‘इि का बल।’

‘िही ां।’

‘सरस्वती की विद्या?’

‘िही ां।’

‘विर क्या लेगी?’

‘सांसार का सबसे उत्तम पदाथव।’

‘िह क्या है?’

‘सपूत बेटा।’

‘जो कुल का िाम रोशि करे?’

‘िही ां।’

‘जो माता-वपता की सेिा करे?’

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‘िही ां।’

‘जो विद्वाि और बलिाि हो?’

‘िही ां।’

‘विर सपूत बेटा वकसे कहते हैं?’

‘जो अपिे देश का उपकार करे।’

‘तेरी बुवद्व को धन्य है। जा, तेरी इच्छा पूरी होगी।’

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वैराग्य

मुांशी शावलग्राम बिारस के पुरािे रईस थे। जीिि-िृवत

िकालत थी और पैतृक सम्पवत्त भी अवधक थी। दशाश्वमेध

घाट पर उिका िैभिान्दित गृह आकाश को स्पशव करता

था। उदार ऐसे वक पचीस-तीस हजार की िावर्कव आय भी

व्यय को पूरी ि होती थी। साधु-ब्राहमणोां के बडे़ श्रद्वािाि

थे। िे जो कुछ कमाते, िह स्वयां ब्रह्रमभोज और साधुओां के

भांडारे एिां सत्यकायव में व्यय हो जाता। िगर में कोई साधु-

महात्मा आ जाये, िह मुांशी जी का अवतवथ। सांसृ्कत के ऐसे

विद्वाि वक बडे़-बडे़ पांवडत उिका लोहा मािते थे िेदान्तीय

वसद्वान्तोां के िे अिुयायी थे। उिके वचत्त की प्रिृवत िैराग्य

की ओर थी।

मुांशीजी को स्वभाित: बच्ोां से बहुत पे्रम था। मुहले्ल-

भर के बचे् उिके पे्रम-िारर से अवभवसांवचत होते रहते थे।

जब िे घर से विकलते थे तब बालाकोां का एक दल उसके

साथ होता था। एक वदि कोई पार्ाण-हृदय माता अपिे

बच्िे को मार थी। लड़का वबलख-वबलखकर रो रहा था।

मुांशी जी से ि रहा गया। दौडे़, बचे् को गोद में उठा वलया

और स्त्री के समु्मख अपिा वसर िुक वदया। स्त्री िे उस

वदि से अपिे लड़के को ि मारिे की शपथ खा ली जो

मिुष्य दूसरो के बालकोां का ऐसा से्नही हो, िह अपिे

बालक को वकतिा प्यार करेगा, सो अिुमाि से बाहर है।

जब से पुि पैदा हुआ, मुांशी जी सांसार के सब कायो से

अलग हो गये। कही ां िे लड़के को वहांडोल में िुला रहे हैं

और प्रसन्न हो रहे हैं। कही ां िे उसे एक सुिर सैरगाड़ी में

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बैठाकर स्वयां खी ांच रहे हैं। एक क्षण के वलए भी उसे अपिे

पास से दूर िही ां करते थे। िे बचे् के से्नह में अपिे को भूल

गये थे।

सुिामा िे लड़के का िाम प्रतापचन्द्र रखा था। जैसा

िाम था िैसे ही उसमें गुण भी थे। िह अत्यन्त प्रवतभाशाली

और रुपिाि था। जब िह बातें करता, सुििे िाले मुग्ध हो

जाते। भव्य ललाट दमक-दमक करता था। अांग ऐसे पुि

वक वद्वगुण डीलिाले लड़कोां को भी िह कुछ ि समिता

था। इस अल्प आयु ही में उसका मुख-मण्डल ऐसा वदव्य

और ज्ञािमय था वक यवद िह अचािक वकसी अपररवचत

मिुष्य के सामिे आकर खड़ा हो जाता तो िह विस्मय से

ताकिे लगता था।

इस प्रकार हांसते-खेलते छ: िर्व व्यतीत हो गये। आिांद

के वदि पिि की भाांवत सन्न-से विकल जाते हैं और पता भी

िही ां चलता। िे दुभावग्य के वदि और विपवत्त की रातें हैं, जो

काटे िही ां कटती ां। प्रताप को पैदा हुए अभी वकतिे वदि

हुए। बधाई की मिोहाररणी ध्ववि कािोां मे गूांज रही थी छठी

िर्वगाांठ आ पहुांची। छठे िर्व का अांत दुवदविोां का श्रीगणेश

था। मुांशी शावलग्राम का साांसाररक सम्बन्ध केिल वदखािटी

था। िह विष्काम और विस्सम्बद्व जीिि व्यतीत करते थे।

यद्यवप प्रकट िह सामान्य सांसारी मिुष्योां की भाांवत सांसार

के के्लशोां से के्लवशत और सुखोां से हवर्वत दृविगोचर होते थे,

तथावप उिका मि सिवथा उस महाि और आििपूिव शाांवत

का सुख-भोग करता था, वजस पर दु:ख के िोांकोां और सुख

की थपवकयोां का कोई प्रभाि िही ां पड़ता है।

माघ का महीिा था। प्रयाग में कुम्भ का मेला लगा

हुआ था। रेलगावड़योां में यािी रुई की भाांवत भर-भरकर

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प्रयाग पहुांचाये जाते थे। अस्सी-अस्सी बरस के िृद्व-वजिके

वलए िर्ो से उठिा कवठि हो रहा था- लांगड़ाते, लावठयाां

टेकते मांवजल तै करके प्रयागराज को जा रहे थे। बडे़-बडे़

साधु-महात्मा, वजिके दशविो की इच्छा लोगोां को वहमालय

की अांधेरी गुिाओां में खी ांच ले जाती थी, उस समय गांगाजी

की पविि तरांगोां से गले वमलिे के वलए आये हुए थे। मुांशी

शावलग्राम का भी मि ललचाया। सुिाम से बोले- कल स्नाि

है।

सुिामा - सारा मुहल्ला सूिा हो गया। कोई मिुष्य िही ां

दीखता।

मुांशी - तुम चलिा स्वीकार िही ां करती, िही ां तो बड़ा

आिांद होता। ऐसा मेला तुमिे कभी िही ां देखा होगा।

सुिामा - ऐसे मेला से मेरा जी घबराता है।

मुांशी - मेरा जी तो िही ां मािता। जब से सुिा वक स्वामी

परमािि जी आये हैं तब से उिके दशवि के वलए वचत्त

उवद्वग्न हो रहा है।

सुिामा पहले तो उिके जािे पर सहमत ि हुई, पर

जब देखा वक यह रोके ि रुकें गे, तब वििश होकर माि

गयी। उसी वदि मुांशी जी ग्यारह बजे रात को प्रयागराज

चले गये। चलते समय उन्ोांिे प्रताप के मुख का चुम्बि

वकया और स्त्री को पे्रम से गले लगा वलया। सुिामा िे उस

समय देखा वक उिके िेञ सजल हैं। उसका कलेजा धक

से हो गया। जैसे चैि मास में काली घटाओां को देखकर

कृर्क का हृदय क ांपिे लगता है, उसी भाती मुांशीजी िे

िेिोां का अशु्रपूणव देखकर सुिामा कन्दम्पत हुई। अशु्र की िे

बूांदें िैराग्य और त्याग का अगाघ समुद्र थी ां। देखिे में िे जैसे

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िने् जल के कण थी ां, पर थी ां िे वकतिी गांभीर और

विस्तीणव।

उधर मुांशी जी घर के बाहर विकले और इधर सुिामा

िे एक ठां डी श्वास ली। वकसी िे उसके हृदय में यह कहा

वक अब तुिे अपिे पवत के दशवि ि होांगे। एक वदि बीता,

दो वदि बीते, चौथा वदि आया और रात हो गयी, यहा तक

वक पूरा सप्ताह बीत गया, पर मुांशी जी ि आये। तब तो

सुिामा को आकुलता होिे लगी। तार वदये, आदमी दौड़ाये,

पर कुछ पता ि चला। दूसरा सप्ताह भी इसी प्रयत्न में

समाप्त हो गया। मुांशी जी के लौटिे की जो कुछ आशा शेर्

थी, िह सब वमट्टी में वमल गयी। मुांशी जी का अदृश्य होिा

उिके कुटुम्ब माि के वलए ही िही ां, िरि सारे िगर के वलए

एक शोकपूणव घटिा थी। हाटोां में दुकािोां पर, हथाइयो में

अथावत चारोां और यही िातावलाप होता था। जो सुिता, िही

शोक करता- क्या धिी, क्या विधवि। यह शौक सबको था।

उसके कारण चारोां और उत्साह िैला रहता था। अब एक

उदासी छा गयी। वजि गवलयोां से िे बालकोां का िुण्ड लेकर

विकलते थे, िहाां अब धूल उड़ रही थी। बचे् बराबर उिके

पास आिे के वलए रोते और हठ करते थे। उि बेचारोां को

यह सुध कहाां थी वक अब प्रमोद सभा भांग हो गयी है।

उिकी माताएां ऑांचल से मुख ढाांप-ढाांपकर रोती ां मािोां

उिका सगा पे्रमी मर गया है।

िैसे तो मुांशी जी के गुप्त हो जािे का रोिा सभी रोते

थे। परनु्त सब से गाढे़ आांसू, उि आढवतयोां और महाजिोां

के िेिोां से वगरते थे, वजिके लेिे-देिे का लेखा अभी िही ां

हुआ था। उन्ोांिे दस-बारह वदि जैसे-जैसे करके काटे,

पश्चात एक-एक करके लेखा के पि वदखािे लगे। वकसी

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ब्रहृिभोज मे सौ रुपये का घी आया है और मूल्य िही ां वदया

गया। कही से दो-सौ का मैदा आया हुआ है। बजाज का

सहस्ोां का लेखा है। मन्दिर बििाते समय एक महाजि के

बीस सहस् ऋण वलया था, िह अभी िैसे ही पड़ा हुआ है

लेखा की तो यह दशा थी। सामग्री की यह दशा वक एक

उत्तम गृह और तत्सम्बन्दन्धिी सामवग्रयोां के अवतररक्त कोई

िस्त ि थी, वजससे कोई बड़ी रकम खड़ी हो सके। भू-

सम्पवत्त बेचिे के अवतररक्त अन्य कोई उपाय ि था, वजससे

धि प्राप्त करके ऋण चुकाया जाए।

बेचारी सुिामा वसर िीचा वकए हुए चटाई पर बैठी थी

और प्रतापचन्द्र अपिे लकड़ी के घोडे़ पर सिार आांगि में

टख-टख कर रहा था वक पन्दण्डत मोटेराम शास्त्री - जो

कुल के पुरोवहत थे - मुस्कराते हुए भीतर आये। उन्ें प्रसन्न

देखकर विराश सुिामा चौांककर उठ बैठी वक शायद यह

कोई शुभ समाचार लाये हैं। उिके वलए आसि वबछा वदया

और आशा-भरी दृवि से देखिे लगी। पन्दण्डतजी आसाि पर

बैठे और सुांघिी सूांघते हुए बोले तुमिे महाजिोां का लेखा

देखा?

सुिामा िे विराशापूणव शब्ोां में कहा-हाां, देखा तो।

मोटेराम-रकम बड़ी गहरी है। मुांशीजी िे आगा-पीछा

कुछ ि सोचा, अपिे यहाां कुछ वहसाब-वकताब ि रखा।

सुिामा-हाां अब तो यह रकम गहरी है, िही ां तो इतिे

रुपये क्या, एक-एक भोज में उठ गये हैं।

मोटेराम-सब वदि समाि िही ां बीतते।

सुिामा-अब तो जो ईश्वर करेगा सो होगा, क्या कर सकती

ूंां।

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मोटेराम- हाां ईश्वर की इच्छा तो मूल ही है, मगर तुमिे

भी कुछ सोचा है ?

सुिामा-हाां गाांि बेच डालूांगी।

मोटेराम-राम-राम। यह क्या कहती हो ? भूवम वबक

गयी, तो विर बात क्या रह जायेगी?

मोटेराम- भला, पृथ्वी हाथ से विकल गयी, तो तुम

लोगोां का जीिि वििावह कैसे होगा?

सुिामा-हमारा ईश्वर मावलक है। िही बेड़ा पार करेगा।

मोटेराम यह तो बडे़ अिसोस की बात होगी वक ऐसे

उपकारी पुरुर् के लड़के-बाले दु:ख भोगें।

सुिामा-ईश्वर की यही इच्छा है, तो वकसी का क्या बस?

मोटेराम-भला, मैं एक युन्दक्त बता दूां वक साांप भी मर

जाए और लाठी भी ि टूटे।

सुिामा- हाां, बतलाइए बड़ा उपकार होगा।

मोटेराम-पहले तो एक दरख्वास्त वलखिाकर कलक्टर

सावहब को दे दो

वक मालगुलारी माि की जाये। बाकी रुपये का बिोबस्त

हमारे ऊपर छोड दो। हम जो चाहेंगे करें गे, परनु्त इलाके

पर आांच िा आिे पायेगी।

सुिामा-कुछ प्रकट भी तो हो, आप इतिे रुपये कहाां

से लायेंगी?

मोटेराम- तुम्हारे वलए रुपये की क्या कमी है? मुांशी जी

के िाम पर वबिा वलखा-पढ़ी के पचास हजार रुपये का

बिोस्त हो जािा कोई बड़ी बात िही ां है। सच तो यह है वक

रुपया रखा हुआ है, तुम्हारे मुांह से ‘हाां’ विकलिे की देरी है।

सुिामा- िगर के भद्र-पुरुर्ोां िे एकि वकया होगा?

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मोटेराम- हाां, बात-की-बात में रुपया एकि हो गया।

साहब का इशारा बहुत था।

सुिामा-कर-मुन्दक्त के वलए प्राथविा-पञ मुिसे ि

वलखिाया जाएगा और मैं अपिे स्वामी के िाम ऋण ही

लेिा चाहती ूंां। मैं सबका एक-एक पैसा अपिे गाांिोां ही से

चुका दूांगी।

यह कहकर सुिामा िे रुखाई से मुांह िेर वलया और

उसके पीले तथा शोकान्दित बदि पर क्रोध-सा िलकिे

लगा। मोटेराम िे देखा वक बात वबगड़िा चाहती है, तो

सांभलकर बोले- अच्छा, जैसे तुम्हारी इच्छा। इसमें कोई

जबरदस्ती िही ां है। मगर यवद हमिे तुमको वकसी प्रकार

का दु:ख उठाते देखा, तो उस वदि प्रलय हो जायेगा। बस,

इतिा समि लो।

सुिामा-तो आप क्या यह चाहते हैं वक मैं अपिे पवत के

िाम पर दूसरोां की कृतज्ञता का भार रखूां? मैं इसी घर में

जल मरुां गी, अिशि करते-करते मर जाऊां गी, पर वकसी

की उपकृत ि बिूांगी।

मोटेराम-वछ:वछ:। तुम्हारे ऊपर विहोरा कौि कर

सकता है? कैसी बात मुख से विकालती है? ऋण लेिे में

कोई लाज िही ां है। कौि रईस है वजस पर लाख दो-लाख

का ऋण ि हो?

सुिामा- मुिे विश्वास िही ां होता वक इस ऋण में विहोरा

है।

मोटेराम- सुिामा, तुम्हारी बुवद्व कहाां गयी? भला, सब

प्रकार के दु:ख उठा लोगी पर क्या तुम्हें इस बालक पर

दया िही ां आती?

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मोटेराम की यह चोट बहुत कड़ी लगी। सुिामा

सजलियिा हो गई। उसिे पुि की ओर करुणा-भरी दृवि

से देखा। इस बचे् के वलए मैंिे कौि-कौि सी तपस्या िही ां

की? क्या उसके भाग्य में दु:ख ही बदा है। जो अमोला

जलिायु के प्रखर िोांकोां से बचाता जाता था, वजस पर सूयव

की प्रचण्ड वकरणें ि पड़िे पाती थी ां, जो से्नह-सुधा से अभी

वसांवचत रहता था, क्या िह आज इस जलती हुई धूप और

इस आग की लपट में मुरिायेगा? सुिामा कई वमिट तक

इसी वचन्ता में बैठी रही। मोटेराम मि-ही-मि प्रसन्न हो रहे

थे वक अब सिलीभूत हुआ। इतिे में सुिामा िे वसर

उठाकर कहा-वजसके वपता िे लाखोां को वजलाया-न्दखलाया,

िह दूसरोां का आवश्रत िही ां बि सकता। यवद वपता का धमव

उसका सहायक होगा, तो स्वयां दस को न्दखलाकर खायेगा।

लड़के को बुलाते हुए ‘बेटा। तविक यहाां आओ। कल से

तुम्हारी वमठाई, दूध, घी सब बि हो जायेंगे। रोओगे तो

िही ां?’ यह कहकर उसिे बेटे को प्यार से बैठा वलया और

उसके गुलाबी गालोां का पसीिा पोांछकर चुम्बि कर वलया।

प्रताप- क्या कहा? कल से वमठाई बि होगी? क्योां

क्या हलिाई की दुकाि पर वमठाई िही ां है?

सुिामा-वमठाई तो है, पर उसका रुपया कौि देगा?

प्रताप- हम बडे़ होांगे, तो उसको बहुत-सा रुपया दें गे।

चल, टख। टख। देख माां, कैसा तेज घोड़ा है।

सुिामा की आांखोां में विर जल भर आया। ‘हा हन्त।

इस सौियव और सुकुमारता की मूवतव पर अभी से दररद्रता

की आपवत्तयाां आ जायेंगी। िही ां िही ां, मैं स्वयां सब भोग

लूांगी। परनु्त अपिे प्राण-प्यारे बचे् के ऊपर आपवत्त की

परछाही ां तक ि आिे दूांगी।’ माता तो यह सोच रही थी और

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प्रताप अपिे हठी और मुांहजोर घोडे़ पर चढ़िे में पूणव शन्दक्त

से लीि हो रहा था। बचे् मि के राजा होते हैं।

अवभप्राय यह वक मोटेराम िे बहुत जाल िैलाया।

विविध प्रकार का िाक्चातुयव वदखलाया, परनु्त सुिामा िे

एक बार ‘िही ां करके ‘हाां’ ि की। उसकी इस आत्मरक्षा का

समाचार वजसिे सुिा, धन्य-धन्य कहा। लोगोां के मि में

उसकी प्रवतिा दूिी हो गयी। उसिे िही वकया, जो ऐसे

सांतोर्पूणव और उदार-हृदय मिुष्य की स्त्री को करिा

उवचत था।

इसके पन्द्रहिें वदि इलाका िीलामा पर चढ़ा। पचास

सहस् रुपये प्राप्त हुए कुल ऋण चुका वदया गया। घर का

अिािश्यक सामाि बेच वदया गया। मकाि में भी सुिामा िे

भीतर से ऊां ची-ऊां ची दीिारें न्दखांचिा कर दो अलग-अलग

खण्ड कर वदये। एक में आप रहिे लगी और दूसरा भाडे़

पर उठा वदया।

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3

नये पड़ोसिय़ो ों िे मेल-ज़ोल

मुांशी सांजीििलाल, वजन्ोांिे सुिाम का घर भाडे़ पर

वलया था, बडे़ विचारशील मिुष्य थे। पहले एक प्रवतवित

पद पर वियुक्त थे, वकनु्त अपिी स्वतांि इच्छा के कारण

अिसरोां को प्रसन्न ि रख सके। यहाां तक वक उिकी

रुिता से वििश होकर इस्तीिा दे वदया। िौकर के समय

में कुछ पूांजी एकि कर ली थी, इसवलए िौकरी छोड़ते ही िे

ठेकेदारी की ओर प्रिृत्त हुए और उन्ोांिे पररश्रम द्वारा

अल्पकाल में ही अच्छी सम्पवत्त बिा ली। इस समय उिकी

आय चार-पाांच सौ मावसक से कम ि थी। उन्ोांिे कुछ ऐसी

अिुभिशावलिी बुवद्व पायी थी वक वजस कायव में हाथ डालते,

उसमें लाभ छोड़ हावि ि होती थी।

मुांशी सांजीििलाल का कुटुम्ब बड़ा ि था। सन्तािें तो

ईश्वर िे कई दी ां, पर इस समय माता-वपता के ियिोां की

पुतली केिल एक पुञी ही थी। उसका िाम िृजरािी था।

िही दम्पवत का जीििाश्राम थी।

प्रतापचन्द्र और िृजरािी में पहले ही वदि से मैिी

आरांभ हा गयी। आधे घांटे में दोिोां वचवड़योां की भाांवत

चहकिे लगे। विरजि िे अपिी गुवड़या, न्दखलौिे और बाजे

वदखाये, प्रतापचन्द्र िे अपिी वकताबें, लेखिी और वचि

वदखाये। विरजि की माता सुशीला िे प्रतापचन्द्र को गोद में

ले वलया और प्यार वकया। उस वदि से िह वित्य सांध्या को

आता और दोिोां साथ-साथ खेलते। ऐसा प्रतीत होता था वक

दोिोां भाई-बवहि है। सुशीला दोिोां बालकोां को गोद में

बैठाती और प्यार करती। घांटोां टकटकी लगाये दोिोां बच्ोां

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को देखा करती, विरजि भी कभी-कभी प्रताप के घर

जाती। विपवत्त की मारी सुिामा उसे देखकर अपिा दु:ख

भूल जाती, छाती से लगा लेती और उसकी भोली-भाली

बातें सुिकर अपिा मि बहलाती।

एक वदि मुांशी सांजीििलाल बाहर से आये तो क्या

देखते हैं वक प्रताप और विरजि दोिोां दफ्तर में कुवसवयोां पर

बैठे हैं। प्रताप कोई पुस्तक पढ़ रहा है और विरजि ध्याि

लगाये सुि रही है। दोिोां िे ज्ोां ही मुांशीजी को देखा उठ

खडे़ हुए। विरजि तो दौड़कर वपता की गोद में जा बैठी

और प्रताप वसर िीचा करके एक ओर खड़ा हो गया। कैसा

गुणिाि बालक था। आयु अभी आठ िर्व से अवधक ि थी,

परनु्त लक्षण से भािी प्रवतभा िलक रही थी। वदव्य

मुखमण्डल, पतले-पतले लाल-लाल अधर, तीव्र वचतिि,

काले-काले भ्रमर के समाि बाल उस पर स्वच्छ कपडे़

मुांशी जी िे कहा- यहाां आओ, प्रताप।

प्रताप धीरे-धीरे कुछ वहचवकचाता-सकुचाता समीप

आया। मुांशी जी िे वपतृित् पे्रम से उसे गोद में बैठा वलया

और पूछा- तुम अभी कौि-सी वकताब पढ़ रहे थे।

प्रताप बोलिे ही को था वक विरजि बोल उठी- बाबा।

अच्छी-अच्छी कहावियाां थी ां। क्योां बाबा। क्या पहले वचवड़याां

भी हमारी भाांवत बोला करती थी ां।

मुांशी जी मुस्कराकर बोले-हाां। िे खूब बोलती थी ां।

अभी उिके मुांह से पूरी बात भी ि विकलिे पायी थी

वक प्रताप वजसका सांकोच अब गायब हो चला था, बोला-

िही ां विरजि तुम्हें भुलाते हैं ये कहाविया बिायी हुई हैं।

मुांशी जी इस विभीकतापूणव खण्डि पर खूब हांसे।

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अब तो प्रताप तोते की भाांवत चहकिे लगा-सू्कल

इतिा बड़ा है वक िगर भर के लोग उसमें बैठ जायें। दीिारें

इतिी ऊां ची हैं, जैसे ताड़। बलदेि प्रसाद िे जो गेंद में वहट

लगायी, तो िह आकाश में चला गया। बडे़ मास्टर साहब

की मेज पर हरी-हरी बिात वबछी हुई है। उस पर िूलोां से

भरे वगलास रखे हैं। गांगाजी का पािी िीला है। ऐसे जोर से

बहता है वक बीच में पहाड़ भी हो तो बह जाये। िहाां एक

साधु बाबा है। रेल दौड़ती है सि-सि। उसका इां वजि

बोलता है िक-िक। इां वजि में भाप होती है, उसी के जोर

से गाड़ी चलती है। गाड़ी के साथ पेड़ भी दौड़ते वदखायी

देते हैं।

इस भाांवत वकतिी ही बातें प्रताप िे अपिी भोली-भाली

बोली में कही ां विरजि वचि की भाांवत चुपचाप बैठी सुि रही

थी। रेल पर िह भी दो-तीि बार सिार हुई थी। परनु्त उसे

आज तक यह ज्ञात ि था वक उसे वकसिे बिाया और िह

क्योां कर चलती है। दो बार उसिे गुरुजी से यह प्रश्न वकया

भी था परनु्त उन्ोांिे यही कह कर टाल वदया वक बच्ा,

ईश्वर की मवहमा कोई बड़ा भारी और बलिाि घोड़ा है, जो

इतिी गावडयोां को सि-सि खी ांचे।

वलए जाता है। जब प्रताप चुप हुआ तो विरजि िे वपता के

गले हाथ डालकर कहा-बाबा। हम भी प्रताप की वकताब

पढ़ें गे।

मुांशी-बेटी, तुम तो सांसृ्कत पढ़ती हो, यह तो भार्ा है।

विरजि-तो मैं भी भार्ा ही पढूांगी। इसमें कैसी अच्छी-

अच्छी कहावियाां हैं। मेरी वकताब में तो भी कहािी िही ां।

क्योां बाबा, पढ़िा वकसे कहते है ?

18

मुांशी जी बांगले िाांकिे लगे। उन्ोांिे आज तक आप ही

कभी ध्याि िही वदया था वक पढ़िा क्या िसु्त है। अभी िे

माथ ही खुजला रहे थे वक प्रताप बोल उठा- मुिे पढ़ते

देखा, उसी को पढ़िा कहते हैं।

विरजि- क्या मैं िही ां पढ़ती? मेरे पढ़िे को पढ़िा िही ां

कहतें?

विरजि वसद्वान्त कौमुदी पढ़ रही थी, प्रताप िे कहा-

तुम तोते की भाांवत रटती हो।

19

4

एकता का िम्बन्ध पुष्ट ह़ोता है

कुछ काल से सुिामा िे द्रव्याभाि के कारण

महारावजि, कहार और दो महररयोां को जिाब दे वदया था

क्योांवक अब ि तो उसकी कोई आिश्यकता थी और ि

उिका व्यय ही सांभाले सांभलता था। केिल एक बुवढ़या

महरी शेर् रह गयी थी। ऊपर का काम-काज िह करती

रसोई सुिामा स्वयां बिा लेगी। परनु्त उस बेचारी को ऐसे

कवठि पररश्रम का अभ्यास तो कभी था िही ां, थोडे़ ही वदिोां

में उसे थकाि के कारण रात को कुछ ज्वर रहिे लगा।

धीरे-धीरे यह गवत हुई वक जब देखें ज्वर विद्यमाि है। शरीर

भुिा जाता है, ि खािे की इच्छा है ि पीिे की। वकसी कायव

में मि िही ां लगता। पर यह है वक सदैि वियम के अिुसार

काम वकये जाती है। जब तक प्रताप घर रहता है तब तक

िह मुखाकृवत को तविक भी मवलि िही ां होिे देती परनु्त

ज्ोां ही िह सू्कल चला जाता है, त्योां ही िह चद्दर ओढ़कर

पड़ी रहती है और वदि-भर पडे़-पडे़ कराहा करती है।

प्रताप बुवद्वमाि लड़का था। माता की दशा प्रवतवदि

वबगड़ती हुई देखकर ताड गया वक यह बीमार है। एक वदि

सू्कल से लौटा तो सीधा अपिे घर गया। बेटे को देखते ही

सुिामा िे उठ बैठिे का प्रयत्न वकया पर विबवलता के कारण

मूछाव आ गयी और हाथ-पाांि अकड़ गये। प्रताप िे उसां

सांभाला और उसकी और भत्सविा की दृवि से देखकर कहा-

अम्मा तुम आजकल बीमार हो क्या? इतिी दुबली क्योां हो

गयी हो? देखो, तुम्हारा शरीर वकतिा गमव है। हाथ िही ां रखा

जाता।

20

सुिाम िे हांसिे का उद्योग वकया। अपिी बीमारी का

पररचय देकर बेटे को कैसे कि दे? यह वि:सृ्पह और

वि:स्वाथव पे्रम की पराकािा है। स्वर को हलका करके बोली

िही ां बेटा बीमार तो िही ां ूंां। आज कुछ ज्वर हो आया था,

सांध्या तक चांगी हो जाऊां गी। आलमारी में हलुिा रखा हुआ

है विकाल लो। िही ां, तुम आओ बैठो, मैं ही विकाल देती ूंां।

प्रताप-माता, तुम मुि से बहािा करती हो। तुम

अिश्य बीमार हो। एक वदि में कोई इतिा दुबवल हो जाता

है?

सुिाता- (हांसकर) क्या तुम्हारे देखिे में मैं दुबली हो

गयी ूंां।

प्रताप- मैं ड क्टर साहब के पास जाता ूंां।

सुिामा- (प्रताप का हाथ पकड़कर) तुम क्या जािोां वक

िे कहाां रहते हैं?

ताप- पूछते-पूछते चला जाऊां गा।

सुिामा कुछ और कहिा चाहती थी वक उसे विर

चक्कर आ गया। उसकी आांखें पथरा गयी ां। प्रताप उसकी

यह दशा देखते ही डर गया। उससे और कुछ तो ि हो

सका, िह दौड़कर विरजि के द्वार पर आया और खड़ा

होकर रोिे लगा।

प्रवतवदि िह इस समय तक विरजि के घर पहुांच

जाता था। आज जो देर हुई तो िह अकुलायी हुई इधर-

उधर देख रही थी। अकस्मात द्वार पर िाांकिे आयी, तो

प्रताप को दोिोां हाथोां से मुख ढाांके हुए देखा। पहले तो

समिी वक इसिे हांसी से मुख वछपा रखा है। जब उसिे

हाथ हटाये तो आांसू दीख पडे़। चौांककर बोली- ललू्ल क्योां

रोते हो? बता दो।

21

प्रताप िे कुछ उत्तर ि वदया, िरि् और वससकिे लगा।

विरजि बोली- ि बताओगे! क्या चाची िे कुछ कहा ?

जाओ, तुम चुप िही होते।

प्रताप िे कहा- िही ां, विरजि, माां बहुत बीमार है।

यह सुिते ही िृजरािी दौड़ी और एक साांस में सुिामा

के वसरहािे जा खड़ी हुई। देखा तो िह सुन्न पड़ी हुई है,

आांखे मुांद हुई हैं और लम्बी साांसे ले रही हैं। उिका हाथ

थाम कर विरजि विांिोड़िे लगी- चाची, कैसी जी है, आांखें

खोलोां, कैसा जी है?

परनु्त चाची िे आांखें ि खोली ां। तब िह ताक पर से

तेल उतारकर सुिाम के वसर पर धीरे-धीरे मलिे लगी। उस

बेचारी को वसर में महीिोां से तेल डालिे का अिसर ि वमला

था, ठण्डक पहुांची तो आांखें खुल गयी ां।

विरजि- चाची, कैसा जी है? कही ां ददव तो िही ां है?

सुिामा- िही ां, बेटी ददव कही ां िही ां है। अब मैं वबलु्कल

अच्छी ूंां। भैया कहाां हैं?

विरजि-िह तो मेर घर है, बहुत रो रहे हैं।

सुिामा- तुम जाओ, उसके साथ खेलोां, अब मैं वबलु्कल

अच्छी ूंां।

अभी ये बातें हो रही थी ां वक सुशीला का भी शुभागमि

हुआ। उसे सुिाम से वमलिे की तो बहुत वदिोां से उत्किा

थी, परनु्त कोई अिसर ि वमलता था। इस समय िह

सात्विा देिे के बहािे आ पहुांची।विरजि िे अपि माता को

देखा तो उछल पड़ी और ताली बजा-बजाकर कहिे लगी-

माां आयी, माां आयी।

दोिोां स्त्रीयोां में वशिाचार की बातें होिे लगी ां। बातोां-

बातोां में दीपक जल उठा। वकसी को ध्याि भी ि हुआवक

22

प्रताप कहाां है। थोड़ देर तक तो िह द्वार पर खड़ा रोता

रहा,विर िटपट आांखें पोांछकर ड क्टर वकचलू के घर की

ओर लपकता हुआ चला। ड क्टर साहब मुांशी शावलग्राम के

वमञोां में से थे। और जब कभी का पड़ता, तो िे ही बुलाये

जाते थे। प्रताप को केिल इतिा विवदत था वक िे बरिा

िदी के वकिारे लाल बांगल में रहते हैं। उसे अब तक अपिे

मुहले्ल से बाहर विकलिे का कभी अिसर ि पड़ा था।

परनु्त उस समय मातृ भक्ती के िेग से उवद्वग्न होिे के

कारण उसे इि रुकािटोां का कुछ भी ध्याि ि हुआ। घर से

विकलकर बाजार में आया और एक इके्किाि से बोला-

लाल बांगल चलोगे? लाल बांगला प्रसाद स्थाि था।

इक्कािाि तैयार हो गया। आठ बजते-बजते ड क्टर साहब

की विटि सुिामा के द्वार पर आ पहुांची। यहाां इस समय

चारोां ओर उसकी खोज हो रही थी वक अचािक िह सिेग

पैर बढ़ाता हुआ भीतर गया और बोला-पदाव करो। ड क्टर

साहब आते हैं।

सुिामा और सुशीला दोिोां चौांक पड़ी। समि गयी ां, यह

ड क्टर साहब को बुलािे गया था। सुिामा िे पे्रमावधक्य से

उसे गोदी में बैठा वलया डर िही ां लगा? हमको बताया भी

िही ां योां ही चले गये? तुम खो जाते तो मैं क्या करती? ऐसा

लाल कहाां पाती? यह कहकर उसिे बेटे को बार-बार चूम

वलया। प्रताप इतिा प्रसन्न था, मािोां परीक्षा में उत्तीणव हो

गया। थोड़ी देर में पदाव हुआ और ड क्टर साहब आये।

उन्ोांिे सुिामा की िाड़ी देखी और साांत्विा दी। िे प्रताप

को गोद में बैठाकर बातें करते रहे। और्वधय साथ ले आये

थे। उसे वपलािे की सम्मवत देकर िौ बजे बांगले को लौट

गये। परनु्त जीणवज्वर था, अतएि पूरे मास-भर सुिामा को

23

कड़िी-कड़िी और्वधयाां खािी पड़ी। ड क्टर साहब दोिोां

िक्त आते और ऐसी कृपा और ध्याि रखते, मािो सुिामा

उिकी बवहि है। एक बार सुिाम िे डरते-डरते िीस के

रुपये एक पाि में रखकर सामिे रखे। पर ड क्टर साहब िे

उन्ें हाथ तक ि लगाया। केिल इतिा कहा-इन्ें मेरी ओर

से प्रताप को दे दीवजएगा, िह पैदल सू्कल जाता है,

पैरगाड़ी मोल ले लेगा।

विरजि और उिकी माता दोिोां सुिामा की शुशू्रर्ा के

वलए उपन्दस्थत रहती ां। माता चाहे विलम्ब भी कर जाए,

परनु्त विरजि िहाां से एक क्षण के वलए भी ि टलती। दिा

वपलाती, पाि देती जब सुिामा का जी अच्छा होता तो िह

भोली-भोली बातोां द्वारा उसका मि बहलाती। खेलिा-

कूदिा सब छूट गया। जब सुिाम बहुत हठ करती तो

प्रताप के सांग बाग में खेलिे चली जाती। दीपक जलते ही

विर आ बैठती और जब तक विद्रा के मारे िुक-िुक ि

पड़ती, िहाां से उठिे का िाम ि लेती िरि प्राय: िही ां सो

जाती, रात को िौकर गोद में उठाकर घर ले जाता। ि जािे

उसे कौि-सी धुि सिार हो गयी थी।

एक वदि िृजरािी सुिामा के वसरहािे बैठी पांखा िल

रही थी। ि जािे वकस ध्याि में मग्न थी। आांखें दीिार की

ओर लगी हुई थी ां। और वजस प्रकार िृक्षोां पर कौमुदी

लहराती है, उसी भाांवत भीिी-भीिी मुस्काि उसके अधरोां

पर लहरा रही थी। उसे कुछ भी ध्याि ि था वक चाची मेरी

और देख रही है। अचािक उसके हाथ से पांखा छूट गया।

ज्ोां ही िह उसको उठािे के वलए िुकी वक सुिामा िे उसे

गले लगा वलया। और पुचकार कर पूछा-विरजि, सत्य

कहो, तुम अभी क्या सोच रही थी?

24

विरजि िे माथा िुका वलया और कुछ लन्दित होकर

कहा- कुछ िही ां, तुमको ि बतलाऊां गी।

सूिामा- मेरी अच्छी विरजि। बता तो क्या सोचती थी?

विरजि-(लजाते हुए) सोचती थी वक.....जाओ हांसो

मत......ि बतलाऊां गी।

सुिामा-अच्छा ले, ि हसूांगी, बताओ। ले यही तो अब

अच्छा िही लगता, विर मैं आांखें मूांद लूांगी।

विरजि-वकस से कहोगी तो िही ां?

सुिामा- िही ां, वकसी से ि कूंांगी।

विरजि-सोचती थी वक जब प्रताप से मेरा वििाह हो

जायेगा, तब बडे़ आिि से रूंांगी।

सुिामा िे उसे छाती से लगा वलया और कहा- बेटी,

िह तो तेरा भाई हे।

विरजि- हाां भाई है। मैं जाि गई। तुम मुिे बूं ि

बिाओगी।

सुिामा- आज ललू्ल को आिे दो, उससे पूछूूँ देखूां क्या

कहता है?

विरजि- िही ां, िही ां, उिसे ि कहिा मैं तुम्हारे पैरोां

पडूां।

सुिामा- मैं तो कह दूांगी।

विरजि- तुमे्ह हमारी कसम, उिसे ि कहिा।

25

5

सिष्ट-जीवन के दृश्य

वदि जाते देर िही ां लगती। दो िर्व व्यतीत हो गये।

पन्दण्डत मोटेराम वित्य प्रात: काल आत और वसद्वान्त-

कोमुदी पढ़ाते, परन्त अब उिका आिा केिल वियम पालिे

के हेतु ही था, क्योवक इस पुस्तक के पढ़ि में अब विरजि

का जी ि लगता था। एक वदि मुांशी जी इांजीवियर के

दितर से आये। कमरे में बैठे थे। िौकर जूत का िीता

खोल रहा था वक रवधया महर मुस्कराती हुई घर में से

विकली और उिके हाथ में मुह छाप लगा हुआ वलिािा

रख, मुांह िेर हांसिे लगी। वसरिा पर वलखा हुआ था-श्रीमाि

बाबा साह की सेिा में प्राप्त हो।

मुांशी-अरे, तू वकसका वलिािा ले आयी ? यह मेर

िही ां है।

महरी- सरकार ही का तो है, खोले तो आप।

मुांशी-वकसिे हुई बोली- आप खालेंगे तो पता चल

जायेगा।

मुांशी जी िे विन्दस्मत होकर वलिािा खोला। उसमें से

जो पञ-विकला उसमें यह वलखा हुआ था-

बाबा को विरजि क प्रमाण और पालागि पहुांचे। यहाां

आपकी कृपा से कुशल-मांगल है आपका कुशल श्री

विश्विाथजी से सदा मिाया करती ूंां। मैंिे प्रताप से भार्ा

सीख ली। िे सू्कल से आकर सांध्या को मुिे वित्य पढ़ाते हैं।

अब आप हमारे वलए अच्छी-अच्छी पुस्तकें लाइए, क्योांवक

पढ़िा ही जी का सुख है और विद्या अमूल्य िसु्त है। िेद-

पुराण में इसका महात्मय वलखा है। मिुर्य को चावहए वक

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विद्या-धि ति-मि से एकञ करे। विद्या से सब दुख हो

जाते हैं। मैंिे कल बैताल-पचीस की कहािी चाची को

सुिायी थी। उन्ोांिे मुिे एक सुिर गुवड़या पुरस्कार में दी

है। बहुत अच्छी है। मैं उसका वििाह करुां गी, तब आपसे

रुपये लूांगी। मैं अब पन्दण्डतजी से ि पढूांगी। माां िही ां जािती

वक मैं भार्ा पढ़ती ूंां।

आपकी प्यारी

विरजि

प्रशन्दस्त देखते ही मुांशी जी के अन्त: करण में गुदगुद

होिे लगी।विर तो उन्ोांिे एक ही साांस में भारी वचटर ठी पढ़

डाली। मारे आिि के हांसते हुए िांगे-पाांि भीतर दौडे़।

प्रताप को गोद में उठा वलया और विर दोिोां बच्ोां का हाथ

पकडे़ हुए सुशीला के पास गये। उसे वचटर ठी वदखाकर

कहा-बूिो वकसी वचट्ठी है?

सुशीला-लाओ, हाथ में दो, देखूां।

मुांशी जी-िही ां, िही ां से बैठी-बैठी बताओ जल्दी।

सुशीला-बूि् जाऊां तो क्या दोगे?

मुांशी जी-पचास रुपये, दूध के धोये हुए।

सुशीला- पवहले रुपये विकालकर रख दो, िही ां तो

मुकर जाओगे।

मुांशी जी- मुकरिे िाले को कुछ कहता ूंां, अभी रुपये

लो। ऐसा कोई टुटपुूँवजया समि वलया है ?

यह कहकर दस रुपये का एक िोट जेसे विकालकर

वदखाया।

सुशीला- वकतिे का िोट है?

मुांशीजी- पचास रुपये का, हाथ से लेकर देख लो।

27

सुशीला- ले लूांगी, कहे देती ूंां।

मुांशीजी- हाां-हाां, ले लेिा, पहले बता तो सही।

सुशीला- ललू्ल का है लाइये िोट, अब मैं ि मािूांगी।

यह कहकर उठी और मुांशीजी का हाथ थाम वलया।

मुांशीजी- ऐसा क्या डकैती है? िोट छीिे लेती हो।

सुशीला- िचि िही ां वदया था? अभी से विचलिे लगे।

मुांशीजी- तुमिे बूिा भी, सिवथा भ्रम में पड़ गयी ां।

सुशीला- चलो-चलो, बहािा करते हो, िोट हड़पि की

इच्छा है। क्योां ललू्ल, तुम्हारी ही वचट्ठी है ि?

प्रताप िीची दृवि से मुांशीजी की ओर देखकर धीरे-से

बोला-मैंिे कहाां वलखी?

मुांशीजी- लजाओ, लजाओ।

सुशीला- िह िठू बोलता है। उसी की वचट्ठी है, तुम

लोग गूँठकर आये हो।

प्रताप-मेरी वचट्ठी िही ां है, सच। विरजि िे वलखी है।

सुशीला चवकत होकर बोली- विजरि की? विर उसिे

दौड़कर पवत के हाथ से वचट्ठी छीि ली और भौांचक्की

होकर उसे देखिे लगी, परनु्त अब भी विश्वास

आया।विरजि से पूछा- क्यें बेटी, यह तुम्हारी वलखी है?

विरजि िे वसर िुकाकर कहा-हाां।

यह सुिते ही माता िे उसे कि से लगा वलया।

अब आज से विरजि की यह दशा हो गयी वक जब

देन्दखए लेखिी वलए हुए पने्न काले कर रही है। घर के धन्धोां

से तो उस पहले ही कुछ प्रयोज ि था, वलखिे का आिा

सोिे में सोहागा हो गया। माता उसकी तल्लीिता देख-

देखकर प्रमुवदत होती वपता हर्व से िूला ि समाता, वित्य

ििीि पुस्तकें लाता वक विरजि सयािी होगी, तो पढे़गी।

28

यवद कभी िह अपिे पाांि धो लेती, या भोजि करके अपिे

ही हाथ धोिे लगती तो माता महररयोां पर बहुत कुद्र होती-

आांखें िूट गयी है। चबी छा गई है। िह अपिे हाथ से पािी

उां डे़ल रही है और तुम खड़ी मुांह ताकती हो।

इसी प्रकार काल बीतता चला गया, विरजि का

बारहिाां िर्व पूणव हुआ, परनु्त अभी तक उसे चािल

उबालिा तक ि आता था। चूले् के सामिे बैठि का कभी

अिसर ही ि आया। सुिामा िे एक वदि उसकी माता िे

कहा- बवहि विरजि सयािी हुई, क्या कुछ गुि-ढांग

वसखाओगी।

सुशीला-क्या कूंां, जी तो चाहता है वक लग्गा लगाऊां

परनु्त कुछ सोचकर रुक जाती ूंां।

सुिामा-क्या सोचकर रुक जाती हो ?

सुशीला-कुछ िही ां आलस आ जाता है।

सुिामा-तो यह काम मुिे सौांप दो। भोजि बिािा

न्दस्त्रयोां के वलए सबसे आिश्यक बात है।

सुशीला-अभी चूले् के सामि उससे बैठा ि जायेगा।

सुिामा-काम करिे से ही आता है।

सुशीला-(िेंपते हुए) िूल-से गाल कुम्हला जायेंगे।

सुिामा- (हांसकर) वबिा िूल के मुरिाये कही ां िल

लगते हैं?

दूसरे वदि से विरजि भोजि बिािे लगी। पहले दस-

पाांच वदि उसे चूले् के सामिे बैठिे में बड़ा कि हुआ।

आग ि जलती, िूां किे लगती तो िेञोां से जल बहता। िे

बूटी की भाांवत लाल हो जाते। वचिगाररयोां से कई रेशमी

सावड़याां सत्यािाथ हो गयी ां। हाथोां में छाले पड़ गये। परनु्त

क्रमश: सारे के्लश दूर हो गये। सुिामा ऐसी सुशीला स्ञी थी

29

वक कभी रुि ि होती, प्रवतवदि उसे पुचकारकर काम में

लगाय रहती।

अभी विरजि को भोजि बिाते दो मास से अवधक ि

हुए होांगे वक एक वदि उसिे प्रताप से कहा- ललू्ल,मुिे

भोजि बिािा आ गया।

प्रताप-सच।

विरजि-कल चाची िे मेर बिाया भोजि वकया था।

बहुत प्रसन्न।

प्रताप-तो भई, एक वदि मुिे भी िेिता दो।

विरजि िे प्रसन्न होकर कहा-अच्छा,कल।

दूसरे वदि िौ बजे विरजि िे प्रताप को भोजि करिे

के वलए बुलाया। उसिे जाकर देखा तो चौका लगा हुआ है।

ििीि वमट्टी की मीटी-मीठी सुगन्ध आ रही है। आसि

स्वच्छता से वबछा हुआ है। एक थाली में चािल और

चपावतयाूँ हैं। दाल और तरकाररय ूँ अलग-अलग कटोररयोां

में रखी हुई हैं। लोटा और वगलास पािी से भरे हुए रखे हैं।

यह स्वच्छता और ढांग देखकर प्रताप सीधा मुांशी

सांजीििलाल के पास गया और उन्ें लाकर चौके के सामिे

खड़ा कर वदया। मुांशीजी खुशी से उछल पडे़। चट कपडे़

उतार, हाथ-पैर धो प्रताप के साथ चौके में जा बैठे। बेचारी

विरजि क्या जािती थी वक महाशय भी वबिा बुलाये पाहुिे

हो जायेंगे। उसिे केिल प्रताप के वलए भोजि बिाया था।

िह उस वदि बहुत लजायी और दबी ऑांखोां से माता की

ओर देखिे लगी। सुशीला ताड़ गयी। मुस्कराकर मुांशीजी

से बोली-तुम्हारे वलए अलग भोजि बिा है। लड़कोां के बीच

में क्या जाके कूद पडे़?

30

िृजरािी िे लजाते हुए दो थावलयोां में थोड़ा-थोड़ा

भोजि परोसा।

मुांशीजी-विरजि िे चपावतयाूँ अच्छी बिायी हैं। िमव,

शे्वत और मीठी।

प्रताप-मैंिे ऐसी चपावतय ूँ कभी िही ां खायी ां। सालि

बहुत स्वावदि है।

‘विरजि ! चाचा को शोरिेदार आलू दो,’ यह कहकर

प्रताप हूँिे लगा। विरजि िे लजाकर वसर िीचे कर वलया।

पतीली शुष्क हो रही थी।

सुशीली-(पवत से) अब उठोगे भी, सारी रसोई चट कर

गये, तो भी अडे़ बैठे हो!

मुांशीजी-क्या तुम्हारी राल टपक रही है?

विदाि दोिोां रसोई की इवतश्री करके उठे। मुांशीजी िे

उसी समय एक मोहर विकालकर विरजि को पुरस्कार में

दी।

31

6

सिप्टी श्यामाचरण

वडप्टी श्यामाचरण की धाक सारे िगर में छायी हई थी।

िगर में कोई ऐसा हावकम ि था वजसकी लोग इतिी प्रवतिा

करते होां। इसका कारण कुछ तो यह था वक िे स्वभाि के

वमलिसार और सहिशील थे और कुछ यह वक ररश्वत से

उन्ें बडी घृणा थी। न्याय-विचार ऐसी सूक्ष्मता से करते थे

वक दस-बाहर िर्व के भीतर कदावचत उिके दो-ही चार

िैसलोां की अपील हुई होगी। अांगे्रजी का एक अक्षर ि

जािते थे, परनु्त बैरन्दस्टरोां और िकीलोां को भी उिकी

िैवतक पहुांच और सूक्ष्मदवशवता पर आश्चयव होता था। स्वभाि

में स्वाधीिता कूट-कूट भरी थी। घर और न्यायालय के

अवतररक्त वकसी िे उन्ें और कही ां आते-जाते िही ां देखा।

मुशी ां शावलग्राम जब तक जीवित थे, या योां कवहए वक

ितवमाि थे, तब तक कभी-कभी वचतवििोदाथव उिके यह

चले जाते थे। जब िे लप्त हो गये, वडप्टी साहब िे घर

छोडकर वहलिे की शपथ कर ली। कई िर्व हुए एक बार

कलक्टर साहब को सलाम करिे गये थे खािसामा िे कहा-

साहब स्नाि कर रहे हैं दो घांटे तक बरामदे में एक मोढे पर

बैठे प्रतीक्षा करते रहे। तदिन्तर साहब बहादुर हाथ में एक

टेविस बैट वलये हुए विकले और बोले-बाबू साहब, हमको

खेद है वक आपको हामारी बाट देखिी पडी। मुिे आज

अिकाश िही ां है। क्लब-घर जािा है। आप विर कभी

आिें।

यह सुिकर उन्ोांिे साहब बहादुर को सलाम वकया

और इतिी-सी बात पर विर वकसी अांगे्रजी की भेंट को ि

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गये। िांश, प्रवतिा और आत्म-गौरि पर उन्ें बडा अवभमाि

था। िे बडे ही रवसक पुरूर् थे। उिकी बातें हास्य से पूणव

होती थी ां। सांध्या के समय जब िे कवतपय विवशि वमिोां के

साथ द्वाराांगण में बैठते, तो उिके उच् हास्य की गूांजती हुई

प्रवतध्ववि िावटका से सुिायी देती थी। िौकरो-चाकरोां से िे

बहुत सरल व्यिहार रखते थे, यहाां तक वक उिके सांग

अलाि के बेठिे में भी उिको कुछ सांकोच ि था। परनु्त

उिकी धाक ऐसी छाई हुई थी वक उिकी इस सजिता से

वकसी को अिूवचत लाभ उठािे का साहस ि होता था।

चाल-ढाल सामान्य रखते थे। कोअ-पतलूि से उन्ें घृणा

थी। बटिदार ऊां ची अचकयि, उस पर एक रेशमी काम

की अबा, काला न्दिला, ढीला पाजामा और वदल्लीिाला

िोकदार जूता उिकी मुख्य पोशाक थी। उिके दुहरे शरीर,

गुलाबी चेहरे और मध्यम डील पर वजतिी यह पोशाक

शोभा देती थी, उिकी कोट-पतलूिसे सम्भि ि थी। यद्यवप

उिकी धाक सारे िगर-भर में िैली हई थी, तथावप अपिे

घर के मण्डलान्तगतव उिकी एक ि चलती थी। यहाां उिकी

सुयोग्य अद्वाांवगिी का साम्राज् था। िे अपिे अवधकृत प्रान्त

में स्वच्छितापूिवक शासि करती थी। कई िर्व व्यतीत हुए

वडप्टी साहब िे उिकी इच्छा के विरूद्व एक महरावजि

िौकर रख ली थी। महरावजि कुछ रांगीली थी। पे्रमिती

अपिे पवत की इस अिुवचत कृवत पर ऐसी रूि हुई वक कई

सप्ताह तक कोपभिि में बैठी रही। विदाि वििश होकर

साहब िे महरावजि को विदा कर वदया। तब से उन्ें विर

कभी गृहस्थी के व्यिहार में हस्तके्षप करिे का साहस ि

हुआ।

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मुांशीजी के दो बेटे और एक बेटी थी। बडा लडका

साधाचरण गत िर्व वडग्री प्राप्त करके इस समय रूडकी

कालेज में पढाता था। उसका वििाह ितहपुयर-सीकरी के

एक रईस के यहाां हआ था। मांिली लडकी का िाम सेिती

था। उसका भी वििाह प्रयाग के एक धिी घरािे में हुआ

था। छोटा लडका कमलाचरण अभी तक अवििावहत था।

पे्रमिती िे बचपि से ही लाड-प्यार करके उसे ऐसा वबगाड

वदया था वक उसका मि पढिे-वलखिे में तविक भी िही ां

लगता था। पन्द्रह िर्व का हो चुका था, पर अभी तक सीधा-

सा पि भी ि वलख सकता था। इसवलए िहाां से भी िह उठा

वलया गया। तब एक मास्टर साहब वियुक्त हुए और तीि

महीिे रहे परनु्त इतिे वदिोां में कमलाचरण िे कवठिता से

तीि पाठ पढे होांगें। विदाि मास्टर साहब भी विदा हो गये।

तब वडप्टी साहब िे स्वयां पढािा विवश्चत वकया। परनु्त एक

ही सप्ताह में उन्ें कई बार कमला का वसर वहलािे की

आिश्यकता प्रतीत हुई। सावक्षयोां के बयाि और िकीलोां

की सूक्ष्म आलोचिाओां के तत्व को समििा कवठि िही ां है,

वजतिा वकसी विरूत्साही लडके के यमि में वशक्षा-रूवचत

उत्पन्न करिा है।

पे्रमिती िे इस मारधाड पर ऐसा उत्पात मचाया वक

अन्त में वडप्टी साहब िे भी िल्लाकर पढािा छोड वदया।

कमला कुछ ऐसा रूपिाि, सुकुमार और मधुरभार्ी था वक

माता उसे सब लडकोां से अवधक चाहती थी। इस अिुवचत

लाड-प्यार िे उसे पांतांग, कबूतरबाजी और इसी प्रकार के

अन्य कुव्यसिोां का पे्रमी बिा वदया था। सबरे हआ और

कबूतर उडाये जािे लगे, बटेरोां के जोड छूटिे लगे, सांध्या

हई और पांतग के लमे्ब-लमे्ब पेच होिे लगे। कुछ वदिोां में

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जुए का भी चस्का पड चला था। दपणव, कां घी और इि-तेल

में तो मािोां उसके प्राण ही बसते थे।

पे्रमिती एक वदि सुिामा से वमलिे गयी हुई थी। िहाां

उसिे िृजरािी को देखा और उसी वदि से उसका जी

ललचाया हआ था वक िह बूं बिकर मेरे घर में आये, तो

घर का भाग्य जाग उठे। उसिे सुशीला पर अपिा यह भाि

प्रगट वकया। विरजि का तेरहॅिा आरम्भ हो चुका था। पवत-

पत्नी में वििाह के सम्बन्ध में बातचीत हो रही थी। पे्रमिती

की इच्छा पाकर दोिोां िूले ि समाये। एक तो पररवचत

पररिार, दूसरे कलीि लडका, बूवद्वमाि और वशवक्षत, पैतृक

सम्पवत अवधक। यवद इिमें िाता हो जाए तो क्या पूछिा।

चटपट रीवत के अिुसार सांदेश कहला भेजा।

इस प्रकार सांयोग िे आज उस विरै्ले िृक्ष का बीज

बोया, वजसिे तीि ही िर्व में कुल का सिविाश कर वदया।

भविष्य हमारी दृवि से कैसा गुप्त रहता है ?

ज्ोां ही सांदेशा पहुांचा, सास, ििद और बूं में बातें

होिे लगी।

बूं(चन्द्रा)-क्योां अम्मा। क्या आप इसी साल ब्याह

करेंगी ?

पे्रमिती-और क्या, तुम्हारे लालाली के माििे की देर

है।

बूं-कूछ वतलक-दहेज भी ठहरा

पे्रमिती-वतलक-दहेज ऐसी लडवकयोां के वलए िही ां

ठहराया जाता।

जब तुला पर लडकी लडके के बराबर िही ां

ठहरती,तभी दहेज का पासांग बिाकर उसे बराबर कर देते

हैं। हमारी िृजरािी कमला से बहुत भारी है।

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सेिती-कुछ वदिोां घर में खूब धूमधाम रहेगी। भाभी

गीत गायेंगी। हम ढोल बजायेंगें। क्योां भाभी ?

चन्द्रा-मुिे िाचिा गािा िही ां आता।

चन्द्रा का स्वर कुछ भद्दा था, जब गाती, स्वर-भांग हो

जाता था। इसवलए उसे गािे से वचढ थी।

सेिती-यह तो तुम आप ही करो। तुम्हारे गािे की तो

सांसार में धूम है।

चन्द्रा जल गयी, तीखी होकर बोली-वजसे िाच-गाकर

दूसरोां को लुभािा हो, िह िाचिा-गािा सीखे।

सेिती-तुम तो तविक-सी हांसी में रूठ जाती हो। जरा

िह गीत गाओां तो—तुम तो श्याम बडे बेखबर हो’। इस

समय सुििे को बहुत जी चाहता है। महीिोां से तुम्हारा गािा

िही ां सुिा।

चन्द्रा-तुम्ही गाओ, कोयल की तरह कूकती हो।

सेिती-लो, अब तुम्हारी यही चाल अच्छी िही ां लगती।

मेरी अच्छी भाभी, तविक गाओां।

चन्द्रमा-मैं इस समय ि गाऊां गी। क्योां मुिे कोई

डोमिी समि वलया है ?

सेिती-मैं तो वबि गीत सुिे आज तुम्हारा पीछा ि

छोडूांगी।

सेिती का स्वर परम सुरीला और वचताकर्वक था।

रूप और आकृवत भी मिोहर, कुिि िणव और रसीली

आांखें। प्याली रांग की साडी उस पर खूब न्दखल रही थी। िह

आप-ही-आप गुिगुिािे लगी:

तुम तो श्याम बडे बेखबर हो...तुम तो श्याम।

आप तो श्याम पीयो दूध के कुल्ड, मेरी तो पािी पै

गुजर-

36

पािी पै गुजर हो। तुम तो श्याम...

दूध के कुल्ड पर िह हांस पडी। पे्रमिती भी

मुस्करायी, परनु्त चन्द्रा रूि हो गयी। बोली –वबिा हांसी की

हांसी हमें िही ां आती। इसमें हांसिे की क्या बात है ?

सेिती-आओ, हम तुम वमलकर गायें।

चन्द्रा-कोयल और कौए का क्या साथ ?

सेती-क्रोध तो तुम्हारी िाक पर रहता है।

चन्द्रा-तो हमें क्योां छेडती हो ? हमें गािा िही ां आता, तो

कोई तुमसे वििा करिे तो िही ां जाता।

‘कोई’ का सांकेत राधाचरण की ओर था। चन्द्रा में चाहे

और गुण ि होां, परनु्त पवत की सेिा िह ति-मि से करती

थी। उसका तविक भी वसर धमका वक इसके प्राण विकला।

उिको घर आिे में तविक देर हुई वक िह व्याकुल होिे

लगी। जब से िे रूडकी चले गये, तब से चन्द्रा यका हॅसिा-

बोलिा सब छूट गया था। उसका वििोद उिके सांग चला

गया था। इन्ी ां कारणोां से राधाचरण को स्त्री का िशीभूत

बिा वदया था। पे्रम, रूप-गुण, आवद सब िुवटयोां का पूरक

है।

सेिती-वििा क्योां करेगा, ‘कोई’ तो ति-मि से तुम पर

रीिा हुआ है।

चन्द्रा-इधर कई वदिोां से वचट्ठी िही ां आयी।

सेिती-तीि-चार वदि हुए होांगे।

चन्द्रा-तुमसे तो हाथ-पैर जोड़ कर हार गयी। तुम

वलखती ही िही ां।

सेिती-अब िे ही बातें प्रवतवदि कौि वलखे, कोई ियी

बात हो तो वलखिे को जी भी चाहे।

37

चन्द्रा-आज वििाह के समाचार वलख देिा। लाऊां

कलम-दिात ?

सेिती-परनु्त एक शतव पर वलखूांगी।

चन्द्रा-बताओां।

सेिती-तुम्हें श्यामिाला गीत गािा पडे़गा।

चन्द्रा-अच्छा गा दूांगी। हॅसिे को जी चाहता है ि ?हॅस

लेिा।

सेिती-पहले गा दो तो वलखूां।

चन्द्रा-ि वलखोगी। विर बातें बिािे लगोगी।

सेिती- तुम्हारी शपथ, वलख दूांगी, गाओ।

चन्द्रा गािे लगी-

तुम तो श्याम बडे़ बेखबर हो।

तुम तो श्याम पीयो दूध के कूल्ड़, मेरी तो पािी

पै गुजर

पािी पे गुजर हो। तुम तो श्याम बडे बेखबर हो।

अन्दन्तम शब् कुछ ऐसे बेसुरे विकले वक हॅसी को

रोकिा कवठि हो गया। सेिती िे बहुत रोका पर ि रुक

सकी। हॅसते-हॅसते पेट में बल पड़ गया। चन्द्रा िे दूसरा पद

गाया:

आप तो श्याम रक्खो दो-दो लुगइय ,

मेरी तो आपी पै िजर आपी पै िजर हो।

तुम तो श्याम....

‘लुगइयाां’ पर सेिती हॅसते-हॅसते लोट गयी। चन्द्रा िे

सजल िेि होकर कहा-अब तो बहुत हॅस चुकी ां। लाऊां

कागज ?

सेिती-िही ां, िही ां, अभी तविक हॅस लेिे दो।

38

सेिती हॅस रही थी वक बाबू कमलाचरण का बाहर से

शुभागमि हुआ, पन्द्रह सोलह िर्व की आयु थी। गोरा-गोरा

गेहुांआ रांग। छरहरा शरीर, हॅसमुख, भड़कीले िस्त्रोां से

शरीर को अलांकृत वकये, इि में बसे, िेिो में सुरमा, अधर

पर मुस्काि और हाथ में बुलबुल वलये आकर चारपाई पर

बैठ गये। सेिती बोली’-कमलू। मुांह मीठा कराओां, तो तुम्हें

ऐसे शुभ समाचार सुिायें वक सुिते ही िड़क उठो।

कमला-मुांह तो तुम्हारा आज अिश्य ही मीठा होगा।

चाहे शुभ समाचार सुिाओां, चाहे ि सुिाओां। आज इस पठे

िे यह विजय प्राप्त की है वक लोग दांग रह गये।

यह कहकर कमलाचरण िे बुलबुल को अांगूठे पर

वबठा वलया।

सेिती-मेरी खबर सुिते ही िाचिे लगोगे।

कमला-तो अच्छा है वक आप ि सुिाइए। मैं तो आज

योां ही िाच रहा ूंां। इस पठे िे आज िाक रख ली। सारा

िगर दांग रह गया। ििाब मुने्नखाां बहुत वदिोां से मेरी आांखोां

में चढे़ हुए थे। एक पास होता है, मैं उधर से विकला, तो

आप कहिे लगे-वमय , कोई पठा तैयार हो तो लाओां, दो-दो

चौांच हो जायें। यह कहकर आपिे अपिा पुरािा बुलबुल

वदखाया। मैिे कहा- कृपाविधाि। अभी तो िही ां। परनु्त एक

मास में यवद ईश्वर चाहेगा तो आपसे अिश्य एक जोड़

होगी, और बद-बद कर आज। आगा शेरअली के अखाडे़

में बदाि ही ठहरी। पचाय-पचास रूपये की बाजी थी।

लाखोां मिुष्य जमा थे। उिका पुरािा बुलबुल, विश्वास मािोां

सेिती, कबूतर के बराबर था। परनु्त िह भी केिल िूला

हुआ ि था। सारे िगर के बुलबुलो को परावजत वकये बैठा

था। बलपूिकव लात चलायी। इसिे बार-बार िचाया और

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विर िपटकर उसकी चोटी दबायी। उसिे विर चोट की।

यह िीचे आया। चतुवदवक कोलाहल मच गया- मार वलया

मार वलया। तब तो मुिे भी क्रोध आया डपटकर जो

ललकारता ूंां तो यह ऊपर और िह िीचे दबा हआ है।

विर तो उसिे वकतिा ही वसर पटका वक ऊपर आ जाए,

परनु्त इस शेयर िे ऐसा दाबा वक वसर ि उठािे वदया।

िबाब साहब स्वयां उपन्दस्थत थे। बहुत वचल्लाये, पर क्या हो

सकता है ? इसिे उसे ऐसा दबोचा था जैसे बाज वचवडया

को। आन्दखर बगटुट भागा। इसिे पािी के उस पार तक

पीछा वकया, पर ि पा सका। लोग विस्मय से दांग हो गये।

ििाब साहब का तो मुख मवलि हो गया। हिाइय उडिे

लगी ां। रूपये हारिे की तो उन्ें कुछ वचांन्ता िही ां, क्योांवक

लाखोां की आय है। परनु्त िगर में जो उिकी धाक जमी हुई

थी, िह जाती रही। रोते हुए घर को वसधारे। सुिता ूंां, यहाां

से जाते ही उन्ोांिे अपिे बुलबुल को जीवित ही गाड़ वदया।

यह कहकर कमलाचरण िे जेब खिखिायी।

सेिती-तो विर खडे़ क्या कर रहे हो ? आगरे िाले की

दुकाि पर आदमी भेजो।

कमला-तुम्हारे वलए क्या लाऊां , भाभी ?

सेिती-दूध के कुल्ड़।

कमला-और भैया के वलए ?

सेिती-दो-दो लुगइय ।

यह कहकर दोिोां ठहका मारकर हॅसिे लगे।

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7

सनठुरता और पे्रम

सुिामा ति-मि से वििाह की तैयाररयाां करिे लगी ां।

भोर से सांध्या तक वििाह के ही धन्धोां में उलिी रहती।

सुशीला चेरी की भाांवत उसकी आज्ञा का पालि वकया

करती। मुांशी सांजीििलाल प्रात:काल से साांि तक हाट की

धूल छािते रहते। और विरजि वजसके वलए यह सब

तैयाररयाां हो रही थी, अपिे कमरे में बैठी हुई रात-वदि रोया

करती। वकसी को इतिा अिकाश ि था वक क्षण-भर के

वलए उसका मि बहलाये। यह तक वक प्रताप भी अब उसे

विठुर जाि पड़ता था। प्रताप का मि भी इि वदिोां बहुत ही

मवलि हो गया था। सबेरे का विकला हुआ स ि को घर

आता और अपिी मुांडेर पर चुपचाप जा बैठता। विरजि के

घर जािे की तो उसिे शपथ-सी कर ली थी। िरि जब

कभी िह आती हुई वदखई देती, तो चुपके से सरक जाता।

यवद कहिे-सुििे से बैठता भी तो इस भाांवत मुख िेर लेता

और रूखाई का व्यिहार करता वक विरजि रोिे लगती

और सुिामा से कहती-चाची, ललू्ल मुिसे रूि है, मैं

बुलाती ूंां, तो िही ां बोलते। तुम चलकर मिा दो। यह

कहकर िह मचल जाती और सुिामा का ऑचल पकड़कर

खी ांचती हुई प्रताप के घर लाती। परनु्त प्रताप दोिोां को

देखते ही विकल भाग्ता। िृजरािी द्वार तक यह कहती हुई

आती वक-ललू्ल तविक सुि लो, तविक सुि लो, तुम्हें हमारी

शपथ, तविक सुि लो। पर जब िह ि सुिता और ि मुांह

िेरकर देखता ही तो बेचारी लड़की पृथ्वी पर बैठ जाती

और भली-भ ती िूट-िूटकर रोती और कहती-यह मुिसे

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क्योां रूठे हुए है ? मैिे तो इन्ें कभी कुछ िही ां कहा।

सुिामा उसे छाती से लगा लेती और समिाती-बेटा। जािे

दो, ललू्ल पागल हो गया है। उसे अपिे पुि की विठुरता का

भेद कुछ-कुछ ज्ञात हो चला था।

विदाि वििाह को केिल पाांच वदि रह गये। िातेदार

और सम्बन्धी लोग दूर तथा समीप से आिे लगे। ऑगि में

सुिर मण्डप छा गया। हाथ में कां गि बॅध गये। यह कचे्

घागे का कां गि पविि धमव की हथकड़ी है, जो कभी हाथ से

ि विकलेगी और मांण्डप उस पे्रम और कृपा की छाया का

स्मारक है, जो जीििपयवन्त वसर से ि उठेगी। आज सांध्या

को सुिामा, सुशीला, महारावजिें सब-की-सब वमलकर देिी

की पूजा करिे को गयी ां। महररयाां अपिे धांधोां में लगी हुई

थी। विरजि व्याकुल होकर अपिे घर में से विकली और

प्रताप के घर आ पहुांची। चतुवदवक सन्नाटा छाया हुआ था।

केिल प्रताप के कमरे में धुांधला प्रकाश िलक रहा था।

विरजि कमरे में आयी, तो क्या देखती है वक मेज पर

लालटेि जल रही है और प्रताप एक चारपाई पर सो रहा

है। धुांधले उजाले में उसका बदि कुम्हलाया और मवलि

िजर आता है। िसु्तऍ सब इधर-उधर बेढांग पड़ी हुई है।

जमीि पर मािोां धूल चढ़ी हुई है। पुस्तकें िैली हुई है। ऐसा

जाि पड़ता है मािोां इस कमरे को वकसी िे महीिोां से िही ां

खोला। िही प्रताप है, जो स्वच्छता को प्राण-वप्रय समिता

था। विरजि िे चाहा उसे जगा दूां । पर कुछ सोचकर भूवम

से पुस्तकें उठा-उठा कर आल्मारी में रखिे लगी। मेज पर

से धूल िाडी, वचिोां पर से गदव का परदा उठा वलया।

अचािक प्रताि िे करिट ली और उिके मुख से यह िाक्य

विकला-‘विरजि। मैं तुम्हें भूल िही ां सकता’’। विर थोडी

42

देर पश्चात-‘विरजि’। कहाां जाती हो, यही बैठो ? विर

करिट बदलकर-‘ि बैठोगी’’? अच्छा जाओां मैं भी तुमसे ि

बोलूांगा। विर कुछ ठहरकर-अच्छा जाओां, देखें कहाां जाती

है। यह कहकर िह लपका, जैसे वकसी भागते हुए मिुष्य

को पकड़ता हो। विरजि का हाथ उसके हाथ में आ गया।

उसके साथ ही ऑखें खुल गयी ां। एक वमिट तक उसकी

भाि-शून्य दृवर्ट विरजि के मुख की ओर गड़ी रही। विर

अचािक उठ बैठा और विरजि का हाथ छोड़कर बोला-

तुम कब आयी ां, विरजि ? मैं अभी तुम्हारा ही स्वप्न देख रहा

था।

विरजि िे बोलिा चाहा, परनु्त कण्ठ रूां ध गया और

आांखें भर आयी ां। प्रताप िे इधर-उधर देखकर विर कहा-

क्या यह सब तुमिे साि वकया ?तुम्हें बडा कि हुआ।

विरजि िे इसका भी उतर ि वदया।

प्रताप-विरजि, तुम मुिे भूल क्योां िही ां जाती ां ?

विरजि िे आद्र िेिोां से देखकर कहा-क्या तुम मुिे

भूल गये ?

प्रताि िे लन्दित होकर मस्तक िीचा कर वलया। थोडी

देर तक दोिोां भािोां से भरे भूवम की ओर ताकते रहे। विर

विरजि िे पूछा-तुम मुिसे क्योां रूि हो ? मैिे कोई

अपराध वकया है ?

प्रताप-ि जािे क्योां अब तुम्हें देखता ूंां, तो जी चाहता

है वक कही ां चला जाऊां ।

विरजि-क्या तुमको मेरी तविक भी मोह िही ां लगती ?

मैं वदि-भर रोया करती ूंां। तुम्हें मुि पर दया िही ां आती ?

तुम मुिसे बोलते तक िही ां। बतलाओां मैिे तुम्हें क्या कहा

जो तुम रूठ गये ?

43

प्रताप-मैं तुमसे रूठा थोडे ही ूंां।

विरजि-तो मुिसे बोलते क्योां िही ां।

प्रताप-मैं चाहता ूंां वक तुम्हें भूल जाऊां । तुम धििाि

हो, तुम्हारे माता-वपता धिी हैं, मैं अिाथ ूंां। मेरा तुम्हारा

क्या साथ ?

विरजि-अब तक तो तुमिे कभी यह बहािा ि

विकाला था, क्या अब मैं अवधक धििाि हो गयी ?

यह कहकर विरजि रोिे लगी। प्रताप भी द्रवित हुआ,

बोला-विरजि। हमारा तुम्हारा बहुत वदिोां तक साथ रहा।

अब वियोग के वदि आ गये। थोडे वदिोां में तुम यह िालोां

को छोड़कर अपिे सुसुराल चली जाओगी। इसवलए मैं भी

बहुत चाहता ूंां वक तुम्हें भूल जाऊां । परनु्त वकतिा ही

चाहता ूंां वक तुम्हारी बातें स्मरण में ि आये, िे िही ां मािती ां।

अभी सोते-सोते तुम्हारा ही स्वस्पि देख रहा था।

44

8

िखियााँ

वडप्टी श्यामाचरण का भिि आज सुिररयोां के जमघट

से इन्द्र का अखाड़ा बिा हुआ था। सेिती की चार

सहेवलय -रून्दिणी, सीता, रामदैई और चन्द्रकुां िर-सोलहोां

वसांगार वकये इठलाती विरती थी। वडप्टी साहब की बवहि

जािकी कुां िर भी अपिी दो लड़वकयोां के साथ इटािे से आ

गयी थी ां। इि दोिोां का िाम कमला और उमादेिी था।

कमला का वििाह हो चुका था। उमादेिी अभी कुां िारी ही

थी। दोिोां सूयव और चन्द्र थी। मांडप के तले डौमवियाां और

गिविहाररिे सोहर और सोहाग, अलाप रही थी। गुलवबया

िाइि और जमिी कहाररि दोिोां चटकीली सावडय पवहिे,

माांग वसांदूर से भरिाये, वगलट के कडे़ पवहिे छम-छम

करती विरती थी ां। गुलवबया चपला िियौििा थी। जमुिा

की अिस्था ढल चुकी थी। सेिती का क्या पूछिा? आज

उसकी अिोखी छटा थी। रसीली आांखें आमोदावधक्य से

मतिाली हो रही थी ां और गुलाबी साड़ी की िलक से चम्पई

रांग गुलाबी जाि पड़ता था। धािी मखमल की कुरती उस

पर खूब न्दखलती थी। अभी स्नाि करके आयी थी, इसवलए

िावगि-सी लट कां धोां पर लहरा रही थी। छेड़छाड़ और

चुहल से इतिा अिकाश ि वमलता था वक बाल गुांथिा ले।

महरावजि की बेटी माधिी छी ांट का लॅहगा पहिे, ऑखोां में

काजल लगाये, भीतर-बाहर वकये हुए थी।

रून्दिणी िे सेिती से कहा-वसतो। तुम्हारी भािज

कह है ? वदखायी िही ां देती। क्या हम लोगोां से भी पदाव है ?

45

रामदेई-(मुस्कराकर)परदा क्योां िही ां है ? हमारी िजर

ि लग जायगी?

सेिती-कमरे में पड़ी सो रही होांगी। देखोां अभी खी ांचे

लाती ूंां।

यह कहकर िह चन्द्रमा से कमरे में पहुांची। िह एक

साधारण साड़ी पहिे चारपाई पर पड़ी द्वार की ओर

टकटकी लगाये हुए थी। इसे देखते ही उठ बैठी। सेिती िे

कहा-यह क्या पड़ी हो, अकेले तुम्हारा जी िही ां घबराता?

चन्द्रा-उांह, कौि जाए, अभी कपडे़ िही ां बदले।

सेिती-बदलती क्योां िही ां ? सन्दखय तुम्हारी बाट देख

रही हैं।

चन्द्रा-अभी मैं ि बदलूांगी।

सेिती-यही हठ तुम्हारा अच्छा िही ां लगता। सब अपिे

मि में क्या कहती होांगी ?

चन्द्रा-तुमिे तो वचटठी पढी थी, आज ही आिे को

वलखा था ि ?

सेिती-अच्छा,तो यह उिकी प्रतीक्षा हो रही है, यह

कवहये तभी योग साधा है।

चन्द्रा-दोपहर तो हुई, स्यात् अब ि आयेंगे।

इतिे में कमला और उपादेिी दोिोां आ पहुांची। चन्द्रा

िे घूांघट विकाल वलया और िव श पर आ बैठी। कमला

उसकी बड़ी ििद होती थी।

कमला-अरे, अभी तो इन्ोांिे कपडे़ भी िही ां बदले।

सेिती-भैया की बाट जोह रही है। इसवलए यह भेर्

रचा है।

कमला-मूखव हैं। उन्ें गरज होगी, आप आयेंगे।

सेिती-इिकी बात विराली है।

46

कमला-पुरूर्ोां से पे्रम चाहे वकतिा ही करे, पर मुख से

एक शब् भी ि विकाले, िही ां तो व्यथव सतािे और जलािे

लगते हैं। यवद तुम उिकी उपेक्षा करो, उिसे सीधे बात ि

करोां, तो िे तुम्हारा सब प्रकार आदर करेगें। तुम पर प्राण

समपवण करेंगें, परनु्त ज्ो ही उन्ें ज्ञात हुआ वक इसके

हृदय में मेरा पे्रम हो गया, बस उसी वदि से दृवि विर

जायेगी। सैर को जायेंगें, तो अिश्य देर करके आयेगें।

भोजि करिे बैठेगें तो मुहां जूठा करके उठ जायेगें, बात-

बात पर रूठें गें। तुम रोओगी तो मिायेगें, मि में प्रसन्न होांगे

वक कैसा िां दा डाला है। तुम्हारे समु्मख अन्य न्दस्त्रयोां की

प्रशांसा करेंगें। भािाथव यह है वक तुम्हारे जलािे में उन्ें

आिि आिे लगेगा। अब मेरे ही घर में देखोां पवहले इतिा

आदर करते थे वक क्या बताऊां । प्रवतक्षण िौकरो की भाांवत

हाथ बाांधे खडे़ रहते थे। पांखा िेलिे को तैयार, हाथ से कौर

न्दखलािे को तैयार यह तक वक (मुस्कराकर) प ि दबािे में

भी सांकोच ि था। बात मेरे मुख से विकली िही ां वक पूरी

हुई। मैं उस समय अबोध थी। पुरुर्ोां के कपट व्यिहार क्या

जािूां। पटी में आ गयी। जािते थे वक आज हाथ बाांध कर

खड़ी होगी ां। मैिे लम्बी तािी तो रात-भर करिट ि ली।

दूसरे वदि भी ि बोली। अांत में महाशय सीधे हुए, पैरोां पर

वगरे, वगड़वगड़ाये, तब से मि में इस बात की गाांठ ब ध ली

है वक पुरूर्ोां को पे्रम कभी ि जताओां।

सेिती-जीजा को मैिे देखा है। भैया के वििाह में आये

थे। बड़ां हॅसमुख मिुष्य हैं।

कमला-पािवती उि वदिोां पेट में थी, इसी से मैं ि आ

सकी थी। यह से गये तो लगे तुम्हारी प्रशांसा करिे। तुम

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कभी पाि देिे गयी थी ? कहते थे वक मैिे हाथ थामकर

बैठा वलया, खूब बातें हुई।

सेिती-िठेू हैं, लबाररये हैं। बात यह हुई वक गुलवबया

और जमुिी दोिोां वकसी कायव से बाहर गयी थी ां। म िे कहा,

िे खाकर गये हैं, पाि बिा के दे आ। मैं पाि लेकर गयी,

चारपाई पर लेटे थे, मुिे देखते ही उठ बैठे। मैिे पाि देिे

को हाथ बढाया तो आप कलाई पकड़कर कहिे लगे वक

एक बात सुि लो, पर मैं हाथ छुड़ाकर भागी।

कमला-विकली ि िठूी बात। िही तो मैं भी कहती ूंां

वक अभी ग्यारह-बाहरह िर्व की छोकरी, उसिे इिसे क्या

बातें की होगी ? परनु्त िही ां, अपिा ही हठ वकये जाये।

पुरूर् बडे़ प्रलापी होते है। मैिे यह कहा, मैिे िह कहा।

मेरा तो इि बातोां से हृदय सुलगता है। ि जािे उन्ें अपिे

ऊपर िठूा दोर् लगािे में क्या स्वाद वमलता है ? मिुष्य जो

बुरा-भला करता है, उस पर परदा डालता है। यह लोग

करेंगें तो थोड़ा, वमथ्या प्रलाप का आल्ा गाते विरेगें

ज्ादा। मैं तो तभी से उिकी एक बात भी सत्य िही ां

मािती।

इतिे में गुलवबया िे आकर कहा-तुमतो यह ठाढी

बतलात हो। और तुम्हार सखी तुमका आांगि में बुलौती है।

सेिती-देखोां भाभी, अब देर ि करो। गुलवबया, तविक

इिकी वपटारी से कपडे़ तो विकाल ले।

कमला चन्द्रा का शृ्रगाांर करिे लगी। सेिती सहेवलयोां

के पास आयी। रून्दिणी बोली-िाह बवह, खूब। िह जाकर

बैठ रही। तुम्हारी दीिारोां से बोले क्या ?

सेिती-कमला बवहि चली गयी। उिसे बातचीत होिे

लगी ां। दोिोां आ रही हैं।

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रून्दिणी-लड़कोरी है ि ?

सेिती-ह , तीि लड़के हैं।

रामदेई-मगर काठी बहुत अच्छी है।

चन्द्रकुां िर-मुिे उिकी िाक बहुत सुिर लगती है, जी

चाहता है छीि लूां।

सीता-दोिोां बवहिे एक-से-एक बढ़ कर है।

सेिती-सीता को ईश्वर िे िर अच्छा वदया है, इसिे सोिे

की गौ पूजी थी।

रून्दिणी-(जलकर)गोरे चमडे़ से कुछ िही ां होता।

सीता-तुम्हें काला ही भाता होगा।

सेिती-मुिे काला िर वमलता तो विर् खा लेती।

रून्दिणी-यो कहिे को जो चाहे कह लोां, परनु्त िास्ति

में सुख काले ही िर से वमलता है।

सेिती-सुख िही ां धूल वमलती है। ग्रहण-सा आकर

वलपट जाता होगा।

रून्दिणी-यही तो तुम्हारा लड़कपि है। तुम जािती

िही ां सुिर पुरुर् अपिे ही बिाि-वसांगार में लगा रहता है।

उसे अपिे आगे स्त्री का कुछ ध्याि िही ां रहता। यवद स्त्री

परम-रूपिती हो तो कुशल है। िही ां तो थोडे ही वदिोां िह

समिता है वक मैं ऐसी दूसरी न्दस्त्रयोां के हृदय पर सुगमता

से अवधकार पा सकता ूंां। उससे भागिे लगता है। और

कुरूप पुरूर् सुिर स्त्री पा जाता है तो समिता है वक मुिे

हीरे की खाि वमल गयी। बेचारा काला अपिे रूप की कमी

को प्यार और आदर से पूरा करता है। उसके हृदय में ऐसी

धुकधुकी लगी रहती है वक मैं तविक भी इससे खटा पड़ा

तो यह मुिसे घृणा करिे लगेगी।

49

चन्द्रकुां ि-दूल्ा सबसे अच्छा िह, जो मुांह से बात

विकलते ही पूरा करे।

रामदेई-तुम अपिी बात ि चलाओां। तुम्हें तो अचे्छ-

अचे्छ गहिोां से प्रयोजि है, दूल्ा कैसा ही हो।

सीता-ि जािे कोई पुरूर् से वकसी िसु्त की आज्ञा

कैसे करता है। क्या सांकोच िही ां होता ?

रून्दिणी-तुम बपुरी क्या आज्ञा करोगी, कोई बात भी

तो पूछे ?

सीता-मेरी तो उन्ें देखिे से ही तृन्दप्त हो जाती है।

िस्त्राभूर्णोां पर जी िही ां चलता।

इतिे में एक और सुिरी आ पहुांची, गहिे से गोांदिी

की भाांवत लदी हुई। बवढ़या जूती पहिे, सुगांध में बसी।

ऑखोां से चपलता बरस रही थी।

रामदेई-आओ रािी, आओ, तुम्हारी ही कमी थी।

रािी-क्या करूां , विगोडी िाइि से वकसी प्रकार पीछा

िही ां छूटता था। कुसुम की म आयी तब जाके जूड़ा ब धा।

सीता-तुम्हारी जावकट पर बवलहारी है।

रािी-इसकी कथा मत पूछो। कपड़ा वदये एक मास

हुआ। दस-बारह बार दजी सीकर लाया। पर कभी आस्तीि

ढीली कर दी, कभी सीअि वबगाड़ दी, कभी चुिाि वबगाड़

वदया। अभी चलते-चलते दे गया है।

यही बातें हो रही थी वक माधिी वचल्लाई हुई आयी-

‘भैया आये, भैया आये। उिके सांग जीजा भी आये हैं,

ओहो। ओहो।

रािी-राधाचरण आये क्या ?

सेिती-ह । चलू तविक भाभी को सिेश दे आांऊ।

क्या रे। कहाां बैठे है ?

50

माधिी-उसी बडे़ कमरे में। जीजा पगड़ी ब धे है, भैया

कोट पवहिे हैं, मुिे जीजा िे रूपया वदया। यह कहकर

उसिे मुठी खोलकर वदखायी।

रािी-वसतो। अब मुांह मीठा कराओ।

सेिती-क्या मैिे कोई मिौती की थी ?

यह कहती हुई सेिती चन्द्रा के कमरे में जाकर बोली-

लो भाभी। तुम्हारा सगुि ठीक हुआ।

चन्द्रा-कया आ गये ? तविक जाकर भीतर बुला लो।

सेिती-ह मदािे में चली जाउां। तुम्हारे बहिाई जी भी

तो पधारे है।

चन्द्रा-बाहर बैठे क्या यकर रहे हैं ? वकसी को भेजकर

बुला लेती, िही ां तो दूसरोां से बातें करिे लगेंगे।

अचािक खडाऊां का शब् सुिायी वदया और

राधाचरण आते वदखायी वदये। आयु चौबीस-पच्ीस बरस

से अवधक ि थी। बडे ही हॅसमुख, गौर िणव, अांगे्रजी काट के

बाल, फ्रें च काट की दाढी, खडी मूांछे, लिांडर की लपटें आ

रही थी। एक पतला रेशमी कुताव पहिे हुए थे। आकर पांलांग

पर बैठ गए और सेिती से बोले-क्या वसतो। एक सप्ताह से

वचठी िही ां भेजी ?

सेिती-मैिें सोचा, अब तो आ रहें हो, क्योां वचठी भेजू ? यह

कहकर िहाां से हट गयी।

चन्द्रा िे घूघांट उठाकर कहा-िह जाकर भूल जाते हो

?

राधाचरण-(हृदय से लगाकर) तभी तो सैकां डोां कोस से

चला आ रहा ूंूँ।

51

9

ईर्ष्ाा

प्रतापचन्द्र िे विरजि के घर आिा-जािा वििाह के

कुछ वदि पूिव से ही त्याग वदया था। िह वििाह के वकसी भी

कायव में सन्दम्मवलत िही ां हुआ। यह तक वक महविल में भी

ि गया। मवलि मि वकये, मुहॅ लटकाये, अपिे घर बैठा

रहा, मुांशी सांजीििलाला, सुशीला, सुिामा सब वबिती

करके हार गये, पर उसिे बारात की ओर दृवि ि िेरी।

अांत में मुांशीजी का मि टूट गया और विर कुछ ि बोले।

यह दशा वििाह के होिे तक थी। वििाह के पश्चात तो उसिे

इधर का मागव ही त्याग वदया। सू्कल जाता तो इस प्रकार

एक ओर से विकल जाता, मािोां आगे कोई बाघ बैठा हुआ

है, या जैसे महाजि से कोई ऋणी मिुष्य ऑख बचाकर

विकल जाता है। विरजि की तो परछाई से भागता। यवद

कभी उसे अपिे घर में देख पाता तो भीतर पग ि देता।

माता समिाती-बेटा। विरजि से बोलते-चालत क्योां िही ां ?

क्योां उससे यसमि मोटा वकये हुए हो ? िह आ-आकर

घण्ोां रोती है वक मैिे क्या वकया है वजससे िह रूि हो गया

है। देखोां, तुम और िह वकतिे वदिोां तक एक सांग रहे हो।

तुम उसे वकतिा प्यार करते थे। अकस्मात् तुमको क्या हो

गया? यवद तुम ऐसे ही रूठे रहोगे तो बेचारी लड़की की

जाि पर बि जायेगी। सूखकर क टा हो गया है। ईश्वर ही

जािता है, मुिे उसे देखकर करूणा उत्पन्न होती है।

तुम्हारी चवचा के अवतररक्त उसे कोई बात ही िही ां भाती।

प्रताप ऑखें िीची वकये हुए सब सुिता और चुपचाप

सरक जाता। प्रताप अब भोला बालक िही ां था। उसके

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जीििरूपी िृक्ष में यौििरूपी कोपलें िूट रही थी। उसिे

बहुत वदिोां से-उसी समय से जब से उसिे होश सांभाला-

विरजि के जीिि को अपिे जीिि में शवकरा क्षीर की भ वत

वमला वलया था। उि मिोहर और सुहाििे स्वप्नोां का इस

कठोरता और विदवयता से धूल में वमलाया जािा उसके

कोमल हृदय को विदीणव करिे के वलए कािी था, िह जो

अपिे विचारोां में विरजि को अपिा सिवस्व समिता था,

कही ां का ि रहा, और अपिे विचारोां में विरजि को अपिा

सिवस्व समिता था, कही ां का ि रहा, और िह, वजसिे

विरजि को एक पल के वलए भी अपिे ध्याि में स्थाि ि

वदया था, उसका सिवस्व हो गया। इस वितवक से उसके

हृदय में व्याकुलता उत्पन्न होती थी और जी चाहता था वक

वजि लोगोां िे मेरी स्वप्नित भाििाओां का िाश वकया है और

मेरे जीिि की आशाओां को वमटटी में वमलाया है, उन्ें मैं

भी जलाउां। सबसे अवधक क्रोध उसे वजस पर आता था िह

बेचारी सुशीला थी।

शिै:-शिै: उसकी यह दशा हो गई वक जब सू्कल से

आता तो कमलाचरण के सम्बन्ध की कोई घटिा अिश्य

िणवि करता। विशेर् कर उस समय जब सुशीला भी बैठी

रहती। उस बेचारी का मि दुखािे में इसे बडा ही आिि

आता। यद्यवप अव्यक्त रीवत से उसका कथि और िाक्य-

गवत ऐसी हृदय-भेवदिी होती थी वक सुशीला के कलेजे में

तीर की भाांवत लगती थी। आज महाशय कमलाचरण वतपाई

के ऊपर खडे़ थे, मस्तक गगि का स्पशव करता था। परनु्त

विलवि इतिे बडे़ वक जब मैंिे उिकी ओर सांकेत वकया तो

खडे़-खडे़ हॅसिे लगे। आज बडा तमाशा हुआ। कमला िे

एक लड़के की घडी उड़ा दी। उसिे मास्टर से वशकायत

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की। उसके समीप िे ही महाशय बैठे हुए थे। मास्टर िे

खोज की तो आप ही िेटें से घडी वमली। विर क्या था ?

बडे मास्टर के यह ररपोटव हुई। िह सुिते ही झ्ल्ल्ला गये

और कोई तीि दजवि बेंतें लगायी ां, सड़ासड़। सारा सू्कल

यह कौतूहल देख रहा था। जब तक बेंतें पड़ा की, महाश्य

वचल्लाया वकये, परनु्त बाहर विकलते ही न्दखलन्दखलािें लगे

और मूांछोां पर ताि देिे लगे। चाची। िही ां सुिा ? आज

लडको िे ठीक सकूल के िाटक पर कमलाचरण को

पीटा। मारते-मारते बेसुध कर वदया। सुशीला ये बातें सुिती

और सुि-सुसिकर कुढती। ह । प्रताप ऐसी कोई बात

विरजि के सामिे ि करता। यसवद िह घर में बैठी भी होती

तो जब तक चली ि जाती, यह चचाव ि छेडता। िह चाहता

था वक मेरी बात से इसे कुछ दुख: ि हो।

समय-समय पर मुांशी सांजीििलाल िे भी कई बार

प्रताप की कथाओां की पुवि की। कभी कमला हाट में

बुलबुल लड़ाते वमल जाता, कभी गुण्डोां के सांग वसगरेट

पीते, पाि चबाते, बेढां गेपि से घूमता हुआ वदखायी देता।

मुांशीजी जब जामाता की यह दशा देखते तो घर आते ही

स्त्री पर क्रोध विकालते- यह सब तुम्हारी ही करतूत है।

तुम्ही िे कहा था घर-िर दोिोां अचे्छ हैं, तुम्ही ां रीिी हुई थी ां।

उन्ें उस क्षण यह विचार ि होता वक जो दोर्ारोपण सुशील

पर है, कम-से-कम मुि पर ही उतिा ही है। िह बेचारी तो

घर में बि रहती थी, उसे क्या ज्ञात था वक लडका कैसा है।

िह सामुवद्रक विद्या थोड ही पढी थी ? उसके माता-वपता

को सभ्य देखा, उिकी कुलीिता और िैभि पर सहमत हो

गयी। पर मुांशीजी िे तो अकमवण्यता और आलस्य के

कारण छाि-बीि ि की, यद्यवप उन्ें इसके अिेक अिसर

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प्राप्त थे, और आलस्य के कारण छाि-बीि ि की, यद्यवप

उन्ें इसके अिेक अिसर प्राप्त थे, और मुांशीजी के

अगवणत बान्धि इसी भारतिर्व में अब भी विद्यमाि है जो

अपिी प्यारी कन्याओां को इसी प्रकार िेि बि करकेक

कुए में ढकेल वदया करते हैं।

सुशीला के वलए विरजि से वप्रय जगत में अन्य िसु्त ि

थी। विरजि उसका प्राण थी, विरजि उसका धमव थी और

विरजि ही उसका सत्य थी। िही उसकी प्राणाधार थी, िही

उसके ियिोां को ज्ोवत और हृदय का उत्साह थी, उसकी

सिौच् साांसाररक अवभलार्ा यह थी वक मेरी प्यारी विरजि

अचे्छ घर जाय। उसके सास-ससुर, देिी-देिता होां। उसके

पवत वशिता की मूवतव और श्रीरामचांद्र की भाांवत सुशील हो।

उस पर कि की छाया भी ि पडे। उसिे मर-मरकर बड़ी

वमन्नतोां से यह पुिी पायी थी और उसकी इच्छा थी वक इि

रसीले ियिोां िाली, अपिी भोली-भाली बाला को अपिे

मरण-पयवन्त आांखोां से अदृश्य ि होिे दूांगी। अपिे जामाता

को भी यही बुलाकर अपिे घर रखूांगी। जामाता मुिे माता

कहेगा, मैं उसे लडका समिगूी। वजस हृदय में ऐसे मिोरथ

होां, उस पर ऐसी दारूण और हृदयविदारणी बातोां का जो

कुछ प्रभाि पडे़गा, प्रकट है।

हाां। हन्त। दीिा सुशीला के सारे मिोरथ वमट्टी में वमल

गये। उसकी सारी आशाओां पर ओस पड़ गयी। क्या

सोचती थी और क्या हो गया। अपिे मि को बार-बार

समिाती वक अभी क्या है, जब कमला सयािा हो जाएगी

तो सब बुराइयाां स्वयां त्याग देिा। पर एक वििा का घाि

भरिे िही ां पाता था वक विर कोई ििीि घटिा सूििे में आ

जाती। इसी प्रकार आघात-पर-आघात पडते गये। हाय।

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िही ां मालूम विरजि के भाग्य में क्या बदा है ? क्या यह गुि

की मूवतव, मेरे घर की दीन्दप्त, मेरे शरीर का प्राण इसी दुषृ्कत

मिुष्य के सांग जीिि व्यतीत करेगी ? क्या मेरी श्यामा इसी

वगद्व के पाले पडेगी ? यह सोचकर सुशीला रोिे लगती और

घांटोां रोती रहती है। पवहले विरजि को कभी-कभी डाांट-

डपट भी वदया करती थी, अब भूलकर भी कोई बात ि

कहती। उसका मांह देखते ही उसे याद आ जाती। एक क्षण

के वलए भा उसे सामिे से अदृश्य ि होिे देगी। यवद जरा

देर के वलए िह सुिामा के घर चली जाती, तो स्वयां पहुांच

यजाती। उसे ऐसा प्रतीत होता मािोां कोई उसे छीिकर ले

भागता है। वजस प्रकार िावधक की छुरी के तले अपिे

बछडे़ को देखकर गाय का रोम-रोम काांपिे लगता है, उसी

प्रकार विरजि के दुख का ध्याि करके सुशीला की आांखोां

में सांसार सूिा जािा पडता था। इि वदिोां विरजि को पल-

भर के वलए िेिोां से दूर करते उसे िह कि और व्याकुलता

होती,जो वचवडया को घोांसले से बचे् के खो जािे पर होती

है।

सुशीला एक तो यो ही जीणव रोवगणी थी। उस पर

भािन्दष्य की असाध्य वचन्ता और जलि िे उसे और भी

धुला डाला। वििाओां िे कलेजा चली कर वदया। छ: मास

भी बीतिे ि पाये थे वक क्षयरोग के वचहृि वदखायी वदए।

प्रथम तो कुछ वदिोां तक साहस करके अपिे दु:ख को

वछपाती रही, परनु्त कब तक ? रोग बढिे लगा और िह

शन्दक्तहीि हो गयी। चारपाई से उठिा कवठि हो गया। िैद्य

और डाक्टर और्वघ करिे लगे। विरयजि और सुिामा

दोिोां रात-वदि उसके पाांस बैठी रहती। विरजि एक पल के

वलए उसकी दृवि से ओिल ि होती। उसे अपिे विकट ि

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देखकर सुशीला बेसुध-सी हो जाती और िूट-िूटकर रोिे

लगती। मुांशी सांजीििलाल पवहले तो धैयव के साथ दिा

करते रहे, पर जब देखा वक वकसी उपाय से कुछ लाभ िही ां

होता और बीमारी की दशा वदि-वदि विकृि होती जाती है

तो अांत में उन्ोांिे भी विराश हो उद्योग और साहस कम

कर वदया। आज से कई साल पहले जब सुिामा बीमार

पडी थी तब सुशीला िे उसकी सेिा-शुशू्रर्ा में पूणव पररश्रम

वकया था, अब सुिामा बीमार पडी थी तब सुशीला िे

उसकी सेिा-सुशू्रर्ा में पूणव पररश्रम वकया था,अब सुिामा

की बारी आयी। उसिे पडोसी और भवगिी के धमव का

पालि भली-भाांवत वकया। रूगण-सेिा में अपिे गृहकायव को

भूल-सी गई। दो-दोां तीि-तीि वदि तक प्रताप से बोलिे की

िौबत ि आयी। बहुधा िह वबिा भोजि वकये ही सू्कल चला

जाता। परनु्त कभी कोई अवप्रय शब् मुख से ि विकालता।

सुशीला की रूग्णािस्थ िे अब उसकी दे्वर्ारावगि को बहुत

कम कर वदया था। दे्वर् की अवग्न दे्विा की उन्नवत और

दुदवशा के साथ-साथ तीव्र और प्रििवलत हो जाती है और

उसी समय शान्त होती है जब दे्विा के जीिि का दीपक

बुि जाता है।

वजस वदि िृजरािी को ज्ञात हो जाता वक आज प्रताप

वबिा भोजि वकये सू्कल जा रहा है, उस वदि िह काम

छोड़कर उसके घर दौड़ जाती और भोजि करिे के वलए

आग्रह करती, पर प्रताप उससे बात ि करता, उसे रोता

छोड बाहर चला जाता। विस्सांसदेह िह विरजि को

पूणवत:विदोर् समिता था, परनु्त एक ऐसे सांबध को, जो िर्व

छ: मास में टूट जािे िाला हो, िह पहले ही से तोड़ देिा

चाहता था। एकान्त में बैठकर िह आप-ही-आप िूट-

57

िूटकर रोता, परनु्त पे्रम के उदे्वग को अवधकार से बाहर ि

होिे देता।

एक वदि िह सू्कल से आकर अपिे कमरे में बैठा

हुआ था वक विरजि आयी। उसके कपोल अशु्र से भीगे हुए

थे और िह लांबी-लांबी वससवकयाां ले रही थी। उसके मुख

पर इस समय कुछ ऐसी विराशा छाई हुई थी और उसकी

दृवि कुछ ऐसी करूणोांत्पादक थी वक प्रताप से ि रहा गया।

सजल ियि होकर बोला-‘क्योां विरजि। रो क्योां रही हो ?

विरजि िे कुछ उतर ि वदया, िरि और वबलख-वबलखकर

रोिे लगी। प्रताप का गाम्भीयव जाता रहा। िह विस्सांकोच

होकर उठा और विरजि की आांखोां से आांसू पोांछिे लगा।

विरजि िे स्वर सांभालकर कहा-ललू्ल अब माताजी ि

जीयेंगी, मैं क्या करूां ? यह कहते-कहते विर वससवकयाां

उभरिे लगी।

प्रताप यह समाचार सुिकर स्तब्ध हो गया। दौड़ा हुआ

विरजि के घर गया और सुशीला की चारपाई के समीप

खड़ा होकर रोिे लगा। हमारा अन्त समय कैसा धन्य होता

है। िह हमारे पास ऐसे-ऐसे अवहतकाररयोां को खी ांच लाता

है, जो कुछ वदि पूिव हमारा मुख िही ां देखिा चाहते थे, और

वजन्ें इस शन्दक्त के अवतररकत सांसार की कोई अन्य शन्दक्त

परावजत ि कर सकती थी। हाां यह समय ऐसा ही बलिाि

है और बडे-बडे बलिाि शिुओां को हमारे अधीि कर देता

है। वजि पर हम कभी विजय ि प्राप्त कर सकते थे, उि पर

हमको यह समय विजयी बिा देता है। वजि पर हम वकसी

शिु से अवधकार ि पा सकते थे उि पर समय और शरीर

के न्दतक्तहीि हो जािे पर भी हमको विजयी बिा देता है।

आज पूरे िर्व भर पश्चात प्रताप िे इस घर में पदावपण वकया।

58

सुशीला की आांखें बि थी, पर मुखमण्डल ऐसा विकवसत

था, जैसे प्रभातकाल का कमल। आज भोर ही से िह रट

लगाये हुए थी वक ललू्ल को वदखा दो। सुिामा िे इसीवलए

विरजि को भेजा था।

सुिामा िे कहा-बवहि। आांखें खोलोां। ललू्ल खड़ा है।

सुशीला िे आांखें खोल दी ां और दोिोां हाथ पे्रम-बाहुल्य

से िैला वदये। प्रताप के हृदय से विरोध का अन्दन्तम वचहृि

भी विलीि हो गया। यवद ऐसे काल में भी कोई मत्सर का

मैल रहिे दे, तो िह मिुष्य कहलािे का हकदार िही ां है।

प्रताप सचे् पुित्व-भाि से आगे बढ़ा और सुशीला के

पे्रमाांक में जा वलपटा। दोिोां आधे घांणे् तक रोते रहे।

सुशीला उसे अपिे दोिोां बाांहोां में इस प्रकार दबाये हुए थी

मािोां िह कही ां भागा जा रहा है। िह इस समय अपिे को

सैंकडोां वघक्कार दे रहा था वक मैं ही इस दुन्दखया का

प्राणहारी ूंां। मैिे ही दे्वर्-दुरािेग के िशीभूत होकर इसे

इस गवत को पहुांचाया है। मैं ही इस पे्रम की मूवतव का

िाशक ूंां। ज्ोां-ज्ोां यह भाििा उसके मि में उठती,

उसकी आांखोां से आांसू बहते। विदाि सुशीला बोली-ललू्ल।

अब मैं दो-एक वदि की ओर मेहमाि ूंां। मेरा जो कुछ

कहा-सुिा हो, क्षमा करो।

प्रताप का स्वर उसके िश में ि था, इसवलए उसिे

कुछ उतर ि वदया।

सुशीला विर बोली-ि जािे क्योां तुम मुिसे रूि हो।

तुम हमारे घर िही आते। हमसे बोलते िही ां। जी तुम्हें प्यार

करिे को तरस-तरसकर रह जाता है। पर तुम मेरी तविक

भी सुवध िही ां लेते। बताओां, अपिी दुन्दखया चाची से क्योां

रूि हो ? ईश्वर जािता है, मैं तुमको सदा अपिा लड़का

59

समिती रही। तुम्हें देखकर मेरी छाती िूल उठती थी। यह

कहते-कहते विबवलता के कारण उसकी बोली धीमी हो

गयी, जैसे वक्षवतज के अथाह विस्तार में उड़िेिाले पक्षी की

बोली प्रवतक्षण मध्यम होती जाती है-यहाां तक वक उसके

शब् का ध्यािमाि शेर् रह जाता है। इसी प्रकार सुशीला

की बोली धीमी होते-होते केिल साांय-साांय रह गयी।

60

10

िुिीला की मृतु्य

तीि वदि और बीते, सुशीला के जीिे की अब कोई

सांभाििा ि रही। तीिोां वदि मुांशी सांजीििलाल उसके पास

बैठे उसको सान्घ्त्विा देते रहे। िह तविक देर के वलए भी

िहाां से वकसी काम के वलए चले जाते, तो िह व्याकुल होिे

लगती और रो-रोकर कहिे लगती-मुिे छोड़कर कही ां चले

गये। उिको िेिोां के समु्मख देखकर भी उसे सांतोर् ि

होता। रह-रहकर उतािलेपि से उिका हाथ पकड़ लेती

और विराश भाि से कहती-मुिे छोड़कर कही ां चले तो िही ां

जाओगे ? मुांशीजी यद्यवप बडे़ दृढ-वचत मिुष्य थे, तथावप

ऐसी बातें सुिकयर आद्रविेि हो जाते। थोडी-थोडी देर में

सुशीला को मूछाव-सी आ जाती। विर चौांकती तो इधर-

उधर भौांजक्की-सी देखिे लगती। िे कहाां गये? क्या

छोड़कर चले गयें ? वकसी-वकसी बार मूछाव का इतिा

प्रकोप होता वक मुन्घ्शीजी बार-बार कहते-मैं यही

ूंां,घबराओां िही ां। पर उसे विश्वास ि आता। उन्ी ां की ओर

ताकती और पूछती वक –कहाां है ? यहाां तो िही ां है। कहाां

चले गये ? थोडी देर में जब चेत हो जाता तो चुप रह जाती

और रोिे लगती। तीिोां वदि उसिे विरजि, सुिामा, प्रताप

एक की भी सुवध ि की। िे सब-के-सब हर घडी उसी के

पास खडे रहते, पर ऐसा जाि पडता था, मािोां िह मुशी ांजी

के अवतररक्त और वकसी को पहचािती ही िही ां है। जब

विरजि बैचैि हो जाती और गले में हाथ डालकर रोिे

लगती, तो िह तविक आांख खोल देती और पूछती-‘कौि है,

विरजि ? बस और कुछ ि पूछती। जैसे, सूम के हृदय में

61

मरते समय अपिे गडे हुए धि के वसिाय और वकसी बात

का ध्याि िही ां रहयता उसी प्रकार वहिू-सिी अन्त समय में

पवत के अवतररक्त और वकसी का ध्याि िही ां कर सकती।

कभी-कभी सुशीला चौांक पड़ती और विन्दस्मत होकर

पूछती-‘अरे। यह कौि खडा है ? यह कौि भागा जा रहा है

? उन्ें क्योां ले जाते है ? िा मैं ि जािे दूांगी। यह कहकर

मुांशीजी के दोिोां हाथ पकड़ लेती। एक पल में जब होश आ

जाता, तो लवजजत होकर कहती....’मैं सपिा देख रही थी,

जैसे कोई तुम्हें वलये जा रहा था। देखो, तुम्हें हमारी सौहां है,

कही ां जािा िही ां। ि जािे कहाां ले जायेगा, विर तुम्हें कैसे

देखूांगी ? मुन्घ्शीजी का कलेजा मसोसिे लगता। उसकी ओर

पवत करूणा-भरी से्नह-दृवि डालकर बोलते-‘िही ां, मैं ि

जाउांगा। तुम्हें छोड़कर कहाां जाउांगा ? सुिामा उसकी दशा

देखती और रोती वक अब यह दीपक बुिा ही चाहता है।

अिस्था िे उसकी लिा दूर कर दी थी। मुन्घ्शीजी के

समु्मख घांटोां मुांह खोले खड़ी रहती।

चौथे वदि सुशीला की दशा सांभल गयी। मुन्घ्शीजी को

विश्वास हो गया, बस यह अन्दन्तम समय है। दीपक बुििे के

पहले भभक उठता है। प्रात:काल जब मुांह धोकर िे घर में

आये, तो सुशीला िे सांकेत द्वारा उन्ें अपिे पास बुलाया

और कहा-‘मुिे अपिे हाथ से थोड़ा-सा पािी वपला दो’’।

आज िह सचेत थी। उसिे विरजि, प्रताप, सुिामा सबको

भली-भाांवत पवहचािा। िह विरजि को बड़ी देर तक छाती

से लगाये रोती रही। जब पािी पी चुकी तो सुिामा से बोली-

‘बवहि। तविक हमको उठाकर वबठा दो, स्वामी जी के

चरण छूां लूां। विर ि जािे कब इि चरणोां के दशवि होांगे।

सुिामा िे रोते हुए अपिे हाथोां से सहारा देकर उसे तविक

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उठा वदया। प्रताप और विरजि सामिे खडे़ थे। सुशीला िे

मुन्घ्शीजी से कहा-‘मेरे समीप आ जाओ’। मुन्घ्शीजी पे्रम और

करूणा से विहृल होकर उसके गले से वलपट गये और

गदगद स्वर में बोले-‘घबराओ िही ां, ईश्वर चाहेगा तो तुम

अच्छी हो जाओगी’। सुशीला िे विराश भाि से कहा-‘ह ’

आज अच्छी हो जाउांगी। जरा अपिा पैर बढ़ा दो। मैं माथे

लगा लूां। मुन्घ्शीजी वहचवकचाते रहे। सुिामा रोते हुए बोली-

‘पैर बढ़ा दीवजए, इिकी इच्छा पूरी हो जाये। तब मुांशीजी िे

चरण बढा वदये। सुशीला िे उन्ें दोिोां हाथोां में पकड कर

कई बार चूमा। विर उि पर हाथ रखकर रोिे लगी। थोडे़

ही देर में दोिोां चरण उष्ण जल-कणोां से भीग गये। पवतव्रता

स्त्री िे पे्रम के मोती पवत के चरणोां पर विछोिर कर वदये।

जब आिाज सांभली तो उसिे विरजि का एक हाथ थाम

कर मुन्घ्शीजी के हाथ में वदया और अवत मि स्वर में कहा-

स्वामीजी। आपके सांग बहुत वदि रही और जीिि का परम

सुख भोगा। अब पे्रम का िाता टूटता है। अब मैं पल-भर

की और अवतवथ ूंां। प्यारी विरजि को तुम्हें सौांप जाती ूंां।

मेरा यही वचहृि है। इस पर सदा दया-दृवि रखिा। मेरे

भाग्य में प्यारी पुिी का सुख देखिा िही ां बदा था। इसे मैिे

कभी कोई कटु िचि िही ां कहा, कभी कठोर दृवि से िही ां

देखा। यह मरे जीिि का िल है। ईश्वर के वलए तुम इसकी

ओर से बेसुध ि हो जािा। यह कहते-कहते वहचवकयाां बांध

गयी ां और मूछाव-सी आ गयी।

जब कुछ अिकाश हआ तो उसिे सुिामा के समु्मख

हाथ जोडे़ और रोकर कहा- ‘बवहि’। विरजि तुम्हारे

समपवण है। तुम्ही ां उसकी मता हो। ललू्ल। प्यारे। ईश्वर करे

तुम जुग-जुग जीओ। अपिी विरजि को भूलिा मत। यह

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तुम्हारी दीिा और मातृहीिा बवहि है। तुममें उसके प्राण

बसते है। उसे रूलािा मत, उसे कुढािा मत, उसे कभी

कठोर िचि मत कहिा। उससे कभी ि रूठिा। उसकी

ओर से बेसुध ि होिा, िही ां तो िह रो-रो कर प्राण दे देगी।

उसके भाग्य में ि जािे क्या बदा है, पर तुम उसे अपिी

सगी बवहि समिकर सदा ढाढस देते रहिा। मैं थोड़ी देर

में तुम लोगोां को छोडकर चली जाऊां गी, पर तुम्हें मेरी सोह,

उसकी ओर से मि मोटा ि करिा तुम्ही ां उसका बेड़ा पार

लगाओगे। मेरे मि में बड़ी-बड़ी अवभलार्ाएां थी ां, मेरी

लालसा थी वक तुम्हारा ब्याह करूां गी, तुम्हारे बचे् को

न्दखलाउांगी। पर भाग्य में कुछ और ही बदा था।

यह कहते-कहते िह विर अचेत हो गयी। सारा घर रो

रहा था। महररयाां, महरावजिें सब उसकी प्रशांसा कर रही

थी वक स्त्री िही ां, देिी थी।

रवधया-इतिे वदि टहल करते हुए, पर कभी कठोर

िचि ि कहा।

महरावजि-हमको बेटी की भाांवत मािती थी ां। भोजि

कैसा ही बिा दूां पर कभी िाराज िही ां हुई। जब बातें करती ां,

मुस्करा के। महराज जब आते तो उन्ें जरूर सीधा

वदलिाती थी।

सब इसी प्रकार की बातें कर रहे थे। दोपहर का समय

हुआ। महरावजि िे भोजि बिाया, परनु्त खाता कौि ?

बहुत हठ करिे पर मुांशीजी गये और िाम करके चले

आये। प्रताप चौके पर गया भी िही ां। विरजि और सुिामा

को गले लगाती, कभी प्रताप को चूमती और कभी अपिी

बीती कह-कहकर रोती। तीसरे पहर उसिे सब िौकरोां को

बुलाया और उिसे अपराध क्षमा कराया। जब िे सब चले

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गये तब सुशीला िे सुिामा से कहा- बवहि प्यास बहुत

लगती है। उिसे कह दो अपिे हाथ से थोड़ा-सा पािी वपला

दें। मुांशीजी पािी लाये। सुशीला िे कवठिता से एक घूांट

पािी कण्ठ से िीचे उतारा और ऐसा प्रतीत हुआ, मािो

वकसी िे उसे अमृत वपला वदया हो। उसका मुख उििल

हो गया आांखोां में जल भर आया। पवत के गले में हाथ

डालकर बोली—मै ऐसी भाग्यशावलिी ूंां वक तुम्हारी गोद में

मरती ूंां। यह कहकर िह चुप हो गयी, मािोां कोई बात

कहिा ही चाहती है, पर सांकोच से िही ां कहती। थोडी देर

पश्चात् उसिे विर मुांशीजी का हाथ पकड़ वलया और कहा-

‘यवद तुमसे कुछ माांगू,तो दोगे ?

मुांशीजी िे विन्दस्मत होकर कहा-तुम्हारे वलए माांगिे की

आिश्यकता है? वि:सांकोच कहो।

सुशीला-तुम मेरी बात कभी िही ां टालते थे।

मुन्घ्शीजी-मरते दम तक कभी ि टालूांगा।

सुशीला-डर लगता है, कही ां ि मािो तो...

मुन्घ्शीजी-तुम्हारी बात और मैं ि मािूां ?

सुशीला-मैं तुमको ि छोडूांगी। एक बात बतला दो-

वसल्ली(सुशीला)मर

जायेगी, तो उसे भूल जाओगे ?

मुन्घ्शीजी-ऐसी बात ि कहो, देखो विरजि रोती है।

सुशीला-बतलाओां, मुिे भूलोगे तो िही ां ?

मुन्घ्शीजी-कभी िही ां।

सुशीला िे अपिे सूखे कपोल मुशी ांजी के अधरोां पर

रख वदये और दोिोां बाांहें उिके गले में डाल दी ां। विर

विरजि को विकट बुलाकर धीरे-धीरे समिािे लगी-देखो

बेटी। लालाजी का कहिा हर घडी माििा, उिकी सेिा मि

65

लगाकर करिा। गृह का सारा भर अब तुम्हारे ही माथे है।

अब तुम्हें कौि सभाांलेगा ? यह कह कर उसिे स्वामी की

ओर करूणापूणव िेिोां से देखा और कहा- मैं अपिे मि की

बात िही ां कहिे पायी, जी डूबा जाता है।

मुन्घ्शीजी-तुम व्यथव असमांजस में पडी हो।

सुशीला-तुम मरे हो वक िही ां ?

मुन्घ्शीजी-तुम्हारा और आमरण तुम्हारा।

सुशीला- ऐसा ि हो वक तुम मुिे भूल जाओां और जो

िसु्त मेरी थी िह अन्य के हाथ में चली जाए।

सुशीला िे विरजि को विर बुलाया और उसे िह

छाती से लगािा ही चाहती थी वक मूवछव त हो गई। विरजि

और प्रताप रोिे लगे। मुांशीजी िे काांपते हुए सुशीला के

हृदय पर हाथ रखा। साांस धीरे-धीरे चल रही थी। महरावजि

को बुलाकर कहा-अब इन्ें भूवम पर वलटा दो। यह कह

कर रोिे लगे। महरावजि और सुिामा िे वमलकर सुशीला

को पृथ्वी पर वलटा वदया। तपेवदक िे हवडडयाां तक सुखा

डाली थी।

अांधेरा हो चला था। सारे गृह में शोकमय और भयािह

सन्नाटा छाया हुआ था। रोिेिाले रोते थे, पर कण्ठ बाांध-

बाांधकर। बातें होती थी, पर दबे स्वरोां से। सुशीला भूवम पर

पडी हुई थी। िह सुकुमार अांग जो कभी माता के अांग में

पला, कभी पे्रमाांक में प्रौढा, कभी िूलोां की सेज पर सोया,

इस समय भूवम पर पडा हुआ था। अभी तक िाडी मि-

मि गवत से चल रही थी। मुांशीजी शोक और विराशािद में

मग्न उसके वसर की ओर बैठे हुए थे। अकस्समात् उसिे

वसर उठाया और दोिोां हाथोां से मुांशीजी का चरण पकड़

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वलया। प्राण उड़ गये। दोिोां कर उिके चरण का मण्डल

बाांधे ही रहे। यह उसके जीिि की अांवतम वक्रया थी।

रोिेिालो, रोओ। क्योांवक तुम रोिे के अवतररक्त कर ही

क्या सकते हो? तुम्हें इस समय कोई वकतिी ही सान्घ्त्विा दे,

पर तुम्हारे िेि अशु्र-प्रिाह को ि रोक सकें गे। रोिा तुम्हारा

कतवव्य है। जीिि में रोिे के अिसर कदावचत वमलते हैं।

क्या इस समय तुम्हारे िेि शुष्क हो जायेगें ? आांसुओां के

तार बांधे हुए थे, वससवकयोां के शब् आ रहे थे वक महरावजि

दीपक जलाकर घर में लायी। थोडी देर पवहले सुशीला के

जीिि का दीपक बुि चुका था।

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सवरजन की सवदा

राधाचरण रूड़की कालेज से विकलते ही मुरादाबाद

के इांजीवियर वियुक्त हुए और चन्द्रा उिके सांग मुरादाबाद

को चली। पे्रमिती िे बहुत रोकिा चाहा, पर जािेिाले को

कौि रोक सकता है। सेिती कब की ससुराल आ चुकी थी।

यहाां घर में अकेली पे्रमिती रह गई। उसके वसर घर का

काम-काज पडा। विदाि यह राय हुई वक विरजि के गौिे

का सांदेशा भेजा जाए। वडप्टी साहब सहमत ि थे, परनु्त घर

के कामोां में पे्रमिती ही की बात चलती थी।

सांजीििलाल िे सांदेशा स्वीकार कर वलया। कुछ वदिोां

से िे तीथवयािा का विचार कर रहे थे। उन्ोांिे क्रम-क्रम से

साांसाररक सांबांध त्याग कर वदये थे। वदि-भर घर में आसि

मारे भगिदगीता और योगिावशि आवद ज्ञाि-सांबन्दन्धिी

पुस्तकोां का अध्ययि वकया करते थे। सांध्या होते ही गांगा-

स्नाि को चले जाते थे। िहाां से रावि गये लौटते और थोड़ा-

सा भोजि करके सो जाते। प्राय: प्रतापचन्द्र भी उिके सांग

गांगा-स्नाि को जाता। यद्यवप उसकी आयु सोलह िर्व की भी

ि थी, पर कुछ तो यविज स्वभाि, कुछ पैतृक सांस्कार और

कुछ सांगवत के प्रभाि से उसे अभी से िैज्ञाविक विर्योां पर

मिि और विचार करिे में बडा आिि प्राप्त होता था।

ज्ञाि तथा ईश्वर सांबन्दन्धिी बातें सुिते-सुिते उसकी प्रिृवत

भी भन्दक्त की ओर चली थी, और वकसी-वकसी समय

मुन्घ्शीजी से ऐसे सूक्ष्म विर्योां पर वििाद करता वक िे

विन्दस्मत हो जाते। िृजरािी पर सुिामा की वशक्षा का उससे

भी गहरा प्रभाि पड़ा था वजतिा वक प्रतापचन्द्र पर मुन्घ्शीजी

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की सांगवत और वशक्षा का। उसका पन्द्रहिा िर्व था। इस

आयु में ियी उमांगें तरां वगत होती है और वचतिि में सरलता

चांचलता की तरह मिोहर रसीलापि बरसिे लगता है।

परनु्त िृजरािी अभी िही भोली-भाली बावलका थी। उसके

मुख पर हृदय के पविि भाि िलकते थे और िातावलाप में

मिोहाररणी मधुरता उत्पन्न हो गयी थी। प्रात:काल उठती

और सबसे प्रथम मुन्घ्शीजी का कमरा साि करके, उिके

पूजा-पाठ की सामग्री यथोवचत रीवत से रख देती। विर

रसोई घर के धने्ध में लग जाती। दोपहर का समय उसके

वलखिे-पढिे का था। सुिामा पर उसका वजतिा पे्रम और

वजतिी श्रद्वा थी, उतिी अपिी माता पर भी ि रही होगी।

उसकी इच्छा विरजि के वलए आज्ञा से कम ि थी।

सुिामा की तो सम्मवत थी वक अभी विदाई ि की जाए।

पर मुन्घ्शीजी के हठ से विदाई की तैयाररयाां होिे लगी ां। ज्ोां-

ज्ोां िह विपवत की घडी विकट आती, विरजि की

व्याकुलता बढ़ती जाती थी। रात-वदि रोया करती। कभी

वपता के चरणोां में पड़ती और कभी सुिामा के पदोां में

वलपट जाती। पार वििावहता कन्या पराये घर की हो जाती

है, उस पर वकसी का क्या अवधकार।

प्रतापचन्द्र और विरजि वकतिे ही वदिोां तक भाई-

बहि की भाांवत एक साथ रहें। पर जब विरजि की आांखे

उसे देखते ही िीचे को िुक जाती थी ां। प्रताप की भी यही

दशा थी। घर में बहुत कम आता था। आिश्यकतािश

आया, तो इस प्रकार दृवि िीचे वकए हुए और वसमटे हुए,

मािोां दुलवहि है। उसकी दृवि में िह पे्रम-रहस्य वछपा हुआ

था, वजसे िह वकसी मिुष्य-यहाां तक वक विरजि पर भी

प्रकट िही ां करिा चाहता था।

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एक वदि सन्ध्या का समय था। विदाई को केिल तीि

वदि रह गये थे। प्रताप वकसी काम से भीतर गया और

अपिे घर में लैम्प जलािे लगा वक विरजि आयी। उसका

अांचल आांसुओां से भीगा हुआ था। उसिे आज दो िर्व के

अिन्तर प्रताप की ओर सजल-िेि से देखा और कहा-

ललू्ल। मुिसे कैसे सहा जाएगा ?

प्रताप के िेिोां में आांसू ि आये। उसका स्वर भारी ि

हुआ। उसिे सुदृढ भाि से कहा-ईश्वर तुम्हें धैयव धारण करिे

की शन्दक्त देंगे।

विरजि का वसर िुक गया। आांखें पृथ्वी में पड़ गयी ां

और एक वससकी िे हृदय-िेदिा की यह अगाध कथा

िणवि की, वजसका होिा िाणी द्वारा असांभि था।

विदाई का वदि लडवकयोां के वलए वकतिा शोकमय

होता है। बचपि की सब सन्दखयोां-सहेवलयोां, माता-वपता,

भाई-बनु्ध से िाता टूट जाता है। यह विचार वक मैं विर भी

इस घर में आ सकूां गी, उसे तविक भी सांतोर् िही ां देता।

क्योां अब िह आयेगी तो अवतवथभाि से आयेगी। उि लोगोां

से विलग होिा, वजिके साथ जीििोद्याि में खेलिा और

स्वातांद्िय-िावटका में भ्रमण करिा उपलब्ध हुआ हो,

उसके हृदय को विदीणव कर देता है। आज से उसके वसर

पर ऐसा भार पडता है, जो आमरण उठािा पडेगा।

विरजि का शृ्रगाांर वकया जा रहा था। िाइि उसके

हाथोां ि पैरोां में मेंहदी रचा रही थी। कोई उसके बाल गूांथ

रही थी। कोई जुडे में सुगन्ध बसा रही थी। पर वजसके वलये

ये तैयाररयाां हो रही थी, िह भूवम पर मोती के दािे वबखेर

रही थी। इतिे में बारह से सांदेशा आया वक मुूंवत टला

जाता है, जल्दी करोां। सुिामा पास खडी थी। विरजि,

70

उसके गले वलपट गयी और अशु्र-प्रिाह का आांतक, जो

अब तक दबी हुई अवगि की िाई सुलग रहा था, अकस्मात्

ऐसा भडक उठा मािोां वकसी िे आग में तेल डाल वदया है।

थोडी देर में पालकी द्वार पर आयी। विरजि पडोस की

वसत्र्ोां से गले वमली। सुिामा के चरण छुए, तब दो-तीि

वसवियोां िे उसे पालकी के भीतर वबठा वदया। उधर पालकी

उठी, इधर सुिामा मून्दच्छव त हो भूवम पर वगर पडी, मािोां

उसके जीते ही कोई उसका प्राण विकालकर वलये जाता

था। घर सूिा हो गया। सैकां डोां वसियाां का जमघट था, परनु्त

एक विरजि के वबिा घर िाडे खाता था।

71

12

कमलाचरण के समत्र

जैसे वसिूर की लावलमा से माांग रच जाती है, जैसे ही

विरजि के आिे से पे्रमिती के घर की रौिक बढ गयी।

सुिामा िे उसे ऐसे गुण वसखाये थे वक वजसिे उसे देखा,

मोह गया। यहाां तक वक सेिती की सहेली रािी को भी

पे्रमिती के समु्मख स्वीकार करिा पड़ा वक तुम्हारी छोटी

बूं िे हम सबोां का रांग िीका कर वदया। सेिती उससे

वदि-वदि भर बातें करती और उसका जी ि ऊबता। उसे

अपिे गािे पर अवभमाि था, पर इस के्षि में भी विरजि

बाजी ले गयी।

अब कमलाचरण के वमिो िे आग्रह करिा शुरू वकया

वक भाई, िई दुलवहि घर में लाये हो, कुछ वमिोां की भी

विक्र करोां। सुिते है परम सुिरी पाये हो।

कमलाचरण को रूपये तो ससुराल से वमले ही थे, जेब

खिखिाकर बोले-अजी, दाित लो। शराबें उड़ाओ। ह ,

बहुत शोरगुल ि मचािा, िही ां तो कही ां भीतर खबर होगी तो

समिेगें वक ये गुणे्ड है। जब से िह घर में आयी है, मेरे तो

होश उडे़ हुए है। कहता ूंां, अांगे्रजी, िारसी, सांसृ्कत,

अलम-गलम सभी घोटे बैठी है। डरता ूंां कही ां अांगे्रजी में

कुछ पूछ बैठी, या िारसी में बातें करिे लगे, मुहॅ ताकिे के

वसिाय और क्या करूां गा ? इसवलए अभी जी बचाता

विरता ूंां।

योां तो कमलाचरण के वमिोां की सांख्या अपररवमत थी।

िगर के वजतिे कबूतर-बाज, किकौएबाजा गुणे्ड थे सब

उिके वमि परनु्त सचे् वमिोां में केिल पाांच महाशय थे और

72

सभी-के-सभी िाकेमस्त वछछोरे थे। उिमें सबसे अवधक

वशवक्षत वमया मजीद थे। ये कचहरी में अरायज वकया करते

थे। जो कुछ वमलता, िह सब शराब में भेट करते। दूसरा

िम्बर हमीदांखा का था। इि महाशय िे बहुत पैतृक सांपवत

पायी थी, परनु्त तीि िर्व में सब कुछ विलास में लुटा दी।

अब यह ढांग था वक साांय को सज-धजकर गावलयोां में धूल

ि कते विरते थे। तीसरे हजरत सैयद हुसैि थे-पके्क

जुआरी, िाल के परम भक्त, सैकां डोां के दाांि लगािे िाले,

स्त्री गहिोां पर हाथ म जिा तो वित्य का इिका काम था।

शेर् दो महाशय रामसेिकलालल और चन्दूलाल कचहरी

में िौकर थे। िेति कम, पर ऊपरी आमदिी बहुत थी।

आधी सुरापाि की भेट करते, आधी भोग-विलास में

उडाते। घर में लोग भूखे मरे या वभक्षा म गें, इन्ें केिल

अपिे सुख से काम था।

सलाह तो हो चुकी थी। आठ बजे जब वडप्टी साहब लेटे

तो ये प चोां जिे एकि हुए और शराब के दौर चलिे लगे।

प चोां पीिे में अभ्यस्त थे। अब िशे का रांग जमा,बहक-

बहककर बातें करिे लगे।

मजीद-क्योां भाई कमलाचरण, सच कहिा, स्त्री को

देखकर जी खुश हो गया वक िही ां ?

कमला-अब आप बहकिे लगे क्योां ?

रामसेिक-बतला क्योां िही ां देते, इसमें िेंपिे की कौि-

सी बात है ?

कमला-बतला क्या अपिा वसर दूां , कभी सामिे जािे

का सांयोग भी तो हुआ हो। कल वकिाड़ की दरार से एक

बार देख वलया था, अभी तक वचि ऑखोां पर विर रहा है।

चिूलाल-वमि, तुम बडे़ भाग्यिाि हो।

73

कमला-ऐसा व्याकुल हुआ वक वगरते-वगरते बचा। बस,

परी समि लो।

मजीद-तो भई, यह दोस्ती वकस वदि काम आयेगी।

एक िजर हमें भी वदखाओां।

सैयद-बेशक दोस्ती के यही मािी है वक आपस में

कोई पदाव ि रहे।

चिूलाल-दोस्ती में क्या पदाव ? अांगे्रजो को देखोां,बीबी

डोली से उतरी िही ां वक यार दोस्त हाथ वमलािे लगे।

रामसेिक-मुिे तो वबिा देखे चैि ि आयेगा ?

कमला-(एक धप लगा कर) जीभ काट ली जायेगी,

समिे ?

रामसेिक-कोई वचन्ता िही ां, ऑखें तो देखिे को रहेंगी।

मजीद-भई कमलाचरण, बुरा माििे की बात िही ां,

अब इस िक्त तुम्हारा िजव है वक दोस्तोां की िरमाइश पूरी

करो।

कमला-अरे। तो मैं िही ां कब करता ूंां ?

चिूलाल-िाह मेरे शेर। ये ही मदों की सी बातें है। तो

हम लोग बि-ठिकर आ जायॅ, क्योां ?

कमला-जी, जरा मुांह में कावलख लगा लीवजयेगा। बस

इतिा बहुत है।

सैयद-तो आज ही ठहरी ि।

इधर तो शराब उड़ रही थी, उधर विरजि पलांग पर

लेटी हुई विचार में मग्न हो रही थी। बचपि के वदि भी कैसे

अचे्छ होते हैं। यवद िे वदि एक बार विर आ जाते। ओह।

कैसा मिौहर जीिि था। सांसार पे्रम और प्रीवत की खाि

थी। क्या िह कोई अन्य सांसार था ? क्या उि वदिोां सांसार

की िसु्तए बहुत सुिर होती थी ? इन्ी ां विचारोां में ऑख

74

िपक गयी और बचपि की एक घटिा आांखोां के सामिे आ

गयी। ललू्ल िे उसकी गुवडया मरोड दी। उसिे उसकी

वकताब के दो पने्न िाड वदये। तब ललू्ल िे उसकी पीठ मां

जोर से चुटकी ली, बाहर भागा। िह रोिे लगी और ललू्ल

को कोस रही थी वक सिामा उसका हाथ पकडे आयी और

बोली-क्योां बेटी इसिे तुम्हें मारा है ि ? यह बहुत मार-मार

कर भागता है। आज इसकी खबर लेती हां, देखूां कहाां मारा

है। ललू्ल िे डबडबायी ऑखोां से विरजि की ओर देखा।

तब विरजि िे मुस्करा कर कहा-मुिे उन्ाांिे कह मारा है।

ये मुिे कभी िही ां मारते। यह कहकर उसका हाथ पकड

वलया। अपिे वहसे्स की वमठाई न्दखलाई और विर दोिोां

वमलकर खेलिे लगे। िह समय अब कहाां 9

रावि अवधक बीत गयी थी, अचािक विरजि को जाि

पडा वक कोई सामिे िाली दीिार धमधमा रहा है। उसिे

काि लगाकर सुिा। बराबर शब् आ रहे थे। कभी रूक

जाते विर सुिायी देते। थोडी देर में वमट्टी वगरि लगी। डर

के मारे विरजि के हाथ-पाांि िूलिे लगे। कलेजा धक-धक

करिे लगा। जी कडा करके उठी और महरावजि चतर स्त्री

थी। समिी वक वचल्लाऊां गी तो जाग हो जायेगी। उसिे सुि

रखा था वक चोर पवहले सेध में पाांि डालकर देखते है तब

आप घुसते है। उसिे एक डांडा उठा वलया वक जब पैर

डालेगा तो ऐसा तािकर मारूां गी वक ट ग टूट जाएगी। पर

चोर ि पाांि के स्थि पर वसर रख वदया। महरावजि घात मां

थी ही डांडा चला वदया। खटक की आिाज आयी। चोर ि

िट वसांर खीच वलया और कहता हुआ सुिायी वदया-‘उि

मार डाला, खोपडी िन्ना गयी’। विर कई मिुष्योां के हॅसिे

75

की ध्ववि आयी और तत्पश्चात सन्नाटा हो गया। इतिे में और

लोग भी जाग पडे और शेर् रावि बातचीत में व्यतीत हुई।

प्रात:काल जब कमलाचरण घर मां आये, तो िेि लाल

थे और वसर में सूजि थी। महरावजम िे विकट जाकर देखा,

विर आकर विरजि से कहा-बूं एक बात कूंां। बुरा तो ि

मािोगी ?

विरजि – बुरा क्योां मािूगी ां, कहो क्या कहती हो?

महरावजि – रात को सेंध पड़ी थी िह चोरोां िे िही ां

लगायी थी।

विरजि –विर कौि था?

महरावजि – घर ही के भेदी थे। बाहरी कोई ि था।

विरजि – क्या वकसी कहारि की शरारत थी?

महरावजि – िही ां, कहारोां में कोई ऐसा िही ां है।

विरजि – विर कौि था, स्पि क्योां िही ां कहती?

महारावजि – मेरी जाि में तो छोटे बाबू थे। मैंिे जो

लकड़ी मारी थी, िह उिके वसर में लगी। वसर िूला हुआ

है।

इतिा सुिते ही विरजि की भृकुटी चढ़ गयी।

मुखमांडल अरुण हो आया। कु्रद्व होकर बोली – महरावजि,

होश सांभालकर बातें करो। तुम्हें यह कहते हुए लाज िही ां

आती? तम्हें मेरे समु्मख ऐसी बात कहिे का साहस कैसे

हुआ? साक्षात् मेरे ऊपर कलांक का टीका लगा रही हो।

तुम्हारे बुढ़ापे पर दया आती है, िही ां तो अभी तुम्हें यहाां से

खडे़-खडे़ विकलिा देती। तब तुम्हें विवदत होता वक जीभ

को िश में ि रखिे का क्या िल होता है! यहाां से उठ

जाओ, मुिे तुम्हारा मुांह देखकर ज्वर-सा चढ़ रहा है। तुम्हें

इतिा ि समि् पड़ा वक मैं कैसा िाक्य मुांह से विकाल रही

76

ूंां। उन्ें ईश्वर िे क्या िही ां वदया है? सारा घर उिका है।

मेरा जो कुछ है, उिका है। मैं स्वयां उिकी चेरी ूंां। उिके

सांबांध में तुम ऐसी बात कह बैठी ां।

परनु्त वजस बात पर विरजि इतिी कु्रद्व हुई, उसी बात

पर घर के और लोगोां को विशिास हो गया। वडप्टी साहब के

काि में भी बात पहुांची। िे कमलाचरण को उससे अवधक

दुि-प्रकृवत समिते थे, वजतिा िह था। भय हुआ वक कही ां

यह महाशय बूं के गहिोां पर ि हाथ बढ़ायें: अच्छा हो वक

इन्ें छािालय में भेज दूां। कमलाचरण िे यह उपाय सुिा तो

बहुत छटपटाया, पर कुछ सोच कर छािालय चला गया।

विरजि के आगमि से पूिव कई बार यह सलाह हुई थी, पर

कमला के हठ के आगे एक भी ि चलती थी। यह स्त्री की

दृवि में वगर जािे का भय था, जो अब की बार उसे छािालय

ले गया।

77

१३

कायापलट

पहला वदि तो कमलाचरण िे वकसी प्रकार छािालय

में काटा। प्रात: से सायांकाल तक सोया वकये। दूसरे वदि

ध्याि आया वक आज ििाब साहब और तोखे वमजाव के

बटेरोां में बढ़ाऊ जोड़ हैं। कैसे-कैसे मस्त पटे्ठ हैं! आज

उिकी पकड़ देखिे के योग्य होगी। सारा िगर िट पडे़ तो

आश्चयव िही ां। क्या वदल्लगी है वक िगर के लोग तो आिांद

उड़ायें और मैं पड़ा रोऊां । यह सोचते-सोचते उठा और

बात-की-बात में अखाडे़ में था।

यहाां आज बड़ी भीड़ थी। एक मेला-सा लगा हुआ था।

भीश्ती वछड़काि कर रहे थे, वसगरेट, खोमचे िाले और

तम्बोली सब अपिी-अपिी दुकाि लगाये बैठे थे। िगर के

मिचले युिक अपिे हाथोां में बटेर वलये या मखमली अड्ोां

पर बुलबुलोां को बैठाये मटरगश्ती कर रहे थे कमलाचरण

के वमिोां की यहाां क्या कमी थी? लोग उन्ें खाली हाथ

देखते तो पूछते – अरे राजा साहब! आज खाली हाथ कैसे?

इतिे में वमयाां, सैयद मजीद, हमीद आवद िशे में चूर,

वसगरेट के धुऐां भकाभक उड़ाते दीख पडे़। कमलाचरण

को देखते ही सब-के-सब सरपट दौडे़ और उससे वलपट

गये।

मजीद – अब तुम कहाां गायब हो गये थे यार, कुराि

की कसम मकाि के सैंकड़ो चक्कर लगाये होांगे।

रामसेिक – आजकल आिांद की रातें हैं, भाई! आांखें

िही ां देखते हो, िशा-सा चढ़ा हुआ है।

78

चिुलाल – चैि कर रहा है पट्ठा। जब से सुिरी घर में

आयी, उसिे बाजार की सूरत तक िही ां देखी। जब देखीये,

घर में घुसा रहता है। खूब चैि कर ले यार!

कमला – चैि क्या खाक करुां ? यहाां तो कैद में िां स

गया। तीि वदि से बोवडिंग में पड़ा हुआ ूंां।

मजीद - अरे! खुदा की कसम?

कमला – सच कहता ूंां, परसोां से वमट्टी पलीद हो रही

है। आज सबकी आांख बचाकर विकल भागा।

रामसेिक – खूब उडे़। िह मुछां दर सुपररणे्ण्डण्

िल्ला रहा होगा।

कमला – यह माके का जोड़ छोड़कर वकताबोां में वसर

कौि मारता।

सैयद – यार, आज उड़ आये तो क्या? सच तो यह है

वक तुम्हारा िहाां रहिा आित है। रोज तो ि आ सकोगे?

और यहाां आये वदि ियी सैर, ियी-ियी बहारें , कल लाला

वडग्गी पर, परसोां पे्रट पर, िरसोां बेड़ोां का मेला-कहाां तक

वगिाऊां , तुम्हारा जािा बुरा हुआ।

कमला – कल की कटाि तो मैं जरुर देखूांगा, चाहे

इधर की दुविया उधर हो जाय।

सैयद – और बेड़ोां का मेला ि देखा तो कुछ ि देखा।

तीसरे पहर कमलाचरण वमिोां से वबदा होकर उदास

मि छािालय की ओर चला। मि में एक चोर-सा बैठा हुआ

था। द्वार पर पहुांचकर िाांकिे लगावक सुपररणे्णे्डण्

साहब ि होां तो लतपककर कमरे में हो रूंां। तो यह देखता

है वक िह भी बाहर ही की ओर आ रहे हैं। वचत्त को भली-

भाांवत दृढ़ करके भीतर पैठा।

सुररणे्णे्डण् साहब िे पूछा – अब तक हाां थे?

79

‘एक काम से बाजार गया था’।

‘यह बाजार जािे का समय िही ां है’।

‘मुिे ज्ञात िही ां था, अब ध्याि रखूांग को जब कमला

चारपाई पर लेटा तो सोचिे लगा – यार, आज तो बच गया,

पर उत्तम तभी हो वक कल बचूां। और परसोां भी महाशय

की आांख में धूल डालूां। कल का दृश्य िसु्तत:दशविीय होगा।

पतांग आकाश में बातें करें गे और लमे्ब-लमे्ब पेंच होांगे। यह

ध्याि करते-करते सो गया। दूसरे वदि प्रात: काल छािालय

से विकल भागा। सुहृदगण लाल वडग्गी पर उसकी प्रतीक्षा

कर रहे थे। देखते ही गदगद् हो गये और पीठ ठोांकी।

कमलाचरण कुछ देर तक तो कटाि देखता रहा। विर

शौक चरावया वक क्योां ि मैं भी अपिे किकौए मांगाऊां और

अपिे हाथोां की सिाई वदखलाऊां । सैयद िे भड़काया,

बद-बदकर लड़ाओ। रुपये हम दें गे।चट घर पर आदमी

दौड़ा वदया। पूरा विश्वास था वक अपिे माांिे से सबको

परास्त कर दूांगा। परनु्त जब आदमी घर से खाली हाथ

आया, तब तो उसकी देह में आग-सी-लग गयी। हण्र

लेकर दौड़ा और घर पहुांचते ही कहारोां को एक ओर से

सटर-सटर पीटिा आरांभ वकया। बेचारे बैठे हुक्का: तमाखू

कर रहे थे। विरपराध अचािक हण्र पडे़ तो वचल्ला-

वचल्लाकर रोिे लेगे। सारे मुहले्ल में एक कोलाहल मच

गया। वकसी को समि ही में ि आया वक हमारा क्या दोर्

है? िहाां कहारोां का भली-भाांवत सत्कार करके कमलाचरण

अपिे कमरे में पहुांचा। परनु्त िहाां की दुदवशा देखकर क्रोध

और भी प्रज्ज्ववलत हो गया। पतांग िटे हुए थे, चन्दखवयाां टूटी

हुई थी ां, माांिे लन्दच्छयाां उलि् पड़ी ां थी ां, मािो वकसी आपवत

िे इि यिि योद्वाओां का सत्यािाश कर वदया था। समि

80

गया वक अिश्य यह माताजी की करतूत है। क्रोध से लाल

माता के पास गया और उच् स्वर से बोला – क्या माां! तुम

सचमुच मेरे प्राण ही लेिे पर आ गयी हो? तीि वदि हुए

कारागार में वभजिाया पर इतिे पर भी वचत्त को सांतोर् ि

हुआ। मेरे वििोद की सामवग्रयोां को िि कर डाला क्योां?

पे्रमिती – (विस्मय से) मैंिे तुम्हारी कोई चीज़ िही ां

छुई! क्या हुआ?

कमला – (वबगड़कर) िठूोां के मुख में कीडे़ पड़ते हैं।

तुमिे मेरी िसु्तएां िही ां छुई तो वकसको साहस है जो मेरे

कमरे में जाकर मेरे किकौए और चन्दखवयाां सब तोड़-िोड़

डाले, क्या इतिा भी िही ां देखा जाता।

पे्रमिती – ईश्वर साक्षी है। मैंिे तुम्हारे कमरे में पाांि भी

िही ां रखा। चलो, देखूां कौि-कौि चीज़ें टूटी हैं। यह कहकर

पे्रमिती तो इस कमरे की ओर चली और कमला क्रोध से

भरा आांगि में खड़ा रहा वक इतिे में माधिी विरजि के

कमरे से विकली और उसके हाथ में एक वचट्टी देकर चली

गयी। वलखा हुआ था-

‘अपराध मैंिे वकया है। अपरावधि मैं ूंां। जो दण्ड चाहे

दीवजए’।

यह पि देखते ही कमला भीगी वबल्ली बि गया और

दबे पाांि बैठक की ओर चला। पे्रमिती पदे की आड़ से

वससकते हुए िौकरोां को डाांट रही थी, कमलाचरण िे उसे

मिा वकया और उसी क्षण कुछ और किकौए जो बचे हुए

थे, स्वांय िाड़ डाले, चन्दखवयाां टुकडे़-टुकडे़ कर डाली ां और

डोर में वदयासलाई लगा दी। माता के ध्याि ही में िही ां आता

था वक क्या बात है? कहाां तो अभी-अभी इन्ी ां िसु्तओां के

वलए सांसार वसर पर उठा वलया था, और कहा आप ही

81

उसका शिु हो गया। समिी, शायद क्रोध से ऐसा कर रहा

होां मािािे लगी ां, पर कमला की आकृवत से क्रोध तविक भी

प्रकट ि होता था। वसथरता से बोला – क्रोध में िही ां ूंां।

आज से दृढ़ प्रवतज्ञा करता ूंां वक पतांग कभी ि

उड़ाऊूँ गाां मेरी मूखवता थी, इि िसु्तओां के वलए आपसे

िगड़ बैठा।

जब कमलाचरण कमरे में अकेला रह गया तो सोचिे

लगा-विस्सिेह मेरा पतांग उड़ािा उने् िापसि है, इससे

हावदवक घृणा है; िही ां तो मुि पर यह अत्याचार कदावप ि

करती ां। यवद एक बार उिसे भेंट हो जाती तो पूछता वक

तुम्हारी क्या इच्छा है; पर कैसे मुूँह वदखाऊूँ । एक तो

महामूशव, वतस पर कई बार अपिी मूखवता का पररचय दे

चुका। सेंधिाली घटिा की सूचिा उन्ें अिश्य वमली होगी।

उन्ें मुख वदखािे के योग्य िही ां रहा। अब तो यही उपाय है

वक ि तो उिका मुख देखूूँ ि अपिा वदखाऊूँ , या वकसी

प्रकार कुछ विद्या सीखूूँ। हाय ! इस सुिरी िे कैसार स्वरुप

पाया है! स्त्री िीह अप्सरा जाि पड़ती है। क्या अभी िह

वदि भी होगा जब वक िह मुिसे पे्रम करेगी? क्या लाल-

लाल रसीले अधर है! पर है कठोर हृदय। दया तो उसे छू

िही गयी। कहती है जो दण्ड दूूँ? यवद पा जाऊूँ हृदय से

लगा लू। अच्छा, तो अब आज से पढ़िा चावहये। यह

सोचते-सोचते उठा और दरबा खोलकर कबूतरोां का उड़ािे

लगा। सैकड़ो जोडे़ थे ओर एक-से-एक बढ़-चढ़कर।

आकाश मे तारे बि जाएूँ , डे़ तो वदि-भर उतरिे का िाम ि

लें। जगर क बूतरबाज एक-एक जोड़ पर गुलामी करिे को

तैयार थे। परनु्त क्षण-माि में सब-के-सब उड़ा वदय। जब

दरबा खाली हो ेेगया, तो कहाररोां को आज्ञा दी वक इसे

82

उठा ले जाओ और आग में जला दो। छत्ता भी वगरा दो,

िही ां तो सब कबूतर जाकर उसकी पर बैठें गें। कबूतरोां का

काम समाप्त करके बटेरोां और बुलबुलोां की ओर चले और

उिकी भी कारागार से मुक्त कर वदया।

बाहर तो यह चररि हो रहा था, भीतर पे्रमिती छाती

पीट रही थी वक ल़का ि जािे क्या करिे तर तत्पर हुआ है?

विरजि को बुलाकर कहा-बेटी? बचे् को वकसी प्रकार

रोको। ि-जािे उसिे मि मे क्या ठािी है? यह कहक रोिे

लगी! विरजि को भी सिेह हो रहा था वक अिश्य इिकी

कुछ और ियीत है िही ां तो यह क्रोध क्योां? यद्यवप कमला

दुव्यवसिी था, दुराचारी था, कुचररि था, परनु्त इि सब दोर्ोां

के होते हुए भी उसमें एक बड़ा गुण भी था, वजसका कोई

स्त्री अिहेलिा िही ां कर सकती। उसे िृजरािी से स्विी

प्रीवत थी। और इसका गुप् रीवत से कई बार पररचय भी

वमल गया था। यही कारण था वजसेि विरजि को इतिा

गिवशील बिा वदया था। उसिे कागेज विकाला और यह पि

बाहर भेजा।

“वप्रयत,

यह कोप वकस पर है? केिल इसीवलए वक मैंिे दो-

तीि किकौए िाडृ़ डाले? यवद मुिे ज्ञात होता वक आप

इतिी-सी बात पर ऐसे कु्रद्व हो जायेंगे, तो कदावप उि पर

हाथ ि लगाती। पर अब तो अपराध हो गया, क्षमा कीवजये।

यह पहला कसूर है

आपकी

िृजरािी।”

83

कमलाचरण यह पि पाकर ऐसा प्रमुवदत हुआ, मािे

सारे जगत की सांपवत्त प्राप्त हो गयी। उत्तर देिे की इच्छा

हुई, पर लेखिी ही िही ां उठती थी। ि प्रशन्दस्त वमलती है, ि

प्रवतिा, ि आरांभ का विचार आता, ि समान्दप्त का। बहुत

चाहते हैं वक भािपूणव लहलहाता हुआ पि वलखूां, पर बुवद्व

तविक भी िही ां दौड़ती। आज प्रथम बार कमलाचरण को

अपिी मुखवता और विरक्षरता पर रोिा आया। शोक ! मैं

एक सीधा-सा पि भी िही ां वलख सकता। इस विचार से िह

रोिे लगा और घर के द्वार सब बि कर वलये वक कोई देख

ि ले।

तीसरे पहर जब मुांशी श्यामाचरण घर आये, तो सबसे

पहली िसु्त जो उिकी दृवि में पड़ी, िह आग का अलािा

था। विन्दस्मत होकर िौकरोां से पूडा-यह अलाि कैसा?

िौकरोां िे उत्तर वदया-सरकार ! दरबा जल रहा है।

मुांशीजी- (घुड़ककर) इसे क्योां जलाते हो? अब कबूर

कहाूँ रहेंगे?

कहार-छोटे बाबू की आज्ञा है वक सब दरबे जला दो

मुांशीजी- कबूतर कहाूँ गये?

कहार-सब उड़ा वदये, एक भी िही ां रखा। किकौए

सब िाड़ डाले, डोर जला दी, बड़ा िुकसाि वकया।

कहरोां िे अपिी समि में मार-पीट का बउला वलया।

बेचारे समिे वक मुांशीजी इस िुकासि क वलये कमलाचरण

को बुरा-भला कहेंगे, परनु्त मांशीजी िे यह समाचार सुिा तो

भैंचके्क-से रह गये। उन्ी जाििरोां पर कमलाचरण प्राण

देता था, आज अकस्मात् क्या कायापलट हो गयी? अिश्य

कुछ भेद है। कहार से कहा- बचे् को भेज दो।

84

एक वमिट में कहार िे आकर कहा- हजुर, दरिाजा

भीतर से बि है। बहुत खटखटाया, बोलते ही िही ां।

इतिा सुििा था वक मुांशीजी का रुवधर शुष्क हो गया।

िट सिेह हुआ वक बचे् िे विर् खा वलया। आज एक जहर

न्दखलािे के मुकदमें का िैसला वकया था। िांगे, पाूँि दौडे़

और बि कमरे के वकिाड़ पर बजपूिवक लात मारी और

कहा- बच्ा! बच्ा! यह कहते-कहते गला रुूँ ध गया।

कमलाचरण वपता की िाणी पवहचाि कर िट उठा और

अपिे आूँसूां पोांछकर वकिाड़ खोल वदया। परनु्त उसे

वकतिा आश्चयव हुआ, जब मुांशीजी िे वधक्कार, िटकार के

बदले उसे हृदय से लगा वलया और व्याकुल होकर पूछा-

बच्ा, तुमे्ह मेरे वसर की कसम, बता दो तुमिे कुछ खा तो

िही ां वलया? कमलाचरण िे इस प्रश्न का अथव समििे के

वलये मुांशीजी की ओर आूँखें उठायी तो उिमें जल भरा था,

मुांशीजी को पूरा विश्वास हो गया वक अिश्यश् विपवत्त का

सामिा हुआ। एक कहार से कहा-डाक्टर साहब को बुला

ला। कहिा, अभी चवलये।

अब जाकर दुबुववद्व कमेलाचरण िे वपता की इस

घबराहट का अथव समिा। दौड़कर उिसे वलपट गया और

बोला- आपको भ्रम हुआ है। आपके वसर की कसम, मैं

बहुत अच्छी तरह ूंूँ।

परनु्त वडप्टी साहब की बुवद्व न्दस्थर ि थी ; समिे, यह

मुिे रोककर विलम्ब करिा चाहता है। वििीत भाि से

बोले-बच्ा? ईश्वर के वलए मुिे छोड़ दो, मैं सिूक से एक

और्वध ले आऊूँ । मैं क्या जािता था वक तुम इस िीयत से

छािालय में जा रहे हो।

85

कमलाचरण- इश्ववर-साक्षी से कहता ूंूँ, मैं वबलकुल

अच्छा ूंूँ। मैं ऐसा लिािाि होता, तो इतिा मूखव क्योां बिा

रहता? आप व्यथव ही डाक्टर साहब को बुला रहे हैं।

मुांशीजी- (कुछ-कुछ विश्वास करके) तो वकिाड़ बि

कर क्या करते थे?

कमलाचरण- भीतर से एक पि आया था, उत्तर वलख

रहा था।

मुांशीजी- और यह कबूतर िगैरह क्योां उड़ा वदये?

कमला- इसीवलए वक विवश्चांतापूिवक पढूूँ । इन्ी ां बखेड़ोां

में समय िि होता था। आज मैिें इिका अन्त कर वदया।

अबा आप देखेंगे वक मैं पढ़िे में कैसा जी लगाता ूंूँ।

अब जाके वडप्टी साहब की बुवद्व वठकािे आयी। भीतर

जाकर पे्रमिती से समाचार पूछा तो उसिे सारी रामायण

कह सुिायी। उन्ोांिे जब सुिा वक विरजि िे क्रोध में

आकर कमला के किकौए िाड़ डाले और चवरवया तोड़

डाली तो हांस पडे़ और कमलाचरण के वििोद के सिविाश

का भेद समि में आ गया। बोले-जाि पड़ता है वक बूं इि

लालजी को सीधा करके छोडे़गी।

14

भ्रम

िृजरािी की विदाई के पश्चात सुिामा का घर ऐसा सूिा

हो गया, मािो वपांजरे से सुआ उड़ गया। िह इस घर का

दीपक और शरीर की प्राण थी। घर िही है, पर चारोां ओर

उदासी छायी हुई है। रहिेचाला िे ही है। पर सबके मुख

मवलि और िेि ज्ोवतहीि हो रहे है। िावटका िही है, पर

ऋतु पतिड़ की है। विदाई के एक मास पश्चाि मुांशी

86

सांजीििलाल भी तीथवयाि करिे चले गये। धि-सांपवत्त सब

प्रताप को सवमवपत कर दी। अपिे सग मृगछाला, भगिद्

गीता और कुछ पुस्तकोां के अवतररक्त कुछ ि ले गये।

प्रताचन्द्र की पे्रमाकाांक्षा बड़ी प्रबल थी ां पर इसके साथ

ही उसे दमि की असीम शन्दक्त भी प्राप्त थी। घर की एक-

एक िसु्त उसे विरजि का स्मरण कराती रहती थी। यह

विचार एक क्षण के वलए भी दूर ि होता था यवद विरजि

मेरी होती, तो ऐसे सुख से जीिि व्यतीत होता। परनु्त

विचार को िह हटाता रहता था। पढ़िे बैठता तो पुस्तक

खुली रहती और ध्याि अन्यि जा पहुांचता। भोजि करिे

बैठता तो विरजि का वचि िेिोां में विरिे लगता। पे्रमावग्न

को दमि की शन्दक्त से दबाते-दबाते उसकी अिस्था ऐसी

हो गयी, मािो िर्ों का रोगी है पे्रवमयोां को अपिी अवभलार्ा

पूरी होिे की आशा हो याि हो, परनु्त िे मि-ही-मि

अपिी पे्रवमकाओां से वमलिे का आिि उठाते रहते है। िे

भाि-सांसार मे अपिे पे्रम-पाि से िातावलाप करते हैं, उसे

छोड़ते हैं, उससे रुठते हैं, उसे मिाते है और इि थािोां में

उन्ें तृन्दप्त होती है आेैश्र मि को एक सुखद और रसमय

कायव वमल जाता है। परनु्त यवद कोई शन्दक्त उन्ें इस

भािोद्याि की सैर करिे से रोके, यवद कोई शन्दक्त ध्याि में

भी उस वप्रयतम का वचि् ि देखिे दे, तो उि अभागोां

पे्रवमयोां को क्या दशा होगा? प्रताप इन्ी अभागोां में था।

इसमें सांदेह िही ां वक यवद िह चाहता तो सुखद भािोां का

आिि भोग सकता था। भाि-सांसार का भ्रमणअतीि

सुखमय होता है, पर कवठिता तो यह थी वक िह विरजि

का ध्याि भी कुन्दत्सत िासिाओां से पविि् रखिा चाहता था।

उसकी वशक्षा ऐसे पविि वियमोां से हुई थी और उसे ऐसे

87

पविित्माओां और िीवतपरायण मिुष्योां की सांगवत से लाभ

उठािे क अिसर वमले थे वक उसकी दृवि में विचार की

पवित्र्ता की भी उतिी ही प्रवतिा थी वजतिी आचार की

पवििता की। यह कब सांभि था वक िह विरजि को-वजसे

कई बार बवहि कह चुका था और वजसे अब भी बवहि

समििे का प्रयत्न करता रहता था- ध्यािािस्था में भी ऐसे

भािोां का कें द्र बिाता, जो कुिासिाओां से भले ही शुद्व हो,

पर मि की दूवर्त आिेगोां से मुक्त िही ां हो सकते थे जब

तक मुन्घ्शीजी सांजीििलाल विद्यमाि थे, उिका कुछ-ि-

कुछ समय उिके सांग ज्ञाि और धमव-चचाव में कट जाता था,

वजससे आत्मा को सांतोर् होता था ! परनु्त उिके चले जािे

के पश्चात आत्म-सुधार का यह अिसर भी जाता रहा।

सुिामा उसे योां मवलि-मि पाती तो उसे बहुत दु:ख

होता। एक वदि उसिे कहा- यवद तुम्हारा वचत्त ि लगता हो,

प्रयाग चले जाओ िहाूँ शायद तुम्हारा जी लग जाए। यह

विचार प्रताप के मि में भी कई बार उत्पन्न हुआ था, परनु्त

इस भय से वक माता को यहाां अकेले रहिे में कि होगा,

उसिे इस पक कुछ ध्याि िही ां वदया था। माता का आदेश

पाकर इरादा पक्का हो गया। यािा की तैयाररयाां करिे

लगा, प्रस्थाि का वदि विवश्चत हो गया। अब सुिामा की यह

दशा है वक जब देन्दखए, प्रताप को परदेश में रहिे-सहिे की

वशक्षाएां दे रही है-बेटा, देखोां वकसी से िगड़ा मत मोल

लेिा।िगड़िे की तुम्हारी िैसे भी आदत िही ां है, परनु्त

समिा देती ूंूँ। परदेश की बात है िूां क-िूां ककर पग

धरिा। खािे-पीिे में असांयम ि करिा। तुम्हारी यह बुरी

आदत है वक जाड़ोां में साांयकाल ही सो जाते हो, विर कोई

वकतिा ही बुलाये पर जागते ही िही ां। यह स्वभाि परदेश में

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भी बिा रहे तो तुम्हें साांि का भोजि काहे को वमलेगा?

वदि को थोड़ी देर के वलए सो वलया करिा। तुम्हारी आांखोां

में तो वदि को जैसे िी ांद िही ां आती।

उसे जब अिकाश वमला, बेटे को ऐसी समयोवचत

वशक्षाएां वदया करती। विदाि प्रस्थाि का वदि आ ही गया।

गाड़ी दस बजे वदि को छूटती थी। प्रताप िे सोचा- विरजि

से भेंट कर लूां। परदेश जा रहा ूंूँ। विर ि जािे कब भेंट

हो। वचत को उतु्सक वकया। माता से कह बैठा। सुिामा

बहुत प्रसन्न हुई। सुिामा बहुत प्रसन्न हुई। एक थाल में

मोदक समोसे और दो-तीि प्रकार के मुरबे्ब रखकर

रवधयाको वदये वक ललू्ल के सांग जा। प्रताप िे बाल बििाये,

कपडे़ बदले। चलिे को तो चला, पर ज्ोां-ज्ोां पग आगे

उठाता है, वदल बैठा जाता है। भाांवत-भाांवत के विचार आ रहे

है। विरजि ि जािे क्या मि में समिे, क्या सि समिे। चार

महीिे बीत गये, उसिे एक वचट्ठी भी तो मुिें अलग से िही ां

वलखी। विर क्योांकर कूंां वक मेरे वमलिे से उसे प्रसन्नता

होगी। अजी, अब उसे तुम्हारी वचन्ता ही क्या है? तुम मर भी

जाओ तो िह आांसू ि बहाये। यहाां की बात और थी। िह

अिश्य उसकी आूँखोां में खटकेगा। कही ां यह ि समिे वक

लालाजी बि-ठिकर मुिे ररिािे आये हैं। इसी सोच-विचार

में गढ़ता चला जाता था। यहाूँ तक वक श्यामाचरण का

मकाि वदखाई देिे लगा। कमला मैदाि टहल रहा था उसे

देखते ही प्रताप की िह दशा हो गई वक जो वकसी चोर की

दशा वसपाही को देखकर होती है िट एक घर कर आड़ में

वछप गया और रवधया से बोला- तू जा, ये िसु्तएूँ दे आ। मैं

कुछ काम से बाजार जा रहा ूंूँ। लौटता हुआ जाऊूँ गा। यह

कह कर बाजार की ओर चला, परनु्त केिल दस ही डग

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चला होेेगा वक वपर महरी को बुलाया और बोला- मुिे

शायद देर हो जाय, इसवलए ि आ सकूूँ गा। कुछ पूछे तो

यह वचट्ठी दे देिा, कहकर जेब से पेन्दिल विकाली और

कुछ पांन्दक्तयाां वलखकर दे दी, वजससे उसके हृदय की दशा

का भली-भांवत पररचय वमलता है।

“मैं आज प्रयाग जा रहा ूंूँ, अब िही ां पढूांगा। जल्दी के

कारण तुमसे िही ां वमल सका। जीवित रूंूँगा तो विर

आऊूँ गा। कभी-कभी अपिे कुशल-के्षम की सूचिा देती

रहिा।

तुम्हारा

प्रताप”

प्रताप तो यह पि देकर चलता हुआ, रवधया धीरे-धीरे

विरजि के घर पहुूँची। िह इसे देखते ही दौड़ी और

कुशल-के्षम पूछिे लगी-लाला की कोई वचट्ठी आयी थी?

रवधया- जब से गये, वचट्ठी-पिी कुछ भी िही ां आयी।

विरजि- चाची तो सूख से है?

रवधया– ललू्ल बाबू प्रयागराज जात है तीि तविक

उदास रहत है।

विरजि – (चौांककर) ललू्ल प्रयाग जा रहे हैं।

रवधया – हाां, हम सब बहुत समिाया वक परदेश माां

कहाां जैहो। मुदा कोऊ की सिुत है?

रधीया – कब जायेंगे?

रधीया – आज दस बजे की टे से जिय्या है। तुसे भेंट

करि आित रहेि, तिि दुिारर पर आइ के लिट गयेि।

विरजि – यहां तक आकर लौट गये। द्वार पर कोई था

वक िही ां?

90

रधीया – द्वार पर कहाां आये, सड़क पर से चले गये।

विरजि – कुछ कहा िही ां, क्याां लौटा जाता ूंां?

रधीया – कुछ कहा िही ां, इतिा बोले वक ‘हमार टेम

छवहट जहै, तौि हम जाइत हैं।’

विरजि िे घड़ी पर दृवि डाली, आठ बजिे िाले थे।

पे्रमिती के पास जाकर बोली – माता! ललू्ल आज प्रयाग जा

रहे हैं, वद आप कहें तो उिसे वमलती आऊां । विर ि जािे

कब वमलिा हो, कब ि हो। महरी कहती है वक बस

मुिसेवमलिे आते थे, पर सड़क के उसी पार से लौट गये।

पे्रमिती – अभी ि बाल गुांथिाये, ि माांग भरिायी, ि

कपडे़ बदले बस जािे को तैयार हो गयी।

विरजि – मेरी अम्माां! आज जािे दीवजए। बाल

गुांथिािे बैठूां गी तो दस यही ां बज जायेंगे।

पे्रमिती – अच्छा, तो जाओ, पर सांध्या तक लौट आिा।

गाड़ी तैयार करिा लो, मेरी ओर से सुिामा को पालगि कह

देिा।

विरजि िे कपडे़ बदले, माधिी को बाहर दौड़ाया वक

गाड़ी तैयार करिे के वलए कहो और तब तक कुछ ध्याि ि

आया। रधीया से पूछा – कुछ वचट्टी-पिी िही ां दी?

रवधया िे पि विकालकर दे वदया। विरजि िे उसे हर्व

सेवलया, परनु्त उसे पढ़ते ही उसका मुख कुम्हला गया।

सोचिे लगीवक िह द्वार तक आकर क्योां लौट गये और पि

भी वलखा तो ऐसा उखड़ा और अस्पि। ऐसी कौि जल्दी

थी? क्या गाड़ी के िौकर थे, वदिभर में अवधक िही ां तो पाांच

– छ: गावडयाां जाती होांगी। क्या मुिसे वमलिे के वलए उने्

दो घांटोां का विलम्ब भी असहय हो गया? अिश्य इसमें

कुछ-ि-कुछ भेद है। मुिसे क्या अपराध हुआ? अचािक

91

उसे उस सय का ध्याि आया, जब िह अवत व्याकुल हो

प्रताप के पास गयी थी और उसके मुख से विकला था,

‘ललू्ल मुिसे कैसे सहा जायेगा!’विरजि को अब से पवहले

कई बार ध्याि आ चुका वक मेरा उस समय उस दशा में

जािा बहुत अिुवचत था। परनु्त विश्वास हो गया वक मैं

अिश्य ललू्ल की दृवि से वगर गयी। मेरा पे्रम और मि अब

उिके वचत्तमें िही ां है। एक ठण्डी साांस लेकर बैठ गयी और

माधिी से बोली – कोचिाि से कह दो, अब गाड़ी ि तैयार

करें । मैं ि जाऊां गी।

92

१५

कताव्य और पे्रम का िोंघर्ा

जब तक विरजि ससुराल से ि आयी थी तब तक

उसकी दृवि में एक वहिु-पवतव्रता के कतवव्य और आदशव

का कोई वियम न्दस्थर ि हुआ था। घर में कभी पवत-सम्बांधी

चचाव भी ि होती थी। उसिे स्त्री-धमव की पुस्तकें अिश्य

पढ़ी थी ां, परनु्त उिका कोई वचरस्थायी प्रभाि उस पर ि

हुआ था। कभी उसे यह ध्याि ही ि आता था वक यह घर

मेरा िहां है और मुिे बहुत शीघ्र ही यहाां से जािा पडे़गा।

परनु्त जब िह ससुराल में आयी और अपिे प्राणिाथ

पवत को प्रवतक्षण आांखोां के सामिे देखिे लगी तो शिै: शिै:

वचत्-िृवतयोां में पररितवि होिे लगा। ज्ञात हुआवक मैं कौि

ूंां, मेरा क्या कतवव्य है, मेरा क्या धवम और क्या उसके

वििावह की रीवत है? अगली बातें स्वप्नित् जाि पड़िे लगी ां।

हाां वजस समय स्मरण हो आता वक अपराध मुिसे ऐसा

हुआ है, वजसकी कावलमा को मैं वमटा िही ां सकती, तो स्वांय

लिा से मस्तक िुका लेती और अपिे को उसे आश्चयव

होता वक मुिे ललू्ल के समु्मख जािे का साहस कैसे हुआ!

कदावचत् इस घटिा को िह स्वप्न समििे की चेिा करती,

तब ललू्ल का सौजन्यपूणव वचि उसे सामिे आ जाता और

िह हृदय से उसे आशीिाद देती, परनु्त आज जब प्रतापचांद्र

की कु्षद्र-हृदयता से उसे यह विचार करिे का अिसर वमला

वक ललू्ल उस घटिा को अभी भुला िही ां है, उसकी दृवि में

अब मेरी प्रवतिा िही ां रही, यहाां तकवक िह मेरा मुख भी

िही ां देखिा चाहता, तो उसे ग्लविपूणव क्रोध उत्पन्न हुआ।

प्रताप की ओर से वचत्त वलि हो गया और उसकी जो पे्रम

93

और प्रवतिा उसके हृदय में थी िह पल-भर में जल-कण

की भाांवत उड़िे लगी। स्त्रीयोां का वचत्त बहुत शीघ्र

प्रभािग्राही होता है,वजस प्रताप के वलए िह अपिा

असवतत्व धूल मेंवमला देिे को तत्पर थी, िही उसके एक

बाल-व्यिहार को भी क्षमा िही ां कर सकता, क्या उसका

हृदय ऐसा सांकीण है? यह विचार विरजि के हृदय में काांटें

की भाांवत खटकिे लगा।

आज से विरजि की सजीिता लुप्त हो गयी। वचत्त पर

एक बोि-सा रहिे लगा। सोचतीवक जब प्रताप मुिे भूल

गये और मेरी रत्ती-भर भी प्रवतिा िही ां करते तो इस शोक

से मै। क्योां अपिा प्राण घुलाऊां ? जैसे ‘राम तुलसी से, िैसे

तुलसी राम से’। यवद उन्ें मिसे घृणा है, यवद िह मेरा मुख

िही ां देखिा चाहते हैं, तो मैं भी उिका मुख देखिे से घ्रणा

करती ूंां और मुिे उिसे वमलिे की इच्छा िही ां। अब िह

अपिे ही ऊपर िल्ला उठतीवक मैं प्रवतक्षण उन्ी ां की बातें

क्योां सोचती ूंां और सांकल्प करती वक अब उिका ध्याि भी

मि में ि आिे दूांगी, पर तविक देर में ध्याि विर उन्ी ां की

ओर जा पहुांचता और िे ही विचार उसे बेचैि करिे लगते।

हृदय केइस सांताप को शाांत करिे केवलए िह कमलाचरण

को सचे् पे्रम का पररचय देिे लगी। िह थोड़ी देर के वलए

कही ां चला जाता, तो उसे उलाहिा देती। वजतिे रुपये जमा

कर रखे थे, िे सब दे वदये वक अपिे वलए सोिे की घड़ी

और चेि मोल ले लो। कमला िे इांकारवकया तो उदास हो

गयी। कमला योां ही उसका दास बिा हुआ था, उसके पे्रम

का बाहुल्य देखकर और भी जाि देिे लगा। वमिोां िे सुिा

तो धन्यिाद देिे लगे। वमयाां हमीद और सैयद अपिे भाग्य

को वधकारिे लगे वक ऐसी से्नही स्त्री हमको ि वमली। तुम्हें

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िह वबि माांगे ही रुपये देती है और यहाां स्त्रीयोां की

खी ांचताि से िाक में दम है। चाहेह अपिे पास कािी कौड़ी

ि हो, पर उिकी इच्छा अिश्य पूरी होिी चावहये, िही ां तो

प्रलय मच जाय। अजी और क्या कहें, कभी घर में एक बीडे़

पाि के वलए भी चले जाते हैं, तो िहाां भी दस-पाांच उल्टी-

सीधी सुिे वबिा िही ां चलता। ईश्वर हमको भी तुम्हारी-सी

बीिी दे।

यह सब था, कमलाचरण भी पे्रम करता था और

िृजरािी भी पे्रम करती थी परनु्त पे्रवमयोां को सांयोग से जो

हर्व प्राप्त होता है, उसका विरजि के मुख पर कोई वचह्न

वदखायी िही ां देता था। िह वदि-वदि दुबली और पतली

होती जाती थी। कमलाचरण शपथ दे-देकर पूछतावक तुम

दुबली क्योां होती जाती हो? उसे प्रसन््न करिे के जो-जो

उपाय हो सकते करता, वमिोां से भी इस विर्य में सम्मवत

लेता, पर कुछ लाभ ि होता था। िृजरािी हांसकर कह वदया

करतीवक तुम कुछ वचन्ता ि करो, मैं बहुत अच्छी तरह ूंां।

यह कहते-कहते उठकर उसके बालोां में कां घी लगािे

लगती या पांखा िलिे लगती। इि सेिा और सत्कारोां से

कमलाचरण िूलर ि समाता। परनु्त लकड़ी के ऊपर रांग

और रोगि लगािे से िह कीड़ा िही ां मरता, जो उसके भीतर

बैठा हुआ उसका कलेजा खाये जाता है। यह विचार वक

प्रतापचांद्र मुिे भूल गये और मैं उिकी में वगर गयी, शूल

की भाांवत उसके हृदय को व्यवथत वकया करता था। उसकी

दशा वदिोां – वदिोां वबगड़ती गयी – यहाां तक वक वबस्तर पर

से उठिा तक कवठि हो गया। डाक्टरोां की दिाएां होिे

लगी ां।

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उधर प्रतापचांद्र का प्रयाग में जी लगिे लगा था।

व्यायाम का तो उसे व्यसि था ही। िहाां इसका बड़ा प्रचार

था। मािवसक बोि हलका करिे के वलए शारीररक श्रम से

बढ़कर और कोई उपाय िही ां है। प्रात: कसरत करता,

साांयकाल और िुटबाल खलता, आठ-िौ बजे रात तक

िावटका की सैर करता। इतिे पररश्रम के पश्चात् चारपाई

पर वगरता तो प्रभात होिे ही पर आांख खुलती। छ: ही मास

में वक्रकेट और िुटबाल का कप्ताि बि बैठा और दो-तीि

मैच ऐसे खेले वक सारे िगर में धूम हो गयी।

आज वक्रकेट में अलीगढ़ के विपुण न्दखलावडयोां से

उिका सामिा था। ये लोग वहिुस्ताि के प्रवसद्व न्दखलावडयोां

को परास्त करविजय का डांका बजाते यहाां आये थे। उन्ें

अपिी विजय में तविक भी सांदेह ि था। पर प्रयागिाले भी

विराश ि थे। उिकी आशा प्रतापचांद्र पर विभवर थी। यवद

िह आध घणे् भी जम गया, तो रिोां के ढेर लगा देगा। और

यवद इतिी ही देर तक उसका गेंद चल गया, तो विर उधर

का िार-न्यारा है। प्रताप को कभी इतिा बड़ा मैच खेलिे

का सांयोग िवमला था। कलेजा धड़क रहा था वक ि जािे

क्या हो। दस बजे खेल प्रारांभ हुआ। पहले अलीगढ़िालोां के

खेलिे की बारी आयी। दो-ढाई घांटे तक उन्ोांिे खूब

करामात वदखलाई। एक बजते-बजते खेल का पवहला भाग

समाप्त हुआ। अलीगढ़ िे चार सौ रि वकये। अब

प्रयागिालोां की बारी आयी पर न्दखलावडयोां के हाथ-पाांि

िूले हुए थे। विश्वास हो गया वक हम ि जीत सकें गे। अब

खेल का बराबर होिा कवठि है। इतिे रि कौि करेगा।

अकेला प्रताप क्या बिा लेगा ? पवहला न्दखलाड़ी आया और

तीसरे गेंद मे विदा हो गया। दूसरा न्दखलाड़ी आया और

96

कवठिता से प ूँच गेंद खेल सका। तीसरा आया और पवहले

ही गेंद में उड़ गया। चौथे िे आकर दो-तीि वहट लगाये, पर

जम ि सका। प ूँचिे साहब कालेज मे एक थे, पर याां

उिकी भी एक ि चली। थापी रखते-ही-रखते चल वदये।

अब प्रतापचन्द्र दृढ़ता से पैर उठाता, बैट घुमाता मैदाि में

आयाां दोिोां पक्षिालोां िे करतल ध्ववि की। प्रयोगिालोां की

श अकथिीय थी। प्रते्यक मिुष्य की दृवि प्रतापचन्द्र की

ओर लगी हुई थी। सबके हृदय धड़क रहे थे। चतुवदवक

सन्नाटा छाया हुआ था। कुछ लोग दूर बैठकर दवश्वर से

प्राथविा कर रहे थे वक प्रताप की विजय हो। देिी-देिता

स्मरण वकये जो रहे थे। पवहला गेंद आया, प्रताप िेखली

वदया। प्रयोगिालोां का साहस घट गया। दूसरा आया, िह

भी खाली गया। प्रयागिालोां का, कलेजा िावभ तक बैठ

गया। बहुत से लोग छतरी सांभाल घर की ओर चले। तीसरा

गेंद आया। एक पड़ाके की ध्ववि हुई ओर गेंद लू (गमव हिा)

की भ ूँवत गगि भेदि करता हुआ वहट पर खडे़ होिेिाले

न्दखलाड़ी से ससौ गज ओग वगरा। लोगोां िे तावलय ूँ

बजायीयां। सूखे धाि में पािी पड़ा। जािेिाले वठठक गये।

विरशें को आशा बूँधी। चौथा गांद आया और पहले गेंद से

दस गज आगे वगरा। िील्डर चौांके, वहट पर मदद पहूँचायी!

प ूँचि ूँ गेंद आया और कट पर गया। इतिे में ओिर हुआ।

बालर बदले, िये बालर पूरे बवधक थे। घातक गेंद िें कते

थे। पर उिके पवहले ही गेंद को प्रताप के आकाश में

भेजकर सूयव से स्पवश करा वदया। विर तो गेंद और उसकी

थापी में मैिी-सी हो गयी। गेंद आता और थापी से पाश्वव

ग्रहण करके कभी पूिव का मागव लेता, कभी पवश्चम का ,

कभी उत्तर का और कभी दवक्षण का, दौड़ते-दौड़ते

97

िील्डरोां की स ूँसें िूल गयी ां, प्रयागिाले उछलते थे और

तावलय ूँ बजाते थे। टोवपय ूँ िायु में उछल रही थी ां। वकसी ि

रुपये लुटा वदये और वकसी िे अपिी सोिे की जांजीर लुटा

दी। विपक्षी सब मि मे कुढ़ते, िल्लाते, कभी के्षि का क्रम

पररितवि करते, कभी बालर पररितवि करते। पर चातुरी

और क्रीड़ा-कौशल विरथवक हो रहा था। गेंद की थापी से

वमिता दृढ़ हो गयी थी। पूरे दो घने्ट तक प्रताप पड़ाके,

बम-गोले और हिाइय ूँ छोड़तमा रहा और िील्डर गांद की

ओर इस प्रकार लपकते जैसे बचे् चन्द्रमा की ओर लपकते

हैं। रिोां की सांख्या तीि सौ तक पहुूँच गई। विपवक्षयोां के

छके्क छूटे। हृदय ऐसा भराव गया वक एक गेंद भी सीधा

था। यहाां तक वक प्रताप िे पचास रि और वकये और अब

उसिे अम्पायर से तविक विश्राम करिे के वलए अिकाश

म ूँगा। उसे आता देखकर सहस्ोां मिुष्य उसी ओरदौडे़

और उसे बारी-बारी से गोद में उठािे लगे। चारोां ओर

भगदड़ मच गयी। सैकड़ो छाते, छवड़य ूँ टोवपय ूँ और जूते

ऊध्ववगामी हो गये मािो िे भी उमांग में उछल रहे थे। ठीक

उसी समय तारघर का चपरासी बाइवसकल पर आता हुआ

वदखायी वदया। विकट आकर बोला-‘प्रतापचांद्र वकसका

िाम है!’ प्रताप िे चौांककर उसकी ओर देखा और चपरासी

िे तार का वलिािा उसके हाथ में रख वदया। उसे पढ़ते ही

प्रताप का बदि पीला हो गया। दीघव श्वास लेकर कुसी पर

बैठ गया और बोरला-यारो ! अब मैच का विबटारा तुम्हारे

हाथ में है। मेंिे अपिा कतवव्य-पालि कर वदया, इसी डाक

से घर चला जाूँऊगा।

यह कहकर िह बोवडिंग हाउस की ओर चला। सैकड़ोां

मिुष्य पूछिे लगे-क्या है ? क्या है ? लोगोां के मुख पर

98

उदासी छा गयी पर उसे बात करिे का कह ूँ अिकाश !

उसी समय त ूँगे पर चढ़ा और से्टशि की ओर चला। रासे्त-

भर उसके मि में तकव -वितकव होते रहे। बार-बार अपिे को

वधक्कार देता वक क्योां ि चलते समय उससे वमल वलया ?

ि जािे अब भेंट हो वक ि हो। ईश्वर ि करे कही ां उसके

दशवि से िांवचत रूंूँ; यवद रहा तो मैं भी मुूँह मे कावलख पोत

कही ां मर रूंूँगा। यह सोच कर कई बार रोया। िौ बजे रात

को गाड़ी बिारस पहुूँची। उस पर से उतरते ही सीधा

श्यामाचरण के घर की ओर चला। वचन्ता के मारे ऑांखें

डबडबायी हुईां थी और कलेजा धड़क रहा था। वडप्टी साहब

वसर िुकाये कुसी पर बैठे थे और कमला डाक्टर साहब के

यह ूँ जािे को उद्यत था। प्रतापचन्द्र को देखते ही दौड़कर

वलपट गया। श्यामाचरण िे भी गले लगाया और बोले-क्या

अभी सीधे इलाहाबाद से चले आ रहे हो ?

प्रताप-जी ह ूँ ! आज माताजी का तार पहुूँचा वक

विरजि की बहुत बुरी दशा है। क्या अभी िही दशा है ?

श्यामाचरण-क्या कूंूँ इधर दो-तीि मास से वदिोांवदि

उसका शरीर क्षीण होता जाता है, और्वधयोां का कुछ भी

असर िही ां होता। देखें, ईश्वर की क्या इच्छा है! डाक्टर

साहब तो कहते थे, क्षयरोग है। पर िैद्यराज जी हृदय-

दौबवल्य बतलाते हैं।

विरजि को जब से सूचिा वमली वक प्रतापचन्द्र आये

हैं, तब से उसक हृदय में आशा और भय घुड़दौड़ मची हुई

थी। कभी सोचती वक घर आये होांगे, चाची िे बरबस ठेल-

ठालकर यह ूँ भेज वदया होगा। विर ध्याि हुआ, हो ि हो,

मेरी बीमारी का समाचार पा, घबड़ाकर चले आये होां, परनु्त

िही ां। उन्ें मेरी ऐसी क्या वचन्ता पड़ी है ? सोचा होगा-िही ां

99

मर ि जाए, चलूूँ साांसाररक व्यिहार पूरा करता आऊां । उन्ें

मेरे मरिे-जीिे का क्या सोच ? आज मैं भी महाशय से जी

खोलकर बातें करुां गी ? पर िही ां बातोां की आिश्यकता ही

क्या है ? उन्ोांिे चुप साधी है, तो मैं क्या बोलूूँ ? बस इतिा

कह दूूँगी वक बहुत अच्छी ूंूँ और आपके कुशल की

कामिा रखती ूंूँ ! विर मुख ि खोलूूँगी ! और मैं यह मैली-

कुचैली साड़ी क्योां पवहिे ूंूँ ? जो अपिा सहिेदी ि हो

उसके आगे यह िेश बिाये रखिे से लाभ? िह अवतवथ की

भ ूँवत आये हैं। मैं भी पाहुिी की भ ूँवत उिसे वमलूूँगी। मिुष्य

का वचत्त कैसा चचांल है? वजस मिुष्य की अकृपा िे विरजि

की यह गवत बिा दी थी, उसी को जलािे के वलए ऐसे-ऐसे

उपाय सोच रही है।

दस बजे का समय था। माधिी बैठी पख िल रही थी।

और्वधयोां की शीवशयाूँ इधर-उधर पड़ी हुई थी ां और विरजि

चारपाई पर पड़ी हुई ये ही सब बातें सोच रही थी वक प्रताप

घर में आया। माधिी चौांककर बोली-बवहि, उठो आ गये।

विरजि िपटकर उठी और चारपाई से उतरिा चाहती थी

वक विबवलता के कारण पृथ्वी पर वगर पड़ी। प्रताप िे उसे

सूँभाला और चारपाई पर लेटा वदया। हा! यह िही विरजि

है जो आज से कई मास पूिव रुप एिां लािाण्य की मूवतव

थी, वजसके मुखडे़ पर चमक और ऑखोां में हूँसी का िपास

था, वजसका भार्ण श्यामा का गािा और हूँसिा मि का

लुभािाथ। िह रसीली ऑखोांिाली, मीठी बातोां िाली विरजि

आज केिल अन्दस्थचमाविशेर् है। पहचािी िही ां जाती। प्रताप

की ऑखोां में ऑांसूां भर आये। कुशल पूछिा चाहता था, पर

मुख से केिल इतिा विकला-विरजि ! और िेिोां से जल-

वबिु बरसिे लगे। पे्रम की ऑांखे मिभािोां के परखिे की

100

कसौटी है। विरजि िे ऑांख उठाकर देखा और उि अशु्र-

वबिुओां िे उसके मि का सारा मैल धो वदया।

जैसे कोई सेिापवत आिेिाले युद्व का वचि मि में

सोचता है और शिु को अपिी पीठ पर देखकर बदहिास

हो जाता है और उसे विधवररत वचि का कुछ ध्याि भी िही ां

रहता, उसी प्रकार विरजि प्रतापचन्द्र को अपिे समु्मख

देखकर सब बातें भूल गयी, जो अभी पड़ी-पड़ी सोच रही

थी ! िह प्रताप को रोते देखकर अपिा सब दु:ख भूल गयी

और चारपाई से उठाकर ऑांचल से ऑसूां पोांछिे लगी।

प्रताप, वजसे अपराधी कह सकते हैं, इस समय दीि बिा

हुआ था और विरजि –वजसिे अपिे को सखकर इस श

तक पहुूँचाया था-रो-रोकर उसे कह रही थी- ललू्ल चुप

रहो, ईश्वर जािता है, मैं भली-भ ूँवत अच्छी ूंूँ। मािो अच्छा

ि होिा उसका अपराध था। स्त्रीयोां की सांिेदिशीलता कैसी

कोमल होती है! प्रतापचन्द्र के एक सधारण सांकोच िे

विरजि को इस जीिि से उपेवक्षत बिा वदया था। आज

ऑांसू कुछ बूूँदोां की उसके हृदय के उस सन्ताप, उस जलि

और उस अवग्न कोशन्त कर वदया, जो कई महीिोां से उसके

रुवधर और हृदय को जला रही थी। वजस रेग को बडे़-बडे़

िैद्य और डाक्टर अपिी और्वध तथा उपाय से अच्छा ि

कर सके थे, उसे अशु्र-वबिुओां िे क्षण-भर में चांगा कर

वदया। क्या िह पािी के वबिु अमृत के वबिु थे ?

प्रताप िे धीरज धरकर पूछा- विरजि! तुमिे अपिी

क्या गवत बिा रखी है ?

विरजि (हूँसकर)- यह गवत मैंिे िही ां बिायी, तुमिे

बिायी है।

101

प्रताप-माताजी का तार ि पहुूँचा तो मुिे सूचिा भी ि

होती।

विरजि-आिश्यकता ही क्या थी ? वजसे भुलािे के

वलए तो तुम प्रयाग चले गए, उसके मरिे-जीिे की तुम्हें क्या

वचन्ता ?

प्रताप-बातें बिा रही हो। पराये को क्योां पि वलखती ां ?

विरजि-वकसे आशा थी वक तुम इतिी दूर से आिे का

या पि वलखिे का कि उठाओगे ? जो द्वार से आकर विर

जाए और मुख देखिे से घण करे उसे पि भेजकर क्या

करती?

प्रताप- उस समय लौट जािे का वजतिा दु:ख मुिे

हुआ, मेरा वचत्त ही जािता है। तुमिे उस समय तक मेरे

पास कोई पि ि भेजा था। मैंिे सि, अब सुध भूल गयी।

विरजि-यवद मैं तुम्हारी बातोां को सच ि समिती होती

हो कह देती वक ये सब सोची हुई बातें हैं।

प्रताप-भला जो समिो, अब यह बताओ वक कैसा जी

है? मैंिे तुम्हें पवहचािा िही ां, ऐसा मुख िीका पड़ गया है।

विरजि- अब अच्छी हो जाूँऊगी, और्वध वमल गयी।

प्रताप सकेत समि गया। हा, शोक! मेरी तविक-सी

चूक िे यह प्रलय कर वदया। देर तक उसे सिता रहा और

प्रात:काल जब िह अपिे घर तो चला तो विरजि का बदि

विकवसत था। उसे विश्वास हो गया वक ललू्ल मुिे भूले िही ां

है और मेरी सुध और प्रवतिा उिके हृदय में विद्यामि है।

प्रताप िे उसके मि से िह क ूँटा विकाल वदया, जो कई

मास से खटक रहा था और वजसिे उसकी यह गवत कर

रखी थी। एक ही सप्ताह में उसका मुखड़ा स्वणव हो गया,

मािो कभी बीमार ही ि थी।

102

16

से्नह पर कर्त्ाव्य की सवजय

रोगी जब तक बीमार रहता है उसे सुध िही ां रहती वक

कौि मेरी और्वध करता है, कौि मुिे देखिे के वलए आता

है। िह अपिे ही कि मां इतिा ग्रस्त रहता है वक वकसी

दूसरे के बात का ध्याि ही उसके हृदय मां उत्पन्न िही ां होता;

पर जब िह आरोग्य हो जाता है, तब उसे अपिी शुश्रर्

करिेिालोां का ध्याि और उिके उद्योग तथा पररश्रम का

अिुमाि होिे लगता है और उसके हृदय में उिका पे्रम

तथा आदर बढ़ जाता है। ठीक यही श िृजरािी की थी।

जब तक िह स्वयां अपिे कि में मग्न थी, कमलाचरण की

व्याकुलता और किोां का अिुभि ि कर सकती थी।

विस्सिेह िह उसकी खावतरदारी में कोई अांश शेर् ि

रखती थी, परनु्त यह व्यिहार-पालि के विचार से होती थी,

ि वक सचे् पे्रम से। परनु्त जब उसके हृदय से िह व्यथा

वमट गयी तो उसे कमला का पररश्रम और उद्योग स्मरण

हुआ, और यह वचांता हुई वक इस अपार उपकार का प्रवत-

उत्तर क्या दूूँ ? मेरा धमव था सेिा-सत्कार से उन्ें सुख देती,

पर सुख देिा कैसा उलटे उिके प्राण ही की गाहक हुई ूंां!

िे तो ऐसे सचे् वदल से मेरा पे्रम करें और मैं अपिा कत्तवव्य

ही ि पालि कर सकूूँ ! ईश्वर को क्या मुूँह वदखाूँऊगी ?

सचे् पे्रम का कमल बहुधा कृपा के भाि से न्दखल जाया

करता है। जह ां, रुप यौिि, सम्पवत्त और प्रभुता तथा

स्वाभाविक सौजन्य पे्रम के बीच बोिे में अकृतकायव रहते हैं,

िह ूँ, प्राय: उपकार का जादू चल जाता है। कोई हृदय ऐसा

103

िज्र और कठोर िही ां हो सकता, जो सत्य सेिा से द्रिीभूत ि

हो जाय।

कमला और िृजरािी में वदिोांवदि प्रीवत बढ़िे लगी।

एक पे्रम का दास था, दूसरी कत्तवव्य की दासी। सम्भि ि था

वक िृजरािी के मुख से कोई बात विकले और कमलाचरण

उसको पूरा ि करे। अब उसकी तत्परता और योग्यता

उन्ी ां प्रयत्नोां में व्यय होती थीह। पढ़िा केिल माता-वपता

को धोखा देिा था। िह सदा रुख देख करता और इस

आशा पर वक यह काम उसकी प्रसन्न्त का कारण होगा,

सब कुछ करिे पर कवटबद्व रहता। एक वदि उसिे माधिी

को िुलिाड़ी से िूल चुिते देखा। यह छोटा-सा उद्याि घर

के पीछे था। पर कुटुम्ब के वकसी व्यन्दक्त को उसे पे्रम ि था,

अतएि बारहोां मास उस पर उदासी छायी रहती थी।

िृजरािी को िूलोां से हावदवक पे्रम था। िुलिाड़ी की यह

दुगववत देखी तो माधिी से कहा वक कभी-कभी इसमां पािी

दे वदया कर। धीरे-धीरे िावटका की दशा कुछ सुधर चली

और पौधोां में िूल लगिे लगे। कमलाचरण के वलए इशारा

बहुत था। ति-मि से िावटका को सुसन्दित करिे पर

उतारु हो गया। दो चतुर माली िौकर रख वलये। विविध

प्रकार के सुिर-सुिर पुष्प और पौधे लगाये जािे लगे।

भ ूँवत-भ ूँवतकी घासें और पवत्तय ूँ गमलोां में सजायी जािे

लगी, क्याररय ूँ और रविशे ठीक की जािे लगी ां। ठौर-ठौर

पर लताऍां चढ़ायी गयी ां। कमलाचरण सारे वदि हाथ में

पुस्तक वलये िुलिाड़ी में टहलता रहता था और मावलयोां

को िावटका की सजािट और बिािट की ताकीद वकया

करता था, केिल इसीवलए वक विरजि प्रसन्न होगी। ऐसे

से्नह-भक्त का जादू वकस पर ि चल जायगा। एक वदि

104

कमला िे कहा-आओ, तुम्हें िावटका की सैर कराूँऊ।

िृजरािी उसके साथ चली।

च ूँद विकल आया था। उसके उज्ज्वल प्रकाश में पुष्प

और पते्त परम शोभायमाि थे। मि-मि िायु चल रहा था।

मोवतयोां और बेले की सुगन्दन्ध मन्दस्तर्क को सुरवभत कर

रही थी ां। ऐसे समय में विरजि एक रेशमी साड़ी और एक

सुिर स्लीपर पवहिे रविशोां में टहलती दीख पड़ी। उसके

बदि का विकास िूलोां को लन्दित करता था, जाि पड़ता

था वक िूलोां की देिी है। कमलाचरण बोला-आज पररश्रम

सिल हो गया।

जैसे कुमकुमे में गुलाब भरा होता है, उसी प्रकार

िृजरािी के ियिोां में पे्रम रस भरा हुआ था। िह मुसकायी,

परनु्त कुछ ि बोली।

कमला-मुि जैसा भाग्यिाि मुिष्य सांसा में ि होगा।

विरजि-क्या मुिसे भी अवधक?

केमला मतिाला हो रहा था। विरजि को प्यार से गले

लगा वदया।

कुछ वदिोां तक प्रवतवदि का यही वियम रहा। इसी

बीच में मिोरांजि की ियी सामग्री उपन्दस्थत हो गयी।

राधाचरण िे वचिोां का एक सुिर अलबम विरजि के पास

भेजा। इसमां कई वचि चांद्रा के भी थे। कही ां िह बैठी

श्यामा को पढ़ा रही है कही ां बैठी पि वलख रही है। उसका

एक वचि पुरुर् िेर् में था। राधाचरण िोटोग्रािी की कला

में कुशल थे। विरजि को यह अलबम बहुत भाया। विर

क्या था ? विर क्या था? कमला को धुि लगी वक मैं भी

वचि खीचूूँ। भाई के पास पि वलख भेजा वक केमरा और

अन्य आिश्यक सामाि मेरे पास भेज दीवजये और अभ्यास

105

आरांभ कर वदया। घर से चलते वक सू्कल जा रहा ूंूँ पर

बीच ही में एक पारसी िोटोग्रािर की दूकाि पर आ

बैठते। तीि-चार मास के पररश्रम और उद्योग से इस कला

में प्रिीण हो गये। पर अभी घर में वकसी को यह बात

मालूम ि थी। कई बार विरजि िे पूछा भी; आजकल

वदिभर कहाूँ रहते हो। छुट्टी के वदि भी िही ां वदख पड़ते।

पर कमलाचरण िे ूंूँ-हाां करके टाल वदया।

एक वदि कमलाचरण कही ां बाहर गये हुए थे। विरजि

के जी में आया वक लाओ प्रतापचन्द्र को एक पि वलख

डालूूँ; पर बक्सखेला तो वचट्ठी का कागज ि था माधिी से

कहा वक जाकर अपिे भैया के डेस्क में से कागज विकाल

ला। माधिी दौड़ी हुई गयी तो उसे डेस्क पर वचिोां का

अलबम खुला हुआ वमला। उसिे आलबम उठा वलया और

भीतर लाकर विरजि से कहा-बवहि! दखोां, यह वचि वमला।

विरजि िे उसे चाि से हाथ में ले वलया और पवहला ही

पन्ना उलटा था वक अचम्भा-सा हो गया। िह उसी का वचि

था। िह अपिे पलांग पर चाउर ओढे़ विद्रा में पड़ी हुई थी,

बाल ललाट पर वबखरे हुए थे, अधरोां पर एक मोहिी

मुस्काि की िलक थी मािोां कोई मि-भाििा स्वप्न देख

रही है। वचि के िीचे लख हुआ था- ‘पे्रम-स्वप्न’। विरजि

चवकत थी, मेरा वचि उन्ोांिे कैसे न्दखचिाया और वकससे

न्दखचिाया। क्या वकसी िोटोग्रािर को भीतर लाये होांगे ?

िही ां ऐसा िे क्या करें गे। क्या आश्चय्र है, स्वयां ही खी ांच वलया

हो। इधर महीिोां से बहुत पररश्रम भी तो करते हैं। यवद

स्वयां ऐसा वचि खी ांचा है तो िसु्तत: प्रशांसिीय कायव वकया

है। दूसरा पन्ना उलटा तो उसमें भी अपिा वचि पाया। िह

एक साड़ी पहिे, आधे वसर पर आूँचल डाले िावटका में

106

भ्रमण कर रही थी। इस वचि के िीचे लख हुआ था-

‘िावटका-भ्रमण। तीसरा पन्ना उलटा तो िह भी अपिा ही

वचि था। िह िावटका में पृथ्वी पर बैठी हार गूूँथ रही थी।

यह वचि तीिोां में सबसे सुिर था, क्योांवक वचिकार िे

इसमें बड़ी कुशलता से प्राकृवतक रांग भरे थे। इस वचि के

िीचे वलखा हुआ था- ‘अलबेली मावलि’। अब विरजि को

ध्यािा आया वक एक वदि जब मैं हार गूूँथ रही थी तो

कमलाचरण िील के काूँटे की िाड़ी मुस्कराते हुए विकले

थे। अिश्य उसी वदि का यह वचि होगा। चौथा पन्ना उलटा

तो एक परम मिोहर और सुहाििा दृश्य वदखयी वदया।

विमवल जल से लहराता हुआ एक सरोिर था और उसके

दोांिोां तीरोां पर जहाूँ तक दृवि पहुूँचती थी, गुलाबोां की छटा

वदखयी देती थी। उिके कोमल पुष्प िायु के िोकाां से

लचके जात थे। एसका ज्ञात होता था, मािोां प्रकृवत िे हरे

आकाश में लाल तारे टाूँक वदये हैं। वकसी अांगे्रजी वचि का

अिुकरण प्रतीत होता था। अलबम के और पने्न अभी कोरे

थे।

विरजि िे अपिे वचिोां को विर देखा और सावभमाि

आिि से, जो प्रते्यक रमणी को अपिी सुिरता पर होता

है, अलबम को वछपा कर रख वदया। सांध्या को कमलाचरण

िे आकर देखा, तो अलबम का पता िही ां। हाथोां तो तोते

उड़ गये। वचि उसके कई मास के कवठि पररश्रम के िल

थे और उसे आशा थी वक यही अलबम उहार देकर विरजि

के हृदय में और भी घर कर लूूँगा। बहुत व्याकुल हुआ।

भीतर जाकर विरजि से पूछा तो उसिे साि इन्कार

वकया। बेचारा घबराया हुआ अपिे वमिोां के घर गया वक

कोई उिमां से उठा ले गया हो। पह िहाां भी िबवतयोां के

107

अवतररक्त और कुछ हाथ ि लगा। विदाि जब महाशय पूरे

विराश हो गये तोशम को विरजि िे अलबम का पता

बतलाया। इसी प्रकार वदिस सािि व्यतीत हो रहे थे।

दोिोां यही चाहते थे वक पे्रम-के्षि मे मैं आगे विकल जाूँऊ!

पर दोिोां के पे्रम में अन्तर था। कमलाचरण पे्रमोन्माद में

अपिे को भूल गया। पर इसके विरुद्व विरजि का पे्रम

कत्तवव्य की िी ांि पर न्दस्थत था। हाूँ, यह आििमय कत्तवव्य

था।

तीि िर्व व्यतीत हो गये। िह उिके जीिि के तीि

शुभ िर्व थे। चौथे िर्व का आरम्भ आपवत्तयोां का आरम्भ था।

वकतिे ही प्रावणयोां को साांसार की सुख-सामवग्रय ूँ इस

पररमाण से वमलती है वक उिके वलए वदि सदा होली और

रावि सदा वदिाली रहती है। पर वकतिे ही ऐसे हतभाग्य

जीि हैं, वजिके आिि के वदि एक बार वबजली की भाूँवत

चमककर सदा के वलए लुप्त हो जाते है। िृजरािी उन्ी ां

अभागें में थी। िसन्त की ऋतु थी। सीरी-सीरी िायु चल रही

थी। सरदी ऐसे कड़ाके की पड़ती थी वक कुओां का पािी

जम जाता था। उस समय िगरोां में पे्लग का प्रकोप हुआ।

सहस्ोां मिुष्य उसकी भेंट होिे लगे। एक वदि बहुत कड़ा

ज्वर आया, एक वगल्टी विकली और चल बसा। वगल्टी का

विकलिा मािो मृतु्य का सांदश था। क्या िैद्य, क्या डाक्टर

वकसी की कुछ ि चलती थी। सैकड़ो घरोां के दीपक बुि

गये। सहस्ोां बालक अिाथ और सहस्ोां विधिा हो गयी।

वजसको वजधर गली वमली भाग विकला। प्रते्यक मिुष्य को

अपिी-अपिी पड़ी हुई थी। कोई वकसी का सहायक और

वहतैर्ी ि था। माता-वपता बच्ोां को छोड़कर भागे। स्त्रीयोां

िे पुरर्ोां से सम्बन्ध पररत्याग वकया। गवलयोां में, सड़को पर,

108

घरोां में वजधर देन्दखये मृतकोां को ढेर लगे हुए थे। दुकािे

बि हो गयी। द्वारोां पर ताले बि हो गया। चुतुवदवक धूल

उड़ती थी। कवठिता से कोई जीिधारी चलता-विरता

वदखायी देता था और यवद कोई कायविश घर से विकला

पड़ता तो ऐसे शीघ्रता से प ि उठाता मािोां मृतु्य का दूत

उसका पीछा करता आ रहा है। सारी बस्ती उजड़ गयी।

यवद आबाद थे तो कवब्रस्ताि या िशाि। चोरोां और

डाकुओां की बि आयी। वदि –दोपहार तोल टूटते थे और

सूयव के प्रकाश में सेंधें पड़ती थी ां। उस दारुण दु:ख का

िणवि िही ां हो सकता।

बाबू श्यामचरण परम दृढ़वचत्त मिुष्य थे। गृह के चारोां

ओर महले्ल-के महले्ल शून्य हो गये थे पर िे अभी तक

अपिे घर में विभवय जमे हुए थे लेवकि जब उिका साहस

मर गया तो सारे घर में खलबली मच गयी। ग ूँि में जािे की

तैयाररय ूँ होिे लगी। मुांशीजी िे उस वजले के कुछ ग ूँि मोल

ले वलये थे और मिग ूँि िामी ग्राम में एक अच्छा-सा घर भी

बििा रख था। उिकी इच्छा थी वक पेंशि पािे पर यही ां

रूंूँगा काशी छोड़कर आगरे में कौि मरिे जाय! विरजि िे

यह सुिा तो बहुत प्रसन्न हुई। ग्राम्य-जीिि के मिोहर दृश्य

उसके िेिोां में विर रहे थे हरे-भरे िृक्ष और लहलहाते हुए

खेत हररणोां की क्रीडा और पवक्षयोां का कलरि। यह छटा

देखिे के वलए उसका वचत्त लालावयत हो रहा था।

कमलाचरण वशकार खेलिे के वलए अस्त्र-शस्त्र ठीक करिे

लगे। पर अचिाक मुन्घ्शीजी िे उसे बुलाकर कहा वक तम

प्रयाग जािे के वलए तैयार हो जाओ। प्रताप चन्द्र िहाां

तुम्हारी सहायता करेगा। ग िोां में व्यथव समय वबतािे से क्या

लाभ? इतिा सुििा था वक कमलाचरण की िािी मर गयी।

109

प्रयाग जािे से इन्कार कर वदया। बहुत देर तक मुांशीजी

उसे समिाते रहे पर िह जािे के वलए राजी ि हुआ।

विदाि उिके इि अांवतम शब्ोां िे यह विपटारा कर वदया-

तुम्हारे भाग्य में विद्या वलखी ही िही ां है। मेरा मूखवता है वक

उससे लड़ता ूंूँ!

िृजरािी िे जब यह बात सुिी तो उसे बहुत दु:ख

हुआ। िृजरािी यद्यवप समिती थी वक कमला का ध्याि

पढ़िे में िही ां लगता; पर जब-तब यह अरुवच उसे बुरी ि

लगती थी, बन्दल्क कभी-कभी उसका जी चाहता वक आज

कमला का सू्कल ि जािा अच्छा था। उिकी पे्रममय िाणी

उसके कािोां का बहुत प्यारी मालूम होती थी। जब उसे यह

ज्ञात हुआ वक कमला िे प्रयाग जािा अस्वीकार वकया है

और लालाजी बहुत समि रहे हैं, तो उसे और भी दु:ख

हुआ क्योांवक उसे कुछ वदिोां अकेले रहिा सहय था, कमला

वपता को आज्ञजे्ञल्लघांि करे, यह सह्रय ि था। माधिी को

भेजा वक अपिे भैया को बुला ला। पर कमला िे जगह से

वहलिे की शपथ खा ली थी। सोचता वक भीतर जाूँऊगा, तो

िह अिश्य प्रयाग जािे के वलए कहेगी। िह क्या जािे वक

यहाूँ हृदय पर क्या बीत रही है। बातें तो ऐसी मीठी-मीठी

करती है, पर जब कभी पे्रम-परीक्षा का समय आ जाता है

तो कत्तवव्य और िीवत की ओट में मुख वछपािे लगती है।

सत्य है वक स्त्रीयोां में पे्रम की गांध ही िही ां होती।

जब बहुत देर हो गयी और कमला कमरे से ि विकला

तब िृजरािी स्वयां आयी और बोली-क्या आज घर में आिे

की शपथ खा ली है। राह देखते-देखते ऑांखें पथरा गयी ां।

कमला- भीतर जाते भय लगता है।

110

विरजि- अच्छा चलो मैं सांग-सांग चलती ूंूँ, अब तो

िही ां डरोगे?

कमला- मुिे प्रयाग जािे की आज्ञा वमली है।

विरजि- मैं भी तुम्हारे सग चलूूँगी!

यह कहकर विरजि िे कमलाचरण की ओर आांखे

उठायी ां उिमें अांगूर के दोि लगे हुए थे। कमला हार गया।

इि मोहिी ऑखोां में ऑांसू देखकर वकसका हृदय था, वक

अपिे हठ पर दृढ़ रहता? कमेला िे उसे अपिे कां ठ से

लगा वलया और कहा-मैं जािता था वक तुम जीत जाओगी।

इसीवलए भीतर ि जाता था। रात-भर पे्रम-वियोग की बातें

होती रही ां! बार-बार ऑांखे परस्पर वमलती मािो िे विर

कभी ि वमलेगी! शोक वकसे मालूम था वक यह अांवतम भेंट

है। विरजि को विर कमला से वमलिा िसीब ि हुआ।

111

17

कमला के नाम सवरजन के पत्र

मिगाूँि

‘वप्रयतम,

पे्रम पि आया। वसर पर चढ़ाकर िेिोां से लगाया। ऐसे

पि तुम ि लख करो ! हृदय विदीणव हो जाता है। मैं वलखूां तो

असांगत िही ां। यह ूँ वचत्त अवत व्याकुल हो रहा है। क्या

सुिती थी और क्या देखती हैं ? टूटे-िूटे िूस के िोांपडे़,

वमट्टी की दीिारें , घरोां के सामिे कूडे़-करकट के बडे़-बडे़

ढेर, कीचड़ में वलपटी हुई भैंसे, दुबवल गायें, ये सब दृश्य

देखकर जी चाहता है वक कही ां चली जाऊां । मिुष्योां को

देखोां, तो उिकी सोचिीय दशा है। हवड्य ूँ विकली हुई है।

िे विपवत्त की मूवतवय ूँ और दररद्रता के जीविि वचि हैं।

वकसी के शरीर पर एक बेिटा िस्त्र िही ां है और कैसे

भाग्यहीि वक रात-वदि पसीिा बहािे पर भी कभी भरपेट

रोवटय ूँ िही ां वमलती ां। हमारे घर के वपछिाडे़ एक गड्ढा है।

माधिी खेलती थी। प ूँि विसला तो पािी में वगर पड़ी। यह ूँ

वकम्वदन्ती है वक गडे्ढ में चुडैल िहािे आया करती है और

िे अकारण यह चलिेिालोां से छेड़-छाड़ वकया करती है।

इसी प्रकार द्वार पर एक पीपल का पेड़ है। िह भूतोां का

आिास है। गडे्ढ का तो भय िही ां है, परनु्त इस पीपल का

िास सारे-सारे ग ूँि के हृदय पर ऐसा छाया हुआ है। वक

सूयावस्त ही से मागव बि हो जाता है। बालक और स्त्रीयाूँ तो

उधर पैर ही िही ां रखते! ह ूँ, अकेले-दुकेले पुरुर् कभी-

कभी चले जाते हैं, पर पे भी घबराये हुए। ये दो स्थाि मािो

उस विकृि जीिोां के केन्द्र हैं। इिके अवतररक्त सैकड़ोां

112

भूत-चुडैल वभन्न-वभन्न स्थािोां के वििासी पाये जाते हैं। इि

लोगोां को चुडै़लें दीख पड़ती हैं। लोगोां िे इिके स्वभाि

पहचाि वकये है। वकसी भूत के विर्य में कहा जाता है वक

िह वसर पर चढ़ता है तो महीिोां िही ां उतरता और कोई दो-

एक पूजा लेकर अलग हो जाता है। गाूँि िालोां में इि विर्योां

पर इस प्रकार िातावलाप होता है, मािोां ये प्रत्यक्ष घटिाूँ है।

यहाूँ तक सुिा गया हैं वक चुडै़ल भोजि-पािी म ूँगिे भी

आया करती हैं। उिकी सावड़य ूँ प्राय: बगुले के पांख की

भाूँवत उज्ज्वल होती हैं और िे बातें कुछ-कुछ िाक से

करती है। ह ूँ, गहिोां को प्रचार उिकी जावत में कम है।

उन्ी स्त्रीयोां पर उिके आक्रमणका भय रहता है, जो बिाि

शृ्रांगार वकये रांगीि िस्त्र पवहिे, अकेली उिकी दृवि मे पड़

जायें। िूलोां की बास उिको बहुत भाती है। सम्भि िही ां वक

कोई स्त्री या बालक रात को अपिे पास िूल रखकर सोये।

भूतोां के माि और प्रवतिा का अिुमाि बड़ी चतुराई से

वकया गया है। जोगी बाबा आधी रात को काली कमररया

ओढे़, खड़ाूँऊ पर सिार, ग ूँि के चारोां आर भ्रमण करते हैं

और भूले-भटके पवथकोां को मागव बताते है। साल-भर में

एक बार उिकी पूजा होती हैं। िह अब भूतोां में िही ां िरि्

देिताओां में वगिे जाते है। िह वकसी भी आपवत्त को

यथाशन्दक्त ग ूँि के भीतर पग िही ां रखिे देते। इिके विरुद्व

धोबी बाबा से ग ूँि-भर थरावता है। वजस िुक्ष पर उसका

िास है, उधर से यवद कोई दीपक जलिे के पश्चात् विकल

जाए, तो उसके प्राणोां की कुशलता िही ां। उन्ें भगािे के

वलए दो बोलत मवदरा कािी है। उिका पुजारी मांगल के

वदि उस िृक्षतले गाूँजा और चरस रख आता है। लाला

साहब भी भूत बि बैठे हैं। यह महाशय मटिारी थे। उन्ां

113

कई पांवडत असवमयोां िे मार डाला था। उिकी पकड़ ऐसी

गहरी है वक प्राण वलये वबिा िही ां छोड़ती। कोई पटिारी

यहाूँ एक िर्व से अवधक िही ां जीता। ग ूँि से थोड़ी दूर पर

एक पेड़ है। उस पर मौलिी साहब वििास करते है। िह

बेचारे वकसी को िही ां छेड़ते। ह ूँ, िृहस्पवत के वदि पूजा ि

पहुूँचायी जाए, तो बच्ोां को छेड़ते हैं।

कैसी मूखवता है! कैसी वमथ्या भन्दक्त है! ये भाििाऍां

हृदय पर िज्रलीक हो गयी है। बालक बीमार हुआ वक भूत

की पूजा होिे लगी। खेत-खवलहाि में भूत का भोग जहाूँ

देन्दखये, भूत-ही-भूत दीखते हैं। यह ूँ ि देिी है, ि देिता।

भूतोां का ही साम्राज् हैं। यमराज यह ूँ चरण िही ां रखते, भूत

ही जीि-हरण करते हैं। इि भािोां का वकस प्रकार सुधार हो

? वकमवधकम

तुम्हारी

विरजि

(2)

मिगाूँि

प्यारे,

बहुत वदिोां को पश्चात् आपकी पेरम-पिी प्राप्त हुई।

क्या सचमुच पि वलखिे का अिकाश िही ां ? पि क्या

वलखा है, मािो बेगार टाली है। तुम्हारी तो यह आदत ि थी।

क्या िह ूँ जाकर कुछ और हो गये ? तुम्हें यह ूँ से गये दो

मास से अवधक होते है। इस बीच मां कई छोटी-बड़ी छुवट्टय ूँ

पड़ी, पर तुम ि आये। तुमसे कर बाूँधकर कहती ूंूँ- होली

की छुट्टी में अिश्य आिा। यवद अब की बार तरसाया तो

मुिे सदा उलाहिा रहेगा।

114

यह ूँ आकर ऐसी प्रतीत होता है, मािो वकसी दूसरे

सांसार में आ गयी ूंूँ। रात को शयि कर रही थी वक

अचािक हा-हा, ूं-ूं का कोलाहल सुिायी वदया। चौांककर

उठा बैठी! पूछा तो ज्ञात हुआ वक लड़के घर-घर से उपले

और लकड़ी जमा कर रहे थे। होली माता का यही आहार

था। यह बेढांगा उपद्रि जहाूँ पहुूँच गया, ईांधि का वदिाला

हो गया। वकसी की शन्दक्त िही जो इस सेिा को रोक सके।

एक िम्बरदार की मवड़या लोप हो गयी। उसमां दस-बारह

बैल सुगमतापूिवक बाूँधे जा सकते थे। होली िाले कई वदि

घात में थे। अिसर पाकर उड़ा ले गये। एक कुरमी का

िोांपड़ा उड़ गया। वकतिे उपले बेपता हो गये। लोग अपिी

लकवड़याूँ घरोां में भर लेते हैं। लालाजी िे एक पेड़ ईांधि के

वलए मोल वलया था। आज रात को िह भी होली माता के

पेट में चला गया। दो-तील घरोां को वकिाड़ उतर गये।

पटिारी साहब द्वार पर सो रहे थे। उन्ें भूवम पर ढकेलकर

लोगे चारपाई ले भागे। चतुवदवक ईांधि की लूट मची है। जो

िसु्त एक बार होली माता के मुख में चली गयी, उसे लािा

बड़ा भारी पाप है। पटिारी साहब िे बड़ी धमवकयाां दी। मैं

जमाबिी वबगाड़ दूूँगा, खसरा िठूाकर दूूँगा, पर कुछ

प्रभाि ि हुआ! यहाूँ की प्रथा ही है वक इि वदिोां िाले जो

िसु्त पा जायें, विविवघ्न उठा ले जायें। कौि वकसकी पुकार

करे ? िियुिक पुि अपिे वपता की आांख बाकर अपिी ही

िसु्त उठिा देता है। यवद िह ऐसा ि करे, तो अपिे समाज

मे अपमावित समिाजा जाए।

खेत पक गये है।, पर काटिे में दो सप्ताह का विलम्ब

है। मेरे द्वार पर से मीलोां का दृश्य वदखाई देता है। गेूंूँ और

जौ के सुथरे खेतोां के वकिारे-वकिारे कुसुम के अरुण और

115

केसर-िणव पुष्पोां की पांन्दक्त परम सुहाििी लगती है। तोते

चतुवदवक मूँडलाया करते हैं।

माधिी िे यहाूँ कई सन्दखयाूँ बिा रखी हैं। पड़ोस में

एक अहीर रहता है। राधा िाम है। गत िर्व माता-वपता पे्लगे

के ग्रास हो गये थे। गृहस्थी का कुल भार उसी के वसर पर

है। उसकी स्त्री तुलसा प्राय: हमारे यहाूँ आती हैं। िख से

वशख तक सुिरता भरी हुई है। इतिी भोली हैवक जो

चाहता है वक घण्ोां बाते सुिा करुूँ । माधिी िे इससे

बवहिापा कर रखा है। कल उसकी गुवड़योां का वििाह हैं।

तुलसी की गुवड़या है और माधिी का गुड्ा। सुिती ूंूँ,

बेचारी बहुत विधिव है। पर मैंिे उसके मुख पर कभी

उदासीिता िही ां देखी। कहती थी वक उपले बेचकर दो

रुपये जमा कर वलये हैं। एक रुपया दायज दूूँगी और एक

रुपये में बरावतयोां का खािा-पीिा होगा। गुवड़योां के

िस्त्राभूर्ण का भार राधा के वसर हैं! कैसा सरल सांतोर्मय

जीिल है!

लो, अब विदा होती ूंूँ। तुम्हारा समय विरथवक बातो में

िि हुआ। क्षमा करिा। तुम्हें पि वलखिे बैठती ूंूँ, तो

लेखिी रुकती ही िही ां। अभी बहुतेरी बातें वलखिे को पड़ी

हैं। प्रतापचन्द्र से मेरी पालागि कह देिा।

तुम्हारी

विरजि

(3)

मिगाूँि

प्यारे,

तुम्हारी, पे्रम पविका वमली। छाती से लगायी। िाह!

चोरी और मुूँहजोरी। अपिे ि आिे का दोर् मेरे वसर धरते

116

हो ? मेरे मि से कोई पूछे वक तुम्हारे दशिव की उसे

वकतिी अवभलार्ा प्रवतवदि व्याकुलता के रुप में पररणत

होती है। कभी-कभी बेसुध हो जाती ूंूँ। मेरी यह दशा थोड़ी

ही वदिोां से होिे लगी है। वजस समय यहाूँ से गये हो, मुिे

ज्ञाि ि था वक िहाूँ जाकर मेरी दलेल करोगे। खैर, तुम्ही ां

सच और मैं ही िठू। मुिे बड़ी प्रसन्नता हुई वक तुमिे मरे

दोिोां पि पसि वकये। पर प्रतापचन्द्र को व्यथव वदखाये। िे

पि बड़ी असािधािी से वलखे गये है। सम्भि है वक

अशुवद्वयाूँ रह गयी होां। मिे विश्वास िही ां आता वक प्रताप िे

उन्ें मूल्यिाि समिा हो। यवद िे मेरे पिोां का इतिा आदर

करते हैं वक उिके सहार से हमारे ग्राम्य-जीिि पर कोई

रोचक विबन्ध वलख सकें , तो मैं अपिे को परम भाग्यिाि्

समिती ूंूँ।

कल यहाूँ देिीजी की पूजा थी। हल, चक्की, पुर चूले्

सब बि थे। देिीजी की ऐसी ही आज्ञा है। उिकी आज्ञा का

उल्लघांि कौि करे ? हुक्का-पािी बि हो जाए। साल-भर

मां यही एक वदि है, वजस गाूँिाले भी छुट्टी का समिते हैं।

अन्यथा होली-वदिाली भी प्रवत वदि के आिश्यक कामोां को

िही ां रोक सकती। बकरा चढा। हिि हुआ। सतू्त न्दखलाया

गया। अब गाूँि के बचे्-बचे् को पूणव विश्वास है वक पे्लग

का आगमि यहाूँ ि हो सकेगा। ये सब कौतुक देखकर

सोयी थी। लगभग बारह बजे होांगे वक सैंकड़ोां मिुष्य हाथ में

मशालें वलये कोलाहल मचाते विकले और सारे गाूँि का

िेरा वकया। इसका यह अथव था वक इस सीमा के भीतर

बीमारी पैर ि रख सकेगी। िेरे के सप्ताह होिे पर कई

मिुष्य अन्य ग्राम की सीमा में घुस गये और थोडे़ िूल,पाि,

चािल, लौांग आवद पदाथव पृथ्वी पर रख आये। अथावत् अपिे

117

ग्राम की बला दूसरे गाूँि के वसर डाल आये। जब ये लोग

अपिा कायव समाप्त करके िहाूँ से चलिे लगे तो उस

गाूँििालोां को सुिगुि वमल गयी। सैकड़ोां मिुष्य लावठयाूँ

लेकर चढ़ दौडे़। दोिोां पक्षिालोां में खूब मारपीट हुई। इस

समय गाूँि के कई मिुष्य हल्दी पी रहे हैं।

आज प्रात:काल बची-बचायी रस्में पूरी हुई, वजिको

यहाूँ कढ़ाई देिा कहते हैं। मेरे द्वार पर एक भट्टा खोदा गया

और उस पर एक कड़ाह दूध से भरा हुआ रखा गया।

काशी िाम का एक भर है। िह शरीर में भभूत रमाये

आया। गाूँि के आदमी टाट पर बैठे। शांख बजिे लगा।

कड़ाह के चतुवदवक माला-िूल वबखेर वदये गये। जब

कहाड़ में खूब उबाल आया तो काशी िट उठा और जय

कालीजी की कहकर कड़ाह में कूद पड़ा। मैं तो समिी

अब यह जीवित ि विकलेगा। पर पाूँच वमिट पश्चात् काशी

िे विर छलाूँग मारी और कड़ाह के बाहर था। उसका बाल

भी बाूँका ि हुआ। लोगोां िे उसे माला पहिायी। िे कर

बाूँधकर पूछिे लगे-महराज! अबके िर्व खेती की उपज

कैसी होगी ? बीमारी अिेगी या िही ां ? गाूँि के लोग कुशल

से रहेंगे ? गुड़ का भाि कैसा रहेगा ? आवद। काशी िे इि

सब प्रश्नोां के उत्तर स्पि पर वकां वचत् रहस्यपूणव शब्ोां में

वदये। इसके पश्चात् सभा विसवजवत हुई। सुिती ूंूँ ऐसी वक्रया

प्रवतिर्व होती है। काशी की भविष्यिावणयाूँ यब सत्य वसद्व

होती हैं। और कभी एकाध असत्य भी विकल जाय तो

काशी उिा समाधाि भी बड़ी योग्यता से कर देता है।

काशी बड़ी पहुूँच का आदमी है। गाूँि में कही ां चोरी हो,

काशी उसका पता देता है। जो काम पुवलस के भेवदयोां से

पूरा ि हो, उसे िह पूरा कर देता है। यद्यवप िह जावत का

118

भर है तथावप गाूँि में उसका बड़ा आदर है। इि सब

भन्दक्तयोां का पुरस्कार िह मवदरा के अवतररक्त और कुछ

िही ां लेता। िाम विकलिाइये, पर एक बोतल उसको भेंट

कीवजये। आपका अवभयोग न्यायालय में हैं; काशी उसके

विजय का अिुिाि कर रहा है। बस, आप उसे एक बोतल

लाल जल दीवजये।

होली का समय अवत विकट है ! एक सप्ताह से

अवधक िही ां। अहा! मेरा हृदय इस समय कैसा न्दखल रहा है

? मि में आििप्रद गुदगुदी हो रही है। आूँखें तुम्हें देखिे

के वलए अकुला रही है। यह सप्ताह बड़ी कवठिाई से

कटेगा। तब मैं अपिे वपया के दशवि पाूँऊगी।

तुम्हारी

विरजि

(4)

मिगाूँि

प्यारे

तुम पार्ाणहृदय हो, कट्टर हो, से्नह-हीि हो, विदवय हो,

अकरुण हो िठूो हो! मैं तुम्हें और क्या गावलयाूँ दूूँ और क्या

कोसूूँ ? यवद तुम इस क्षण मेरे समु्मख होते, तो इस

िज्रहृदयता का उत्तर देती। मैं कह रही ूंूँ, तुतम दगाबाज

हो। मेरा क्या कर लोगे ? िही ां आते तो मत आओ। मेरा

प्रण लेिा चाहते हो, ले लो। रुलािे की इच्छा है, रुलाओ।

पर मैं क्योां रो ूँऊ ! मेरी बला रोिे। जब आपको इतिा ध्याि

िही ां वक दो घणे् की यािा है, तविक उसकी सुवध लेता

आूँऊ, तो मुिे क्या पड़ी है वक रो ूँऊ और प्राण खो ूँऊ ?

ऐसा क्रोध आ रहा है वक पि िाड़कर िें क दूूँ और

विर तुमसे बात ि करुां । हाूँ ! तुमिे मेरी सारी अवभलार्ाएां ,

119

कैसे घूल में वमलायी हैं ? होली! होली ! वकसी के मुख से

यह शब् विकला और मेरे हृदय में गुदगुदी होिे लगी, पर

शोक ! होली बीत गयी और मैं विराश रह गयी। पवहले यह

शब् सुिकर आिि होता था। अब दु:ख होता है। अपिा-

अपिा भाग्य है। गाूँि के भूखे-िांगे लूँगोटी में िाग खेलें,

आिि मिािें, रांग उड़ािें और मैं अभावगिी अपिी

चारपाइर पर सिेद साड़ी पवहिे पड़ी रूंूँ। शपथ लो जो

उस पर एक लाल धब्बा भी पड़ा हो। शपथ लें लो जो मैंिे

अबीर और गुलाल हाथ से छुई भी हो। मेरी इि से बिी हुई

अबीर, केिडे़ में घोली गुलाल, रचकर बिाये हुए पाि सब

तुम्हारी अकृपा का रोिा रो रहे हैं। माधिी िे जब बहुत हठ

की, तो मैंिे एक लाल टीका लगिा वलया। पर आज से इि

दोर्ारोपणोां का अन्त होता है। यवद विर कोई शब्

दोर्ारोपण का मुख से विकला तो जबाि काट लूूँगी।

परसोां सायांकाल ही से गाूँि में चहल-पहल मचिे

लगी। िियुिकोां का एक दल हाथ में डि वलये, अश्लील

शब् बकते द्वार-द्वार िेरी लगािे लगा। मुिे ज्ञाि ि था वक

आज यहाूँ इतिी गावलयाूँ खािी पड़ेंगी। लिाहीि शब्

उिके मुख से इस प्रकार बेधड़क विकलते थे जैसे िूल

िड़ते होां। लिा और सांकोच का िाम ि था। वपता, पुि के

समु्मख और पुि, वपता के सम्ख गावलयाूँ बक रहे थे। वपता

ललकार कर पुि-िधू से कहता है- आज होली है! िधू घर

में वसर िीचा वकये हुए सुिती है और मुस्करा देती है। हमारे

पटिारी साहब तो एक ही महात्म विकले। आप मवदरा में

मस्त, एक मैली-सी टोपी वसर पर रखे इस दल के िायक

थे। उिकी बूं-बेवटयाूँ उिकी अश्लीलता के िेग से ि बच

सकी ां। गावलयाूँ खाओ और हूँसो। यवद बदि पर तविक भी

120

मैल आये, तो लोग समिेंग वक इसका मुहरवम का जन्म हैं

भली प्रथा है।

लगभग तीि बजे रावि के िुण्ड होली माता के पास

पहुूँचा। लड़के अवग्न-क्रीड़ावद में तत्पर थे। मैं भी कई स्त्रीयोां

के पास गयी, िहाूँ स्त्रीयाूँ एक ओर होवलयाूँ गा रही थी ां।

विदाि होली म आग लगािे का समय आया। अवग्न लगते ही

ज्वाल भड़की और सारा आकाश स्वणव-िणव हो गया। दूर-

दूर तक के पेड़-पते्त प्रकावशत हो गय। अब इस अवग्न-रावश

के चारोां ओर ‘होली माता की जय!’ वचल्ला कर दौड़िे लगे।

सबे हाथोां में गेूंूँ और जौ वक बावलयाूँ थी ां, वजसको िे इस

अवग्न में िें कते जाते थे।

जब ज्वाला बहुत उते्तवजत हुई, तो लेग एक वकिारे

खडे़ होकर ‘कबीर’ कहिे लगे। छ: घणे् तक यही दशा

रही। लकड़ी के कुिोां से चटाकपटाक के शब् विकल रहे

थे। पशुगण अपिे-अपिे खूूँटोां पर भय से वचल्ला रहे थे।

तुलसा िे मुिसे कहा- अब की होली की ज्वाला टेढ़ी जा

रही है। कुशल िही ां। जब ज्वाला सीधी जाती है, गाूँि में

साल-भर आिि की बधाई बजती है। परनु्त ज्वाला का

टेढ़ी होिा अशुभ है विदाि लपट कम होिे लगी। आूँच की

प्रखरता मि हुई। तब कुछ लोग होली के विकट आकर

ध्यािपूिवक देखिे लगे। जैसे कोइ िसु्त ढूूँढ़ रहे होां। तुलसा

िे बतलाया वक जब बसन्त के वदि होली िीिां पड़ती है, तो

पवहले एक एरण्ड गाड़ देते हैं। उसी पर लकड़ी और

उपलोां का ढेर लगाया जाता है। इस समय लोग उस एरण्ड

के पौधे का ढूूँढ रहे हैं। उस मिुष्य की गणिा िीरोां में होती

है जो सबसे पहले उस पौधे पर ऐसा लक्ष्य करे वक िह टूट

कर दूज जा वगर। प्रथम पटिारी साहब पैंतरे बदलते आये,

121

पर दस गज की दूसी से िाूँककर चल वदये। तब राधा हाथ

में एक छोटा-सा सोांटा वलये साहस और दृढ़तापूिवक आगे

बढ़ा और आग में घुस कर िह भरपूर हाथ लगाया वक पौधा

अलग जा वगरा। लोग उि टुकड़ोां को लूटि लगे। माथे पर

उसका टीका लगाते हैं और उसे शुभ समिते हैं।

यहाूँ से अिकाश पाकर पुरुर्-मण्डली देिीजी के

चबूतरे की ओर बढ़ी। पर यह ि समििा, यहाूँ देिीजी की

प्रवतिा की गई होगी। आज िे भी गवजयाूँ सुििा पसि

करती है। छोटे-बडे़ सब उन्ां अश्लील गावलयाूँ सुिा रहे थे।

अभी थोडे़ वदि हुए उन्ी ां देिीजी की पूजा हुई थी। सच तो

यह है वक गाूँिोां में आजकल ईश्वर को गाली देिा भी क्षम्य

है। माता-बवहिोां की तो कोई गणिा िही ां।

प्रभात होते ही लाला िे महाराज से कहा- आज कोई

दो सेर भांग वपसिा लो। दो प्रकारी की अलग-अलग बििा

लो। सलोिी आ मीठी। महारा ज विकले और कई मिुष्योां

को पकड़ लाये। भाांग पीसी जािे लगी। बहुत से कुल्ड़

मूँगाकर क्रमपूिवक रखे गये। दो घड़ोां मां दोिो प्रकार की

भाांग रखी गयी। विर क्या था, तीि-चार घण्ोां तक

वपयक्कड़ोां का ताूँता लगा रहा। लोग खूब बखाि करते थे

और गदवि वहला- वहलाकर महाराज की कुशलता की

प्रशांसा करते थे। जहाूँ वकसी िे बखाि वकया वक महाराज िे

दूसरा कुल्ड़ भरा बोले-ये सलोिी है। इसका भी स्वाद

चखलो। अजी पी भी लो। क्या वदि-वदि होली आयेगी वक

सब वदि हमारे हाथ की बूटी वमलेगी ? इसके उत्तर में

वकसाि ऐसी दृवि से ताकता था, मािो वकसी िे उसे

सांजीिि रस दे वदया और एक की जगह तीि-तीि कुल्ड़

चट कर जाता। पटिारी कक जामाता मुन्घ्शी जगदम्बा

122

प्रसाद साहब का शुभागमि हुआ है। आप कचहरी में

अरायजििीस हैं। उन्ें महाराज िे इतिी वपला दी वक आपे

से बाहर हो गये और िाचिे-कूदिे लगे। सारा गाूँि उिसे

पोदरी करता था। एक वकसाि आता है और उिकी ओर

मुस्कराकर कहता है- तुम यहाूँ ठाढ़ी हो, घर जाके भोजि

बिाओ, हम आित हैं। इस पर बडे़ जोर की हूँसी होती है,

काशी भर मद में माता लट्ठा कने्ध पर रखे आता और

सभान्दस्थत जिोां की ओर बिािटी क्रोध से देखकर गरजता

है- महाराज, अच्छी बात िही ां है वक तुम हमारी ियी

बहुररया से मजा लूटते हो। यह कहकर मुन्घ्शीजी को छाती

से लगा लेता है।

मुांशीजी बेचारे छोटे कद के मिुष्य, इधर-उधर

िड़िड़ाते हैं, पर िक्कारखािे मे तूती की आिाज कौि

सुिता है ? कोई उन्ें प्यार करता है और ग़ले लगाता है।

दोपहर तक यही छेड़-छाड़ हुआ की। तुलसा अभी तक

बैठी हुई थी। मैंिे उससे कहा- आज हमारे यहाूँ तुम्हारा

न्योता है। हम तुम सांग खायेंगी। यह सुिते ही महरावजि दो

थावलयोां में भोजि परोसकर लायी। तुलसा इस समय

न्दखड़की की ओर मुूँह करके खड़ी थी। मैंिे जो उसको हाथ

पकड़कर अपिी और खी ांचा तो उसे अपिी प्यारी-प्यारी

ऑांखोां से मोती के सोिे वबखेरते हुए पाया। मैं उसे गले

लगाकर बोली- सखी सच-सच बतला दो, क्योां रोती हो?

हमसे कोइर दुराि मत रखो। इस पर िह और भी वससकिे

लगी। जब मैंिे बहुत हठ की, उसिे वसर घुमाकर कहा-

बवहि! आज प्रात:काल उि पर विशाि पड़ गया। ि जािे

उि पर क्या बीत रही होगी। यह कहकर िह िूट-िूटकर

रोिे लगी। ज्ञात हुआ वक राधा के वपता िे कुछ ऋण वलया

123

था। िह अभी तक चुका ि सका था। महाजि िे सोचा वक

इसे हिालात ले चलूूँ तो रुपये िसूल हो जायें। राधा कन्नी

काटता विरता था। आज दे्ववर्योां को अिसर वमल गया

और िे अपिा काम कर गये। शोक ! मूल धि रुपये से

अवधक ि था। प्रथम मुि ज्ञात होता तो बेचारे पर त्योहार के

वदि यह आपवत्त ि आिे पाती। मैंिे चुपके से महाराज को

बुलाया और उन्ें बीस रुपये देकर राधा को छुड़ािे के वलये

भेजा।

उस समय मेरे द्वार पर एक टाट वबछा वदया गया था।

लालाजी मध्य में कालीि पर बैठे थे। वकसाि लोग घुटिे

तक धोवतयाूँ बाूँधे, कोई कुती पवहिे कोई िग्न देह, कोई

वसर पर पगड़ी बाूँधे और िांगे वसर, मुख पर अबीर लगाये-

जो उिके काले िणव पर विशेर् छटा वदखा रही थी- आिे

लगे। जो आता, लालाजी के पैंरोां पर थोड़ी-सी अबीर रख

देत। लालाली भी अपिे तश्तरी में से थोड़ी-सी अबीर

विकालकर उसके माथे पर लगा देते और मुसु्कराकर कोई

वदल्लगी की बात कर देते थे। िह विहाल हो जाता, सादर

प्रणाम करता और ऐसा प्रसन्न होकर आ बैठता, मािो

वकसी रांक िे रत्न- रावश पायी है। मुिे स्पप्न में भी ध्याि ि

था वक लालाजी इि उजड् देहावतयोां के साथ बैठकर ऐसे

आिि से ितावलाप कर सकते हैं। इसी बीच में काशी भर

आया। उसके हाथ में एक छोटी-सी कटोरी थी। िह उसमें

अबीर वलए हुए था। उसिे अन्य लोगोां की भाूँवत लालाजी के

चरणोां पर अबीर िही ां रखी, वकां तु बड़ी धृिता से मुट्ठी-भर

लेकर उिके मुख पर भली-भाूँवत मल दी। मैं तो डरी, कही ां

लालाजी रुि ि हो जायूँ। पर िह बहुत प्रसन्न हुए और स्वयां

उन्ोांिे भी एक टीका लगािे के स्थाि पर दोिोां हाथोां से

124

उसके मुख पर अबीर मली। उसके सी उसकी ओर इस

दृवि से देखते थे वक विस्सांदेह तू िीर है और इस योग्य है

वक हमारा िायक बिे। इसी प्रकार एक-एक करके दो-

ढाई सौ मिुष्य एकि हुए ! अचािक उन्ोांिे कहा-आज

कही ां राधा िही ां दीख पड़ता, क्या बात है ? कोई उसके घर

जाके देखा तो। मुांशी जगदम्बा प्रसाद अपिी योग्यता

प्रकावशत करिे का अच्छा अिसी देखकर बोले उठे-हजूर

िह दिा 13 िां. अवलि ऐक्ट (अ) में वगरफ्तार हो गया।

रामदीि पाांडे िे िारण् जारी करा वदया। हरीच्छा से

रामदीि पाांडे भी िहाूँ बैठे हुए थे। लाला सिे उिकी ओर

परम वतरस्कार दृवि से देखा और कहा- क्योां पाांडेजी, इस

दीि को बिीगृह में बि करिे से तुम्हारा घर भर जायगा ?

यही मिुष्यता और वशिता अब रह गयी है। तुम्हें तविक भी

दया ि आयी वक आज होली के वदि उसे स्त्री और बच्ोां से

अलग वकया। मैं तो सत्य कहता ूंूँ वक यवद मैं राधा होता,

तो बिीगृह से लौटकर मेरा प्रथम उद्योग यही होता वक

वजसिे मुिे यह वदि वदखाया है, उसे मैं भी कुछ वदिोां

हलदी वपलिा दूूँ। तुम्हें लाज िही ां आती वक इतिे बडे़

महाजि होकर तुमिे बीस रुपये के वलए एक दीि मिुष्य

को इस प्रकार कि में डाला। डूब मरिा था ऐसे लोभ पर!

लालाजी को िसु्तत: क्रोध आ गया था। रामदीि ऐसा

लन्दित हुआवक सब वसट्टी-वपट्टी भूल गयी। मुख से बात ि

विकली। चुपके से न्यायालय की ओर चला। सब-के-सब

कृर्क उसकी ओर क्रोध-पूणव दृवि से देख रहे थे। यवद

लालाजी का भय ि होता तो पाांडेजी की हड्ी-पसली िही ां

चूर हो जाती।

125

इसके पश्चात लोगोां िे गािा आरम्भ वकया। मद में तो

सब-के-सब गाते ही थे, इस पर लालजी के भ्रातृ-भाि के

सम्माि से उिके मि और भी उत्सावहत हो गये। खूब जी

तोड़कर गाया। डिें तो इतिे जोर से बजती थी ां वक अब

िटी और तब िटी ां। जगदम्बाप्रसाद िे दुहरा िशा चढ़ाया

था। कुछ तो उिकें मि में स्वत: उमांग उत्पन्न हुई, कुछ

दूसरोां िे उते्तजिा दी। आप मध्य सभा में खड़ा होकर

िाचिे लगे; विश्वास मािो, िाचिे लग। मैंिें अचकि, टोपी,

धोती और मूूँछोांिाले पुरुर् को िाचते ि देखा था। आध घणे्

तक िे बिरोां की भाूँवत उछलते-कूदते रहे। विदाि मद िे

उन्ें पृथ्वी पर वलटा वदया। तत्पश्चात् एक और अहीर उठा

एक अहीररि भी मण्डली से विकली और दोिोां चौक में

जाकर िाचिे लगे। दोिोां िियुिक िुतीले थे। उिकी कमर

और पीठ की लचक विलक्षण थी। उिके हाि-भाि, कमर

का लचकिा, रोम-रोम का िड़किा, गदवि का मोड़, अांगोां

का मरोड़ देखकर विस्मय होता थाां बहुत अभ्यास और

पररश्रम का कायव है।

अभी यहाूँ िाच हो ही रहा था वक सामिे बहुत-से

मिुष्य लांबी-लांबी लावठयाूँ कन्धोां पर रखे आते वदखायी

वदये। उिके सांग डि भी था। कई मिुष्य हाथोां से िाूँि

और मजीरे वलये हुए थे। िे गाते-बजाते आये और हमारे

द्वार पर रुके। अकस्मात तीि- चार मुिष्योां िे वमलकर ऐसे

आकाशभेदी शब्ोां में ‘अररर...कबीर’ की ध्ववि लगायी वक

घर काूँप उठा। लालाजी विकले। ये लोग उसी गाूँि के थे,

जहाूँ विकासी के वदि लावठयाूँ चली थी ां। लालजी को देखते

ही कई पुरुर्ोां िे उिके मुख पर अबीर मला। लालाजी िे

भी प्रतु्यत्तर वदया। विर लोग िशव पर बैठा। इलायची और

126

पाि से उिका सम्माि वकया। विर गािा हुआ। इस

गाूँििालोां िे भी अबीर मली ां और मलिायी। जब ये लेग

वबदा होिे लगे, तो यह होली गायी:

‘सदा आिि रहे वह द्वारे मोहि खेलें होरी।’

वकतिा सुहाििा गीत है! मुिे तो इसमें रस और भाि

कूट-कूटकर भारा हुआ प्रतीत होता है। होली का भाि कैसे

साधारण और सांवक्षपत शब्ोां में प्रकट कर वदया गया है। मैं

बारम्बार यह प्यारा गीत गाती ूंूँ, आिि लूटती ूंूँ। होली

का त्योहार परस्पर पे्रम और मेल बढ़ािे के वलए है। सम्भि

सि था वक िे लोग, वजिसे कुछ वदि पहले लावठयाूँ चली

थी ां, इस गाूँि में इस प्रकार बेधड़क चले आते। पर यह होली

का वदि है। आज वकसी को वकसी से दे्वर् िही ां है। आज

पे्रम और आिि का स्वराज् है। आज के वदि यवद दुखी

हो तो परदेशी बालम की अबला। रोिे तो युिती विधिा !

इिके अवतररक्त और सबके वलए आिि की बधाई है।

सन्ध्या-समय गाूँि की सब स्त्रीयाूँ हमारे यहाूँ खेलिे

आयी ां। मातजी िे उन्ें बडे़ आदर से बैठाया। रांग खेला,

पाि बाूँटा। मैं मारे भय के बाहर ि विकली। इस प्रकार

छुट्टी वमली। अब मुिे ध्याि आया वक माधिी दोपहर से

गायब है। मैंिे सोचा था शायद गाूँि में होली खेलिे गयी हो।

परनु्त इि स्त्रीयोां के सांग ि थी। तुलसा अभी तक चुपचाप

न्दखड़की की ओर मुूँह वकये बैठी थी। दीपक में बत्ती पड़ी

रही थी वक िह अकस्मात् उठी, मेरे चरणोां पर वगर पड़ी

और िूट-िूटकर रोिे लगी। मैंिे न्दखड़की की ओर िाूँका

तो देखती ूंूँ वक आगे-आगे महाराज, उसके पीछे राधा

127

और सबसे पीछे रामदीि पाांडे चल रहे हैं। गाूँि के बहत से

आदमी उिकेस सांग है। राधा का बदि कुम्हलाया हुआ है।

लालाजी िे ज्ोांही सुिा वक राधा आ गया, चट बाहर विकल

आये और बडे़ से्नह से उसको कण्ठ से लगा वलया, जैसे

कोई अपिे पुि का गले से लगाता है। राधा वचल्ला-

वचल्लाकर के चरणोां में वगर पड़ी। लालाजी िे उसे भी बडे़

पे्रम से उठाया। मेरी ऑांखोां में भी उस समय ऑांसू ि रुक

सके। गाूँि के बहुत से मिुष्य रो रहे थे। बड़ा करुणापूणव

दृश्य था। लालाजी के िेिोां में मैंिे कभी ऑांसू िे देखे थे। िे

इस समय देखे। रामदीि पाणे्डय मस्तक िुकाये ऐसा खड़ा

था, मािा गौ-हत्या की हो। उसिे कहा-मरे रुपये वमल गये,

पर इच्छा है, इिसे तुलसा के वलए एक गाय ले दूूँ।

राधा और तुलसा दोिोां अपिे घर गये। परनु्त थोड़ी देर

में तुलसा माधिी का हाथ पकडे़ हूँसती हुई मरे घर आयी

बोली- इिसे पूछो, ये अब तक कहाूँ थी ां?

मैं- कहाूँ थी ? दोपहर से गायब हो ?

माधिी-यही ां तो थी।

मैं- यहाूँ कहाूँ थी ां ? मैंिे तो दोपहर से िही ां देखा। सच-

सख् बता दो मैं रुि ि हो ूँऊगी।

माधिी- तुलसा के घर तो चली गयी थी।

मैं- तुलसा तो यहाूँ बैठी है, िहाूँ अकेली क्या सोती रही ां

?

तुलसा- (हूँसकर) सोती काहे को जागती रह। भोजि

बिाती रही, बरति चौका करती रही।

माधिी- हाूँ, चौका-बरतर करती रही। कोई तुम्हार

िौकर लगा हुआ है ि!

128

ज्ञात हुअ वक जब मैंिे महाराज को राधा को छुड़ािे के

वलए भेजा था, तब से माधिी तुलसा के घर भोजि बिािे में

लीि रही। उसके वकिाड़

खोले। यहाूँ से आटा, घी, शक्कर सब ले गयी। आग जलायी

और पूवड़याूँ, कचौवड़याूँ, गुलगुले और मीठे समोसे सब

बिाये। उसिे सोचा थावक मैं यह सब बताकर चुपके से

चली जाूँऊगी। जब राधा और तुलसा जायेंगे, तो विन्दस्मत

होांगे वक कौि बिा गया! पर स्यात् विलम्ब अवधक हो गया

और अपराधी पकड़ वलया गया। देखा, कैसी सुशीला बाला

है।

अब विदा होती ूंूँ। अपराध क्षमा करिा। तुम्हारी चेरी

ूंूँ जैसे रखोगे िैसे रूंूँगी। यह अबीर और गुलाल भेजती ूंूँ।

यह तुम्हारी दासी का उपहार है। तुम्हें हमारी शपथ वमथ्या

सभ्यता के उमांग में आकर इसे िें क ि देिा, िही ां तो मेरा

हृदय दुखी होगा।

तुम्हारी,

विरजि

(5)

मिगाूँि

‘प्यारे!

तुम्हारे पि िे बहुत रुलाया। अब िही ां रहा जाता। मुिे

बुला लो। एक बार देखकर चली आूँऊगी। सच बताओां,

यवद में तुम्हारे यहाूँ आ जाऊां , तो हूँसी तो ि उड़ाओगे? ि

जािे मि मे क्या समिोग ? पर कैस आऊां ? तुम लालाजी

को वलखो खूब! कहेंगे यह ियी धुि समायी है।

कल चारपाई पर पड़ी थी। भोर हो गया था, शीतल

मि पिि चल रहा था वक स्त्रीयाूँ गािे का शब् सुिायी

129

पड़ा। स्त्रीयाूँ अिाज का खेत काटिे जा रही थी ां। िाूँककर

देखा तो दस-दस बारह-बारह स्त्रीयोां का एक-एक गोल

था। सबके हाथोां में हांवसया, कन्धोां पर गावठयाूँ बाूँधिे की

रस््स ओर वसर पर भुिे हुए मटर की छबड़ी थी। ये इस

समय जाती हैं, कही ां बारह बजे लौांटेगी। आपस में गाती,

चुहलें करती चली जाती थी ां।

दोपहर तक बड़ी कुशलता रही। अचािक आकश

मेघाच्छन्न हो गया। ऑांधी आ गयी और ओले वगरिे लगे।

मैंिे इतिे बडे़ ओले वगरते ि देखे थे। आलू से बडे़ और ऐसी

तेजी से वगरे जैसे बिूक से गोली। क्षण-भर में पृथ्वी पर

एक िुट ऊां चा वबछािि वबछ गया। चारोां तरि से कृर्क

भागिे लगे। गायें, बवकरयाूँ, भेड़ें सब वचल्लाती हुई पेड़ोां की

छाया ढूूँढ़ती, विरती थी ां। मैं डरी वक ि-जािे तुलसा पर क्या

बीती। आांखे िैलाकर देखा तो खुले मैदाि में तुलसा, राधा

और मोवहिी गाय दीख पड़ी ां। तीिोां घमासाि ओले की मार

में पडे़ थे! तुलसा के वसर पर एक छोटी-सी टोकरी थी और

राधा के वसर पर एक बड़ा-सा गट्ठा। मेरे िेिोां में आांसू भर

आये वक ि जािे इि बेचारोां की क्या गवत होगी। अकस्मात

एक प्रखर िोांके िे राधा के वसर से गट्ठा वगरा वदया। गट्ठा

का वगरिा था वक चट तुलसा िे अपिी टोकरी उसके वसर

पर औांधा दी। ि-जािे उस पुष्प ऐसे वसर पर वकतिे ओले

पडे़। उसके हाथ कभी पीठ पर जाते, कभी वसर सुहलाते।

अभी एक सेकेण्ड से अवधक यह दशा ि रही होगी वक

राधा िे वबजली की भाूँवत जपककर गट्ठा उठा वलया और

टोकरी तुलसा को दे दी। कैसा घिा पे्रम है!

अिथवकारी दुदेि िे सारा खेल वबगाड़ वदया !

प्रात:काल स्त्रीयाूँ गाती हुई जा रही थी ां। सन्ध्या को घर-घर

130

शोक छाया हुआ था। वकतिा के वसर लूं-लुहाि हो गये,

वकतिे हल्दी पी रहे हैं। खेती सत्यािाश हो गयी। अिाज

बिव के तले दब गया। ज्वर का प्रकोप हैं सारा गाूँि

अस्पताल बिा हुआ है। काशी भर का भविष्य प्रिचि

प्रमावणत हुआ। होली की ज्वाला का भेद प्रकट हो गया।

खेती की यह दशा और लगाि उगाहा जा रहा है। बड़ी

विपवत्त का सामिा है। मार-पीट, गाली, अपशब् सभी

साधिोां से काम वलया जा रहा है। दोांिोां पर यह दैिी कोप!

तुम्हारी

विरजि

(6)

मिगाूँि

मेरे प्राणवधक वप्रयतम,

पूरे पन्द्रह वदि के पश्चात् तुमिे विरजि की सुवध ली।

पि को बारम्बार पढ़ा। तुम्हारा पि रुलाये वबिा िही ां

मािता। मैं योां भी बहुत रोया करती ूंूँ। तुमको वकि-वकि

बातोां की सुवध वदलाऊूँ ? मेरा हृदय विबवल है वक जब कभी

इि बातोां की ओर ध्याि जाता है तो विवचि दशा हो जाती

है। गमी-सी लगती है। एक बड़ी व्यग्र करिे िाली, बड़ी

स्वावदि, बहुत रुलािेिाली, बहुत दुराशापूणव िेदिा उत्पन्न

होती है। जािती ूंूँ वक तुम िही ां आ रहे और िही ां आओगे;

पर बार-बार जाकर खड़ी हो जाती ूंूँ वक आ तो िही ां गये।

कल सायांकाल यहाूँ एक वचत्ताकर्वक प्रहसि देखिे में

आया। यह धोवबयोां का िाच था। पन्द्रह-बीस मिुष्योां का

एक समुदाय था। उसमे एक िियुिक शे्वत पेशिाज पवहिे,

कमर में असांख्य घांवटयाूँ बाूँधे, पाूँि में घुघूँरु पवहिे, वसर पर

131

लाल टोपी रखे िाच रहा था। जब पुरुर् िाचता था तो मृअांग

बजिे लगती थी। ज्ञात हुआ वक ये लोग होली का पुरस्कार

माूँगिे आये हैं। यह जावत पुरस्कार खूब लेती है। आपके

यहाूँ कोई काम-काज पडे़ उन्ें पुरस्कार दीवजये; और

उिके यहाूँ कोई काम-काज पडे़, तो भी उन्ें पाररतोवर्क

वमलिा चावहए। ये लोग िाचते समय गीत िही ां गाते। इिका

गािा इिकी कविता है। पेशिाजिाला पुरुर् मृदांग पर हाथ

रखकर एक विरहा कहता है। दूसरा पुरुर् सामिे से आकर

उसका प्रतु्यत्तर देता है और दोिोां तत्क्षण िह विरहा रचते

हैं। इस जावत में कवित्व-शन्दक्त अत्यवधक है। इि विरहोां को

ध्याि से सुिो तो उिमे बहुधा उत्तम कवित्व भाि प्रकट

वकये जाते हैं। पेशिाजिाले पुरुर्ोां िे प्रथम जो विरहा कहा

था, उसका यह अथव वक ऐ धोबी के बच्ोां! तुम वकसके द्वार

पर आकर खडे़ हो? दूसरे िे उत्तर वदया-अब ि अकबर

शाह है ि राजा भोज, अब जो हैं हमारे मावलक हैं उन्ी ां से

माूँगो। तीसरे विरहा का अथव यह है वक याचकोां की प्रवतिा

कम होती है अतएि कुछ मत माूँगोां, गा-बाजकर चले चलो,

देिेिाला वबि माूँगे ही देगा। घणे्-भर से ये लोग विरहे

कहते रहे। तुम्हें प्रतवत ि होगी, उिके मुख से विरहे इस

प्रकार बेधड़क विकलते थे वक आश्चयव प्रकट होता था।

स्यात इतिी सुगमता से िे बातें भी ि कर सकते होां। यह

जावत बड़ी वपयक्कड़ है। मवदरा पािी की भाूँवत पीती है।

वििाह में मवदरा गौिे में मवदरा, पूजा-पाठ में मवदरा।

पुरस्कार माूँगेंगे तो पीिे के वलए। धुलाई माूँगेंगे तो यह

कहकर वक आज पीिे के वलए पैसे िही ां हैं। विदा होते

समय बेचू धोबी िे जो विरहा कहा था, िह काव्यालांकार से

भरा हुआ है। तुम्हारा पररिार इस प्रकार बढे़ जैसे गांगा जी

132

का जल। लड़के िूले-िलें, जैसे आम का बौर। मालवकि

को सोहाग सदा बिा रहे, जैसे दूब की हररयाली। कैसी

अिोखी कविता है।

तुम्हारी

विरजि

(7)

मिगाूँि

प्यारे,

एक सप्ताह तक चुप रहिे की क्षमा चाहती ूंूँ। मुिे

इस सप्ताह में तविक भी अिकाश ि वमला। माधिी बीमार

हो गयी थी। पहले तो कुिैि को कई पुवड़याूँ न्दखलायी गयी ां

पर जब लाभ ि हुआ और उसकी दशा और भी बुरी होिे

लगी तो, वदहलूराय िैद्य बुलाये गये। कोई पचास िर्व की

आयू होगी। िांगे पाूँि वसर पर एक पगड़ो बाूँधे, कने्ध पर

अांगोछा रखे, हाथ में मोटा-सा सोटा वलये द्वार पर आकर

बैठ गये। घर के जमी ांदार हैं, पर वकसी िे उिके शरीर मे

वमजई तक िही ां देखी। उन्ें इतिा अिकाश ही िही ां वक

अपिे शरीर-पालि की ओर ध्याि दे। इस मांडल में आठ-

दस कोस तक के लोग उि पर विश्वास करते हैं। ि िे

हकीम को लािे, ि डाक्टर को। उिके हकीम-डाक्टर जो

कुछ हैं िे वदहलूराय है। सिेशा सुिते ही आकर द्वार पर

बैठ गये। डाक्टरोां की भाूँवत िही ां की प्रथम सिारी माूँगेंगे-

िह भी तेज वजसमें उिका समय िि ि हो। आपके घर ऐसे

बैठे रहेंगे, मािोां गूूँगें का गुड़ खा गये हैं। रोगी को देखिे

जायेंगे तो इस प्रकार भागेंगे मािो कमरे की िायु में विर्

133

भरा हुआ है। रोग पररचय और और्वध का उपचार केिल

दो वमिट में समाप्त। वदहलूराय डाक्टर िही ां हैं- पर वजतिे

मिुष्योां को उिसे लाभ पहुूँचता हैं, उिकी सांख्या का

अिुमाि करिा कवठि है। िह सहािुभूवत की मूवतव है। उन्ें

देखते ही रेगी का आधा रोग दूर हो जाता है। उिकी

और्वधयाूँ ऐसी सुगम और साधारण होती हैं वक वबिा पैसा-

कौड़ी मिोां बटोर लाइए। तीि ही वदि में माधिी चलिे-

विरिे लगी। िसु्तत: उस िैद्य की और्वध में चमत्कार है।

यहाूँ इि वदिोां मुगवलये ऊधम मचा रहे हैं। ये लोग

जाडे़ में कपडे़ उधार दे देते हैं और चैत में दाम िसूल करते

हैं। उस समय कोई बहािा िही ां सुिते। गाली-गलौज मार-

पीट सभी बातोां पर उतरा आते हैं। दो-तीि मिुष्योां को

बहुत मारा। राधा िे भी कुछ कपडे़ वलये थे। उिके द्वार पर

जाक सब-के-सब गावलयाूँ देिे लगे। तुलसा िे भीतर से

वकिाड़ बि कर वदये। जब इस प्रकार बस ि चला, तो एक

मोहिी गाय को खूूँटे से खोलकर खी ांचते हुए ले चला। इतिे

मां राधा दूर से आता वदखाई वदया। आते ही आते उसिे

लाठी का िह हाथ मारा वक एक मुगवलये की कलाई लटक

पड़ी। तब तो मुगवलये कुवपत हुए, पैंतरे बदलिे लगे। राधा

भी जाि पर खेि गया और तीि दुिोां को बेकार कर वदया।

इतिे काशी भर िे आकर एक मुगवलये की खबर ली।

वदहलूराय को मुगावलयोां से वचढ़ है। सावभमाि कहा करते

हैं वक मैंिे इिके इतिे रुपये डुबा वदये इतिोां को वपटिा

वदया वक वजसका वहसाब िही ां। यह कोलाहल सुिते ही िे

भी पहुूँच गये। विर तो सैकड़ो मिुष्य लावठयाूँ ले-लेकर

दौड़ पडे़। उन्ोांिे मुगवलयोां की भली-भाूँवत सेिा की। आशा

है वक इधर आिे का अब साहस ि होगा।

134

अब तो मइ का मास भी बीत गया। क्योां अभी छुट्टी

िही ां हुई ? रात-वदि तम्हारे आिे की प्रतीक्षा है। िगर में

बीमारी कम हो गई है। हम लोग बुहत शीघ्र यहूँ से चले

जायगे। शोक ! तुम इस गाूँि की सैर ि कर सकोगे।

तुम्हारी

विरजि

135

18

प्रतापचन्द्र और कमलाचरण

प्रतापचन्द्र को प्रयाग कालेज में पढ़ते तीि साल हो

चुके थे। इतिे काल में उसिे अपिे सहपावठयोां और

गुरुजिोां की दृवि में विशेर् प्रवतिा प्राप्त कर ली थी। कालेज

के जीिि का कोई ऐसा अांग ि था जहाूँ उिकी प्रवतभा ि

प्रदवशवत हुई हो। प्रोिेसर उस पर अवभमाि करते और

छािगण उसे अपिा िेता समिते हैं। वजस प्रकार क्रीड़ा-

के्षि में उसका हस्तलाघि प्रशांसिीय था, उसी प्रकार

व्याख्याि-भिि में उसकी योग्यता और सूक्ष्मदवशवता

प्रमावणत थी। कालेज से सम्बद्व एक वमि-सभा स्थावपत की

गयी थी। िगर के साधारण सभ्य जि, कालेज के प्रोिेसर

और छािगण सब उसके सभासद थे। प्रताप इस सभा का

उज्ज्वल चन्द्र था। यहाां देवशक और सामावजक विर्योां पर

विचार हुआ करते थे। प्रताप की िकृ्तताऍां ऐसी ओजन्दस्विी

और तकव -पूणव होती थी ां की प्रोिेसरोां को भी उसके विचार

और विर्यािेर्ण पर आश्चयव होता था। उसकी िकृ्तता और

उसके खेल दोिोां ही प्रभाि-पूणव होते थे। वजस समय िह

अपिे साधारण िस्त्र पवहिे हुए पे्लटिामव पर जाता, उस

समय सभान्दस्थत लोगोां की आूँखे उसकी ओर एकटक

देखिे लगती और वचत्त में उतु्सकता और उत्साह की तरांगें

उठिे लगती। उसका िाक्चातुयव उसक सांकेत और मृदुल

उच्ारण, उसके अांगोां-पाांग की गवत, सभी ऐसे प्रभाि-पूररत

होते थे मािो शारदा स्वयां उसकी सहायता करती है। जब

तक िह पे्लटिामव पर रहता सभासदोां पर एक मोवहिी-सी

छायी रहती। उसका एक-एक िाक्य हृदय में वभद जाता

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और मुख से सहसा ‘िाह-िाह!’ के शब् विकल जाते। इसी

विचार से उसकी िकृ्तताऍां प्राय: अन्त में हुआ करती थी

क्योांवक बहुतधा श्रोतागण उसी की िाक्तीक्ष्णता का

आस्वादि करिे के वलए आया करते थे। उिके शब्ोां और

उच्ारणोां में स्वाभाविक प्रभाि था। सावहत्य और इवतहास

उसक अिेर्ण और अध्ययि के विशेर् थे। जावतयोां की

उन्नवत और अििवत तथा उसके कारण और गवत पर िह

प्राय: विचार वकया करता था। इस समय उसके इस पररश्रम

और उद्योग के प्ररेक तथा िद्ववक विशेर्कर श्रोताओां के

साधुिाद ही होते थे और उन्ी ां को िह अपिे कवठि

पररश्रम का पुरस्कार समिता था। हाूँ, उसके उत्साह की

यह गवत देखकर यह अिुमाि वकया जा सकता था वक िह

होिहार वबरिा आगे चलकर कैसे िूल-िूल लायेगा और

कैसे रांग-रुप विकालेगा। अभी तक उसिे क्षण भी के वलए

भी इस पर ध्याि िही ां वदया था वक मेरे अगामी जीिि का

क्या स्वरुप होगा। कभी सोचता वक प्रोिेसर हो जाूँऊगा

और खूब पुस्तकें वलखूूँगा। कभी िकील बििे की भाििा

करता। कभी सोचता, यवद छाििृवत्त प्राप्त होगी तो वसविल

सविसव का उद्योग करुां गा। वकसी एक ओर मि िही ां वटकता

था।

परनु्त प्रतापचन्द्र उि विद्यावथयोां में से ि था, वजिका

सारा उद्योग िकृ्तता और पुस्तकोां ही तक पररवमत रहता

है। उसके सांयम और योग्यता का एक छोटा भाग जिता के

लाभाथव भी व्यय होता था। उसिे प्रकृवत से उदार और

दयालु हृदय पाया था और सिवसाधरण से वमलि-जुलिे

और काम करिे की योग्यता उसे वपता से वमली थी। इन्ी ां

कायों में उसका सदुत्साह पूणव रीवत से प्रमावणत होता था।

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बहुधा सन्ध्या समय िह कीटगांज और कटरा की दुगवन्धपूणव

गवलयोां में घूमता वदखायी देता जहाूँ विशेर्कर िीची जावत

के लोग बसते हैं। वजि लोगोां की परछाई से उच्िणव का

वहिू भागता है, उिके साथ प्रताप टूटी खाट पर बैठ कर

घांटोां बातें करता और यही कारण था वक इि मुहल्लोां के

वििासी उस पर प्राण देते थे। पे्रमाद और शारीररक सुख-

प्रलोभ ये दो अिगुण प्रतापचन्द्र में िाममाि को भी ि थे।

कोई अिाथ मिुष्य हो प्रताप उसकी सहायता के वलए

तैयार था। वकतिी रातें उसिे िोपड़ोां में कराहते हुए रोवगयोां

के वसरहािे खडे़ रहकर काटी थी ां। इसी अवभप्राय से उसिे

जिता का लाभाथव एक सभा भी स्थावपत कर रखी थी और

ढाई िर्व के अल्प समय में ही इस सभा िे जिता की सेिा

में इतिी सिलता प्राप्त की थी वक प्रयागिावसयोां को उससे

पे्रम हो गया था।

कमलाचरण वजस समय प्रयाग पहुूँचा, प्रतापचन्द्र िे

उसका बड़ा आदर वकया। समय िे उसके वचत्त के दे्वर् की

ज्वाला शाांत कर दी थी। वजस समय िह विरजि की

बीमारी का समाचार पाकर बिारस पहुूँचा था और उससे

भेंट होते ही विरजि की दशा सुधर चली थी, उसी समय

प्रताप चन्द्र को विश्वास हो गया था वक कमलाचरण िे

उसके हृदय में िह स्थाि िही ां पाया है जो मेरे वलए सुरवक्षत

है। यह विचार दे्वर्ावग्न को शान्त करिे के वलए कािी था।

इससे अवतररक्त उसे प्राय: यह विचार भी उवद्वगि वकया

करता था वक मैं ही सुशीला का प्राणघातक ूंूँ। मेरी ही

कठोर िावणयोां िे उस बेचारी का प्राणघात वकया और उसी

समय से जब वक सुशील िे मरते समय रो-रोकर उससे

अपिे अपराधोां की क्षमा माूँगी थी, प्रताप िे मि में ठाि

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वलया था। वक अिसर वमलेगा तो मैं इस पाप का प्रायवश्चत

अिश्य करुां गा। कमलाचरण का आदर-सत्कार तथा

वशक्षा-सुधार में उसे वकसी अांश में प्रायवश्चत को पूणव करिे

का अपूिव अिसर प्राप्त हुआ। िह उससे इस प्रकार

व्यिहार रखता, जैसे छोटा भाई के साथ अपिे समय का

कुछ भाग उसकी सहायता करिे में व्यय करता और ऐसी

सुगमता से वशक्षक का कत्तविय पालि करता वक वशक्षा एक

रोचक कथा का रुप धारण कर लेती।

परनु्त प्रतापचन्द्र के इि प्रयत्नोां के होते हुए भी

कमलाचरण का जी यहाूँ बहुत घबराता। सारे छाििास में

उसके स्वाभाििुकूल एक मिुष्य भी ि था, वजससे िह

अपिे मि का दु:ख कहता। िह प्रताप से विस्सांकोच रहते

हुए भी वचत्त की बहुत-सी बातें ि कहता था। जब विजविता

से जी अवधक घबराता तो विरजि को कोसिे लगता वक मेरे

वसर पर यह सब आपवत्तयाूँ उसी की लादी हुई हैं। उसे

मुिसे पे्रम िही ां। मुख और लेखिी का पे्रम भी कोई पे्रम है ?

मैं चाहे उस पर प्राण ही क्योां ि िारुां , पर उसका पे्रम िाणी

और लेखिी से बाहर ि विकलेगा। ऐसी मूवतव के आगे, जो

पसीजिा जािती ही िही ां, वसर पटकिे से क्या लाभ। इि

विचारोां िे यहाूँ तक जोर पकड़ा वक उसिे विरजि को पि

वलखिा भी त्याग वदया। िह बेचारी अपिे पिोां में कलेजा

विकलाकर रख देती, पर कमला उत्तर तक ि देता। यवद

देता भी तो रुखा और हृदयविदारक। इस समय विरजि

की एक-एक बात, उसकी एक-एक चाल उसके पे्रम की

वशवथलता का पररचय देती हुई प्रतीत होती थी। हाूँ, यवद

विस्मरण हो गयी थी तो विरजि की से्नहमयी बातें, िे

मतिाली ऑांखे जो वियोग के समय डबडबा गयी थी ां और

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कोमल हाथ वजन्ोांिे उससे वििती की थी वक पि बराबर

भेजते रहिा। यवद िे उसे स्मरण हो आते, तो सम्भि था वक

उसे कुछ सांतोर् होता। परनु्त ऐसे अिसरोां पर मिुष्य की

स्मरणशन्दक्त धोखा दे वदया करती है।

विदाि, कमलाचरण िे अपिे मि-बहलाि का एक

ढांग सोच ही विकाला। वजस समय से उसे कुछ ज्ञाि हुआ,

तभी से उसे सौियव-िावटका में भ्रमण करिे की चाट पड़ी

थी, सौियोपासिा उसका स्वभाि हो गया था। िह उसके

वलए ऐसी ही अवििायव थी, जैसे शरीर रक्षा के वलए भोजि।

बोवडिंग हाउस से वमली हुई एक सेठ की िावटका थी और

उसकी देखभाल के वलए माली िौकर था। उस माली के

सरयूदेिी िाम की एक कुूँ िारी लड़की थी। यद्यवप िह परम

सुिरी ि थी, तथावप कमला सौियव का इतिा इचु्छक ि

था, वजतिा वकसी वििोद की सामग्री का। कोई भी स्त्री,

वजसके शरीर पर यौिि की िलक हो, उसका मि बहलािे

के वलए समुवचत थी। कमला इस लड़की पर डोरे डालिे

लगा। सन्ध्या समय विरन्तर िावटका की पटररयोां पर

टहलता हुआ वदखायी देता। और लड़के तो मैदाि में

कसरत करते, पर कमलाचरण िावटका में आकर ताक-

िाूँक वकया करता। धीरे-धीरे सरयूदेिी से पररचय हो गया।

िह उससे गजरे मोल लेता और चौगुिा मूल्य देता। माली

को त्योहार के समय सबसे अवधक त्योहरी कमलाचरण ही

से वमलती। यहाूँ तक वक सरयूदेिी उसके प्रीवत-रुपी जाल

का आखेट हो गयी और एक-दो बार अन्धकार के पदे में

परस्पर सांभोग भी हो गया।

एक वदि सन्ध्या का समय था, सब विद्याथी सैर को गये

हुए थे, कमला अकेला िावटका में टहलता था और रह-

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रहकर माली के िोपड़ोां की ओर िाूँकता था। अचािक

िोपडे़ में से सरयूदेिी िे उसे सांकेत द्वारा बुलाया। कमला

बड़ी शीघ्रता से भीतर घुस गया। आज सरयूदेिी िे मलमल

की साड़ी पहिी थी, जो कमलाबाबू का उपहार थी। वसर में

सुगांवधत तेल डाला था, जो कमला बाबू बिारस से लाये थे

और एक छी ांट का सलूका पहिे हुई थी, जो बाबू साहब िे

उसके वलए बििा वदया था। आज िह अपिी दृवि में परम

सुिरी प्रतीत होती थी, िही ां तो कमला जैसा धिी मिुष्य

उस पर क्योां पाण देता ? कमला खटोले पर बैठा हुआ

सरयूदेिी के हाि-भाि को मतिाली दृवि से देख रहा था।

उसे उस समय सरयूदेिी िृजरािी से वकसी प्रकार कम

सुिरी िही ां दीख पड़ती थी। िणव में तविक सा अन्तर था,

पर यह ऐसा कोई

बड़ा अांतर िही ां। उसे सरयूदेिी का पे्रम सच्ा और

उत्साहपूणव जाि पड़ता था, क्योांवक िह जब कभी बिारस

जािे की चचाव करता, तो सरयूदेिी िूट-िूटकर रोिे लगती

और कहती वक मुिे भी लेते चलिा। मैं तुम्हारा सांग ि

छोडूूँगी। कहाूँ यह पे्रम की तीव्रता ि उत्साह का बाहुल्य

और कहाूँ विरजि की उदासीि सेिा और विदवयतापूणव

अभ्यथविा !

कमला अभी भलीभाूँवत ऑांखोां को सेंकिे भी ि पाया

था वक अकस्मात् माली िे आकर द्वार खटखटाया। अब

काटो तो शरीर में रुवधर िही ां। चेहरे का रांग उड़ गया।

सरयूदेिी से वगड़वगड़ाकर बोला- मैं कहाूँ जाऊां ? सरयूदेिी

का ज्ञाि आप ही शून्य हो गया, घबराहट में मुख से शब्

तक ि विकला। इतिे में माली िे विर वकिाड़ खटखटाया।

बेचारी सरयूदेिी वििश थी। उसिे डरते-डरते वकिाड़

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खोल वदया। कमलाचरण एक कोिें में श्वास रोककर खड़ा

हो गया।

वजस प्रकार बवलदाि का बकरा कटार के तले तड़पता

है उसी प्रकार कोिे में खडे़ हुए कमला का कलेजा धज्ञड़क

रहा था। िह अपिे जीिि से विराश था और ईश्वर को सचे्

हृदय से स्मरण कर रहा था और कह रहा था वक इस बार

इस आपवत्त से मुक्त हो जाऊां गा तो विर कभी ऐसा काम ि

करुां गा।

इतिे में माली की दृवि उस पर पड़ी, पवहले तो

घबराया, विर विकट आकर बोला- यह कौि खड़ा है? यह

कौि है ?

इतिा सुििा था वक कमलाचरण िपटकर बाहर

विकला और िाटक की ओर जी छोड़कर भागा। माली

एक डांडा हाथ में वलये ‘लेिा-लेिा, भागिे ि पाये?’ कहता

हुआ पीछे-पीछे दौड़ा। यह िह कमला है जो माली को

पुरस्कार ि पाररतोवर्क वदया करता था, वजससे माली

सरकार और हुजूर कहकर बातें करता था। िही कमला

आज उसी माली समु्मख इस प्रकार जाि लेकर भागा जाता

है। पाप अवग्न का िह कुण्ड है जो आदर और माि, साहस

और धैयव को क्षण-भर में जलाकर भस्म कर देता है।

कमलाचरण िृक्षोां और लताओां की ओट में दौड़ता

हुआ िाटक से बाहर विकला। सड़क पर ताूँगा जा रहा था,

जो बैठा और हाूँिते-हाूँिते अशक्त होकर गाड़ी के पटरे

पर वगर पड़ा। यद्यवप माली िे िाटक भी पीछा ि वकया था,

तथावप कमला प्रते्यक आिे-जािे िाले पर चौांक-चौांककर

दृवि डालता थ, मािोां सारा सांसार शिु हो गया है। दुभावग्य

िे एक और गुल न्दखलाया। से्टशि पर पहुूँचते ही घबराहट

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का मारा गाड़ी में जाकर बैठ गय, परनु्त उसे वटकट लेिे

की सुवध ही ि रही और ि उसे यह खबर थी वक मैं वकधर

जा रहा ूंूँ। िह इस समय इस िगर से भागिा चाहता था,

चाहे कही ां हो। कुछ दूर चला था वक अांगे्रज अिसर

लालटेि वलये आता वदखाई वदया। उसके सांग एक वसपाही

भी था। िह यावियोां का वटकट देखता चला आता था; परनु्त

कमला िे जाि वक कोई पुवलस अिसर है। भय के मारे

हाथ-पाूँि सिसिािे लगे, कलेजा धड़किे लगा। जब अांगे्रज

दसूरी गवड़योां में जाूँच करता रहा, तब तक तो िह कलेजा

कड़ा वकये पे्रकार बैठा रहा, परनु्त ज्ोां उसके वडबे्ब का

िाटक खुला कमला के हाथ-पाूँि िूल गये, िेिोां के सामिे

अांधेरा छा गया। उतािलेपि से दूसरी ओर का वकिाड़

खोलकर चलती हुई रेलगाड़ी पर से िीचे कूद पडा।

वसपाही और रेलिाले साहब िे उसे इस प्रकार कूदते देखा

तो समिा वक कोई अभ्यस्त डाकू है, मारे हर्व के िूले ि

समाये वक पाररतोवर्क अलग वमलेगा और िेतिोन्नवत अलग

होगी, िट लाल बत्ती वदखायी। तविक देर में गाड़ी रुक

गयी। अब गाडव , वसपाही और वटकट िाले साहब कुछ अन्य

मिुष्योां के सवहत गाड़ी उतर गयी। अब गाडव , वसपाही और

वटकट िाले साहब कुछ अन्य मुिष्योां के सवहत गाड़ी से

उत्तर पडे़ और लालटेि ले-लेकर इधर-उधर देखिे लगे।

वकसी िे कहा-अब उसकी धूि भी ि वमलेगी, पक्का डकैत

था। कोई बोला- इि लोगोां को कालीजी का इि रहता है,

जो कुछ ि कर वदखायें, थोड़ा हैं परनु्त गाडव आगे ही बढ़ता

गया। िेति िुवद्व की आशा उसे आगे ही वलये जाती थी।

यहाूँ तक वक िह उस स्थाि पर जा पहुूँचा, जहाूँ कमेला

गाड़ी से कूदा था। इतिे में वसपाही िे खडे् की ओर

143

सकां केत करके कहा- देखो, िह शे्वत रांग की क्या िसु्त है ?

मुिे तो कोई मिुष्य-सा प्रतीत होता है और लोगोां िे देखा

और विश्वास हो गया वक अिश्य ही दुि डाकू यहाूँ वछपा

हुआ है, चलकेर उसको घेर लो तावक कही ां विकलिे ि

पािे, तविक सािधाि रहिा डाकू प्राणपर खेल जाते हैं।

गाडव साहब िे वपस्तौल सूँभाली, वमयाूँ वसपाही िे लाठी

तािी। कई स्त्रीयोां िे जूते उतार कर हाथ में ले वलये वक

कही ां आक्रमण कर बैठा तो भागिे में सुभीता होगा। दो

मिुष्योां िे ढेले उठा वलये वक दूर ही से लक्ष्य करें गे। डाकू

के विकट कौि जाय, वकसे जी भारी है? परनु्त जब लोगोां िे

समीप जाकर देखा तो ि डाकू था, ि डाकू भाई; वकनु्त एक

सभ्य-स्वरुप, सुिर िणव, छरहरे शरीर का िियुिक पृथ्वी

पर औांधे मुख पड़ा है और उसके िाक और काि से धीरे-

धीरे रुवधर बह रहा है।

कमला िे इधर साूँस तोड़ी और विरजि एक भयािक

स्वप्न देखकर चौांक पड़ी। सरयूदेिी िे विरजि का सोहाग

लूट वलया।

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दु:ि-दिा

सौभाग्यिती स्त्री के वलए उसक पवत सांसार की सबसे

प्यारी िसु्त होती है। िह उसी के वलए जीती और मारती है।

उसका हूँसिा-बोलिा उसी के प्रसन्न करिे के वलए और

उसका बिाि-शृ्रांगार उसी को लुभािे के वलए होता है।

उसका सोहाग जीिि है और सोहाग का उठ जािा उसके

जीिि का अन्त है।

कमलाचरण की अकाल-मृतु्य िृजरािी के वलए मृतु्य से

कम ि थी। उसके जीिि की आशाएूँ और उमांगे सब वमट्टी

मे वमल गयी ां। क्या-क्या अवभलार्ाएूँ थी ां और क्या हो गय?

प्रवत-क्षण मृत कमलाचरण का वचि उसके िेिोां में भ्रमण

करता रहता। यवद थोड़ी देर के वलए उसकी ऑखें िपक

जाती ां, तो उसका स्वरुप साक्षात िेिोां कें समु्मख आ जाता।

वकसी-वकसी समय में भौवतक िय-तापोां को वकसी

विशेर् व्यन्दक्त या कुटुम्ब से पे्रम-सा हो जाता है। कमला का

शोक शान्त भी ि हुआ था बाबू श्यामाचरण की बारी

आयी। शाखा-भेदि से िृक्ष को मुरिाया हुआ ि देखकर

इस बार दुदेि िे मूल ही काट डाला। रामदीि पाूँडे बडा

दांभी मिुष्य था। जब तक वडप्टी साहब मिगाूँि में थे, दबका

बैठा रहा, परनु्त ज्ोांही िे िगर को लौटे, उसी वदि से उसिे

उल्पात करिा आरम्भ वकया। सारा गाूँि–का-गाूँि उसका

शिु था। वजस दृवि से मिगाूँि िालोां िे होली के वदि उसे

देखा, िह दृवि उसके हृदय में काूँटे की भाूँवत खटक रही

थी। वजस मण्डल में मािगाूँि न्दस्थत था, उसके थािेदार

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साहब एक बडे घाघ और कुशल ररश्वती थे। सहस्ोां की

रकम पचा जायें, पर डकार तक ि लें। अवभयोग बिािे

और प्रमाण गढ़िे में ऐसे अभ्यस्त थे वक बाट चलते मिुष्य

को िाूँस लें और िह विर वकसी के छुड़ाये ि छूटे।

अवधकार िगव उसक हथकण्डोां से विज्ञ था, पर उिकी

चतुराई और कायवदक्षता के आगे वकसी का कुछ बस ि

चलता था। रामदीि थािेदार साहब से वमला और अपिे

हृद्रोग की और्वध माूँगी। उसक एक सप्ताह पश्चात् मिगाूँि

में डाका पड़ गया। एक महाजि िगर से आ रहा था। रात

को िम्बरदार के यहाूँ ठहरा। डाकुओां िे उसे लौटकर घर

ि जािे वदया। प्रात:काल थािेदार साहब तहकीकात करिे

आये और एक ही रस्सी में सारे गाूँि को बाूँधकर ले गये।

दैिात् मुकदमा बाबू श्यामाचारण की इजलास में पेश

हुआ। उन्ें पहले से सारा कच्ा-वचट्ठा विवदत था और ये

थािेदार साहब बहुत वदिोां से उिकी आांखोां पर चढे़ हुए थे।

उन्ोांिे ऐसी बाल की खाल विकाली की थािेदार साहब की

पोल खुल गयी। छ: मास तक अवभयोग चला और धूम से

चला। सरकारी िकीलोां िे बडे़-बडे़ उपाय वकये परनु्त घर

के भेदी से क्या वछप सकता था? िल यह हुआ वक वडप्टी

साहब िे सब अवभयुक्तोां को बेदाग छोड़ वदया और उसी

वदि सायांकाल को थािेदार साहब मुअत्तल कर वदये गये।

जब वडप्टी साहब िैसला सुिाकर लौटे, एक

वहतवचन्तक कमवचारी िे कहा- हुजूर, थािेदार साहब से

सािधाि रवहयेगा। आज बहुत िल्लाया हुआ था। पहले भी

दो-तीि अिसरोां को धोखा दे चुका है। आप पर अिश्य

िार करेगा। वडप्टी साहब िे सुिा और मुस्कराकर उस

मुिष्य को धन्यिाद वदया; परनु्त अपिी रक्षा के वलए कोई

146

विशेर् यत्न ि वकया। उन्ें इसमें अपिी भीरुता जाि पड़ती

थी। राधा अहीर बड़ा अिुरोध करता रहा वक मै। आपके

सांग रूंूँगा, काशी भर भी बहुत पीछे पड़ा रहा ; परनु्त

उन्ोांिे वकसी को सांग ि रखा। पवहले ही की तरह अपिा

काम करते रहे।

जावलम खाूँ बात का धिी था, िह जीिि से हाथ धोकर

बाबू श्यामाचरण के पीछे पड़ गया। एक वदि िे सैर करके

वशिपुर से कुछ रात गये लौट रहे थे पागलखािे के विकट

कुछ विवटि का घोड़ा वबदकाां गाड़ी रुक गयी और पलभर

में जावलम खाूँ िे एक िृक्ष की आड़ से वपस्तौल चलायी।

पड़ाके का शब् हुआ और बाबू श्यामाचरण के िक्षस्थल से

गोली पार हो गयी। पागलखािे के वसपाही दौडे़। जावलम

खाूँ पकड़ वलय गया, साइस िे उसे भागिे ि वदया था।

इस दुघवटिाओां िे उसके स्वभाि और व्यिहार में

अकस्माि बड़ा भारी पररितवि कर वदया। बात-बात पर

विरजि से वचढ़ जाती और कटून्दतत्तयोां से उसे जलाती। उसे

यह भ्रम हो गया वक ये सब आपावत्तयाूँ इसी बूं की लायी

हई है। यही अभावगि जब से घर आयी, घर का सत्यािाश

हो गया। इसका पौरा बहुत विकृि है। कई बार उसिे

खुलकर विरजि से कह भी वदया वक-तुम्हारे वचकिे रुप िे

मुिे ठग वलया। मैं क्या जािती थी वक तुम्हारे चरण ऐसे

अशुभ हैं ! विरजि ये बातें सुिती और कलेजा थामकर रह

जाती। जब वदि ही बुरे आ गये, तो भली बातें क्योांकर सुििे

में आयें। यह आठोां पहर का ताप उसे दु:ख के आांसू भी ि

बहािे देता। आूँसूां तब विकलते है। जब कोई वहतैर्ी हा

और दुख को सुिे। तािे और व्यांग्य की अवग्न से ऑांसू जल

जाते हैं।

147

एक वदि विरजि का वचत्त बैठे-बैठे घर में ऐसा

घबराया वक िह तविक देर के वलए िावटका में चली आयी।

आह ! इस िावटका में कैसे-कैसे आिि के वदि बीते थे !

इसका एक-एक पध मरिे िाले के असीम पे्रम का स्मारक

था। कभी िे वदि भी थे वक इि िूलोां और पवत्तयोां को

देखकर वचत्त प्रिुन्दल्लत होता था और सुरवभत िायु वचत्त

को प्रमोवदत कर देती थी। यही िह स्थल है, जहाूँ अिेक

सन्ध्याऍां पे्रमालाप में व्यतीत हुई थी ां। उस समय पुष्पोां की

कवलयाूँ अपिे कोमल अधरोां से उसका स्वागत करती थी ां।

पर शोक! आज उिके मस्तक िुके हुए और अधर बि थे।

क्या यह िही स्थाि ि था जहाूँ ‘अलबेली मावलि’ िूलोां के

हार गूांथती थी? पर भोली मावलि को क्या मालूम था वक

इसी स्थाि पर उसे अपिे िेतरें से विकले हुए मोवतयोां को

हाूँर गूूँथिे पडे़गें। इन्ी ां विचारोां में विरजि की दृवि उस कुां ज

की ओर उठ गयी जहाूँ से एक बार कमलाचरण मुस्कराता

हुआ विकला था, मािो िह पवत्तयोां का वहलिा और उसके

िस्तरें की िलक देख रही है। उससे मुख पर उसे समय

मि-मि मुस्काि-सी प्रकट होती थी, जैसे गांगा में डूबते

हुर्श्र्व की पीली और मवलि वकणें का प्रवतवबम्ब पड़ता है।

आचािक पे्रमिती िे आकर कणवकटु शब्ोां में कहा- अब

आपका सैर करिे का शौक हुआ है !

विरजि खड़ी हो गई और रोती हुई बोली-माता ! वजसे

िारायण िे कुचला, उसे आप क्योां कुचलती हैं !

विदाि पे्रमिती का वचत्त िहाूँ से ऐसा उचाट हुआ वक

एक मास के भीतर सब सामाि औिे-पौिे बेचकर मिगाूँि

चली गयी। िृजरािी को सांग ि वलया। उसका मुख देखिे से

उसे घृणा हो गयी थी। विरजि इस विसृ्तत भिि में अकेली

148

रह गयी। माधिी के अवतररक्त अब उसका कोई वहतैर्ी ि

रहा। सुिामा को अपिी मुूँहबोली बेटी की विपवत्तयोां का

ऐसा हीशेक हुआ, वजतिा अपिी बेटी का होता। कई वदि

तक रोती रही और कई वदि बराबर उसे सिािे के वलए

आती रही। जब विरजि अकेली रह गयी तो सुिमा िे चाहा

हहक यह मेरे यहाूँ उठ आये और सुख से रहे। स्वयां कई

बार बुलािे गयी, पर विररजि वकसी प्रकार जािे को राजी

ि हुई। िह सोचती थी वक ससुर को सांसार से वसधारे भी

तीि मास भी िही ां हुए, इतिी जल्दी यह घर सूिा हो

जायेगा, तो लोग कहेंगे वक उिके मरते ही सास और बेहु

लड़ मरी ां। यहाूँ तक वक उसके इस हठ से सुिामा का मि

मोटा हो गया।

मिगाूँि में पे्रमिती िे एक अांधेर मचा रखी थी।

असावमयोां को कटु िजि कहती। काररिा के वसर पर जूती

पटक दी। पटिारी को कोसा। राधा अहीर की गाय बलात्

छीि ली। यहाूँ वक गाूँि िाले घबरा गये ! उन्ोांिे बाबू

राधाचरण से वशकायत की। राधाचण िे यह समाचार सुिा

तो विश्वास हो गया वक अिश्य इि दुघवटिाओां िे अम्माूँ की

बुवद्व भ्रि कर दी है। इस समय वकसी प्रकार इिका मि

बहलािा चावहए। सेिती को वलखा वक तुम माताजी के पास

चली जाओ और उिके सांग कुछ वदि रहो। सेिती की गोद

में उि वदिोां एक चाूँद-सा बालक खेल रहा था और

प्राणिाथ दो मास की छुट्टी लेकर दरभांगा से आये थे। राजा

साहब के प्राइिेट सेक्रटेरी हो गये थे। ऐसे अिसर पर

सेिती कैस आ सकती थी? तैयाररयाूँ करते-करते महीिोां

गुजर गये। कभी बच्ा बीमार पड़ गया, कभी सास रुि हो

149

गयी कभी साइत ि बिी। विदाि छठे महीिे उसे अिकाश

वमला। िह भी बडे़ विपवत्तयोां से।

परनु्त पे्रमिती पर उसक आिे का कुछ भी प्रभाि ि

पड़ा। िह उसके गले वमलकर रोयी भी िही ां, उसके बचे्

की ओर ऑांख उठाकर भी ि देखा। उसक हृदय में अब

ममता और पे्रम िाम-माि को भी ि रह गयाञ। जैसे ईख

से रस विकाल लेिे पर केिल सीठी रह जाती है, उसकी

प्रकार वजस मिुष्य के हृदय से पे्रम विकल गया, िह अन्दस्थ-

चमव का एक ढेर रह जाता है। देिी-देिता का िाम मुख पर

आते ही उसके तेिर बदल जाते थे। मिागाूँि में जन्मािमी

हुई। लोगोां िे ठाकुरजी का व्रत रख और चिे से िाम

करािे की तैयाररयाूँ करिे लगे। परनु्त पे्रमिती िे ठीक जन्म

के अिसर पर अपिे घर की मूवतव खेत से विकिा दी।

एकादशी ब्रत टूटा, देिताओां की पूजा छूटी। िह पे्रमिती

अब पे्रमिती ही ि थी।

सेिती िे ज्ोां-त्योां करके यहाूँ दो महीिे काटे। उसका

वचत्त बहुत घबराता। कोई सखी-सहेली भी ि थी, वजसके

सांग बैठकर वदि काटती। विरजि िे तुलसा को अपिी

सखी बिा वलया था। परनु्त सेिती का स्भि सरल ि था।

ऐसी स्त्रीयोां से मेल-जोल करिे में िह अपिी मािहावि

समिती थी। तुलसा बेचारी कई बार आयी, परनु्त जब दख

वक यह मि खोलकर िही ां वमलती तो आिा-जािा छोड़

वदया।

तीि मास व्यतीत हो चुके थे। एक वदि सेिती वदि चढे़

तक सोती रही। प्राणिाथ िे रात को बहुत रुलाया था। जब

िी ांद उचटी तो क्या देखती है वक पे्रमिती उसके बचे् को

गोद में वलय चूम रही है। कभी आखें से लगाती है , कभी

150

छाती से वचपटाती है। सामिे अांगीठी पर हलुिा पक रहा

है। बच्ा उसकी ओर उांगली से सांकेत करके उछलता है

वक कटोरे में जा बैठूूँ और गरम-गरम हलुिा चखूूँ। आज

उसक मुखमण्डल कमल की भाूँवत न्दखला हुआ है। शायद

उसकी तीव्र दृवि िे यह जाि वलया है वक पे्रमिती के शुष्क

हृदय में पे्रमे िे आज विर से वििास वकया है। सेिती को

विश्वास ि हुआ। िह चारपाई पर पुलवकत लोचिोां से ताक

रही थी मािोां स्वप्न देख रही थी। इतिे में पे्रमिती प्यार से

बोली- उठो बेटी ! उठो ! वदि बहुत चढ़ आया है।

सेिती के रोांगटे खडे़ हो गओ और आांखें भर आयी।

आज बहुत वदिोां के पश्चात माता के मुख से पे्रममय बचि

सुिे। िट उठ बैठी और माता के गले वलपट कर रोिे लगी।

पे्रमिती की खें से भी आांसू की िड़ी लग गयीय, सूखा िृक्ष

हरा हुआ। जब दोिोां के ऑांसू थमे तो पे्रमिती बोली-वसत्तो !

तुम्हें आज यह बातें अचरज प्रतीत होती है ; हाूँ बेटी,

अचरज ही ि। मैं कैसे रोऊां , जब आांखोां में आांसू ही रहे?

प्यार कहाूँ से लाऊां जब कलेजा सूखकर पत्थर हो गया? ये

सब वदिोां के िेर हैं। ऑसू उिके साथ गये और कमला के

साथ। अज ि जािे ये दो बूूँद कहाूँ से विकल आये? बेटी !

मेरे सब अपराध क्षमा करिा।

यह कहते-कहते उसकी ऑखें िपकिे लगी ां। सेिती

घबरा गयी। माता हो वबस्तर पर लेटा वदया और पख िलिे

लगी। उस वदि से पे्रमिती की यह दशा हो गयी वक जब

देखोां रो रही है। बचे् को एक क्षण वलए भी पास से दूर िही ां

करती। महररयोां से बोलती तो मुख से िूल िड़ते। विर

िही पवहले की सुशील पे्रमिती हो गयी। ऐसा प्रतीत होता

था, मािो उसक हृदय पर से एक पदाव-सा उठ गया है !

151

जब कड़ाके का जाड़ा पड़ता है, तो प्राय: िवदयाूँ बिव से

ढूँक जाती है। उसमें बसिेिाले जलचर बिव मे पदे के पीछे

वछप जाते हैं, िौकाऍां िूँ स जाती है और मांदगवत, रजतिणव

प्राण-सांजीिि जल-स्ोत का स्वरुप कुछ भी वदखायी िही ां

देता है। यद्यवप बिव की चद्दर की ओट में िह मधुर विद्रा में

अलवसत पड़ा रहता था, तथावप जब गरमी का साम्राज्

होता है, तो बिव वपघल जाती है और रजतिणव िदी अपिी

बिव का चद्दर उठा लेती है, विर मछवलयाूँ और जलजनु्त

आ बहते हैं, िौकाओां के पाल लहरािे लगते हैं और तट पर

मिुष्योां और पवक्षयोां का जमघट हो जाता है।

परनु्त पे्रमिती की यह दशा बहुत वदिोां तक न्दस्थर ि

रही। यह चेतिता मािो मृतु्य का सिेश थी। इस

वचत्तोवद्वग्नता िे उसे अब तक जीिि-कारािास में रखा था,

अन्था पे्रमिती जैसी कोमल-हृदय स्त्री विपवत्तयोां के ऐसे

िोांके कदावप ि सह सकती।

सेिती िे चारोां ओर तार वदलिाये वक आकर माताजी

को देख जाओ पर कही ां से कोई ि आया। प्राणिाथ को

छुट्टी ि वमली, विरजि बीमार थी, रहे राधाचरण। िह

िैिीताल िायु-पररितवि करिे गये हुए थे। पे्रमिती को पुि

ही को देखिे की लालसा थी, पर जब उिका पि आ गया

वक इस समय मैं िही ां आ सकता, तो उसिे एक लम्बी साूँस

लेकर ऑांखे मूूँद ली, और ऐसी सोयी वक विर उठिा िसीब

ि हुआ !

152

20

मन का प्राबल्य

मािि हृदय एक रहस्यमय िसु्त है। कभी तो िह

लाखोां की ओर ऑख उठाकर िही ां देखता और कभी

कौवड़योां पर विसल पड़ता है। कभी सैकड़ोां विदवर्ोां की

हत्या पर आह ‘तक’ िही ां करता और कभी एक बचे् को

देखकर रो देता है। प्रतापचन्द्र और कमलाचरण में यद्यवप

सहोदर भाइयोां का-सा पे्रम था, तथावप कमला की

आकन्दस्मक मृतु्य का जो शोक चावहये िह ि हुआ। सुिकर

िह चौांक अिश्य पड़ा और थोड़ी देर के वलए उदास भी

हुआ, पर शोक जो वकसी सचे् वमि की मृतु्य से होता है

उसे ि हुआ। विस्सांदेह िह वििाह के पूिव ही से विरजि को

अपिी समिता था तथावप इस विचार में उसे पूणव सिलता

कभी प्राप्त ि हुई। समय-समय पर उसका विचार इस

पविि सम्बन्ध की सीमा का उल्लांघि कर जाता था।

कमलाचरण से उसे स्वत: कोई पे्रम ि था। उसका जो कुछ

आदर, माि और पे्रम िह करता था, कुछ तो इस विचार से

वक विरजि सुिकर प्रसन्न होगी और इस विचार से वक

सुशील की मृतु्य का प्रायवश्चत इसी प्रकार हो सकता है। जब

विरजि ससुराल चली आयी, तो अिश्य कुछ वदिोां प्रताप िे

उसे अपिे ध्याि में ि आिे वदया, परनु्त जब से िह उसकी

बीमारी का समाचार पाकर बिारस गया था और उसकी

भेंट िे विरजि पर सांजीििी बूटी का काम वकया था, उसी

वदि से प्रताप को विश्वास हो गया था वक विरजि के हृदय

में कमला िे िह स्थाि िही ां पाया जो मेरे वलए वियत था।

153

प्रताप िे विरजि को परम करणापूणव शोक-पि वलखा

पर पि वलख्ता जाता था और सोचता जाता था वक इसका

उस पर क्या प्रभाि होगा? सामान्यत: समिेदिा पे्रम को

प्रौढ़ करती है। क्या आश्चयव है जो यह पि कुछ काम कर

जाय? इसके अवतररक्त उसकी धावमवक प्रिृवत िे विकृत रुप

धारण करके उसके मि में यह वमथ्या विचार उत्पन्न वकया

वक ईश्वर िे मेरे पे्रम की प्रवतिा की और कमलाचरण को

मेरे मागव से हटा वदया, मािो यह आकाश से आदेश वमला

है वक अब मैं विरजि से अपिे पे्रम का पुरस्कार लूूँ। प्रताप

यह जो जािता था वक विरजि से वकसी ऐसी बात की आशा

करिा, जो सदाचार और सभ्यता से बाल बराबर भी हटी

हुई हो, मूखवता है। परनु्त उसे विश्वास था वक सदाचार और

सतीत्व के सीमान्तगवत यवद मेरी कामिाएूँ पूरी हो सकें , तो

विरजि अवधक समय तक मेरे साथ विदवयता िही ां कर

सकती।

एक मास तक ये विचार उसे उवद्वग्न करते रहे। यहाूँ

तक वक उसके मि में विरजि से एक बार गुप्त भेंट करिे

की प्रबल इच्छा भी उत्पन्न हुई। िह यह जािता था वक अभी

विरजि के हृदय पर तात्कावलकघि है और यवद मेरी वकसी

बात या वकसी व्यिहार से मेरे मि की दुशे्चिा की गन्ध

विकली, तो मैं विरजि की दृवि से हमश के वलए वगर

जाूँऊगा। परनु्त वजस प्रकार कोई चोर रुपयोां की रावश

देखकर धैयव िही ां रख सकता है, उसकी प्रकार प्रताप अपिे

मि को ि रोक सका। मिुष्य का प्रारब्ध बहुत कुछ अिसर

के हाथ से रहता है। अिसर उसे भला िही ां मािता है और

बुरा भी। जब तक कमलाचरण जीवित था, प्रताप के मि में

कभी इतिा वसर उठािे को साहस ि हुआ था। उसकी मृतु्य

154

िे मािो उसे यह अिसर दे वदया। यह स्वाथवपता का मद

यहाूँ तक बढ़ा वक एक वदि उसे ऐसाभस होिे लगा, मािोां

विरजि मुिे स्मरण कर रही है। अपिी व्यग्रता से िह

विरजि का अिुमाि करेि लगा। बिारस जािे का इरादा

पक्का हो गया।

दो बजे थे। रावि का समय था। भयािह सन्नाटा छाया

हुआ था। विद्रा िे सारे िगर पर एक घटाटोप चादर िैला

रखी थी। कभी-कभी िृक्षोां की सिसिाहट सुिायी दे जाती

थी। धुआां और िृक्षोां पर एक काली चद्दर की भाूँवत वलपटा

हुआ था और सड़क पर लालटेिें धुऍां की कावलमा में ऐसी

दृवि गत होती थी ां जैसे बादल में वछपे हुए तारे। प्रतापचन्द्र

रेलगाड़ी पर से उतरा। उसका कलेजा बाांसोां उछल रहा था

और हाथ-पाूँि काूँप रहे थे। िह जीिि में पहला ही अिसर

था वक उसे पाप का अिुभि हुआ! शोक है वक हृदय की

यह दशा अवधक समय तक न्दस्थर िही ां रहती। िह दुगवन्ध-

मागव को पूरा कर लेती है। वजस मिुष्य िे कभी मवदरा िही ां

पी, उसे उसकी दुगवन्ध से घृणा होती है। जब प्रथम बार

पीता है, तो घण्ें उसका मुख कड़िा रहता है और िह

आश्चयव करता है वक क्योां लोग ऐसी विरै्ली और कड़िी

िसु्त पर आसक्त हैं। पर थोडे़ ही वदिोां में उसकी घृणा दूर

हो जाती है और िह भी लाल रस का दास बि जाता है।

पाप का स्वाद मवदरा से कही ां अवधक भांयकर होता है।

प्रतापचन्द्र अांधेरे में धीरे-धीरे जा रहा था। उसके पाूँि

पेग से िही ां उठते थे क्योांवक पाप िे उिमें बेवड़याूँ डाल दी

थी। उस आहलाद का, जो ऐसे अिसर पर गवत को तीव्र

कर देता है, उसके मुख पर कोई लक्षण ि था। िह चलते-

155

चलते रुक जाता और कुछ सोचकर आगे बढ़ता था। पे्रत

उसे पास के खडे् में कैसा वलये जाता है?

प्रताप का वसर धम-धम कर रहा था और भय से

उसकी वपांडवलयाूँ काूँप रही थी ां। सोचता-विचारता घणे् भर

में मुन्घ्शी श्यामाचरण के विशाल भिि के सामिे जा पहुूँचा।

आज अन्धकार में यह भिि बहुत ही भयािह प्रतीत होता

था, मािो पाप का वपशाच सामिे खड़ा है। प्रताप दीिार की

ओट में खड़ा हो गया, मािो वकसी िे उसक पाूँि बाूँध वदये

हैं। आध घणे् तक िह यही सोचता रहा वक लौट चलूूँ या

भीतर जाूँऊ? यवद वकसी िे देख वलया बड़ा ही अिथव

होगा। विरजि मुिे देखकर मि में क्या सोचेगी? कही ां ऐसा

ि हो वक मेरा यह व्यिहार मुिे सदा के वलए उसकी द्वि

से वगरा दे। परनु्त इि सब सिेहोां पर वपशाच का आकर्वण

प्रबल हुआ। इन्दन्द्रयोां के िश में होकर मिुष्य को भले-बुरे

का ध्याि िही ां रह जाता। उसिे वचत्त को दृढ़ वकया। िह

इस कायरता पर अपिे को वधक्कार देिे लगा, तदन्तर घर

में पीछे की ओर जाकर िावटका की चहारदीिारी से िाूँद

गया। िावटका से घर जािे के वलए एक छोटा-सा द्वार था।

दैियेग से िह इस समय खुला हुआ था। प्रताप को यह

शकुि-सा प्रतीत हुआ। परनु्त िसु्तत: यह अधमव का द्वार

था। भीतर जाते हुए प्रताप के हाथ थराविे लगे। हृदय इस

िेग से धड़कता था; मािो िह छाती से बाहर विकल पडे़गा।

उसका दम घुट रहा था। धमव िे अपिा सारा बल लगा

वदया। पर मि का प्रबल िेग ि रुक सका। प्रताप द्वार के

भीतर प्रविि हुआ। आांगि में तुलसी के चबूतरे के पास

चोरोां की भावत खड़ा सोचिे लगा वक विरजि से क्योांकर

भेंट होगी? घर के सब वकिाड़ बि है? क्या विरजि भी

156

यहाूँ से चली गयी? अचािक उसे एक बि दरिाजे की

दरारोां से पे्रकाश की िलक वदखाई दी। दबे पाूँि उसी

दरार में ऑांखें लगाकर भीतर का दृश्य देखिे लगा।

विरजि एक सिेद साड़ी पहले, बाल खोले, हाथ में

लेखिी वलये भूवम पर बैठी थी और दीिार की ओर देख-

देखकर कागेज पर वलखती जाती थी, मािो कोई कवि

विचार के समुद्र से मोती विकाल रहा है। लखिी दाूँतोां तले

दबाती, कुछ सोचती और वलखती विर थोड़ी देर के पश्चात्

दीिार की ओर ताकिे लगती। प्रताप बहुत देर तक श्वास

रोके हुए यह विवचि दृश्य देखता रहा। मि उसे बार-बार

ठोकर देता, पर यह धवम का अन्दन्तम गढ़ था। इस बार धमव

का परावजत होिा मािो हृदाम में वपशाच का स्थाि पािा

था। धमव िे इस समय प्रताप को उस खडे् में वगरिे से बचा

वलया, जहाूँ से आमरण उसे विकलिे का सौभाग्य ि होता।

िरि् यह कहिा उवचत होगा वक पाप के खडे् से

बचािेिाला इस समय धमव ि था, िरि् दुष्पररणाम और

लिा का भय ही था। वकसी-वकसी समय जब हमारे

सदभाि परावजत हो जाते हैं, तब दुष्पररणाम का भय ही

हमें कत्तवव्यचु्यत होिे से बचा लेता है। विरजि को पीले

बदि पर एक ऐसा तेज था, जो उसके हृदय की स्वच्छता

और विचार की उच्ता का पररचय दे रहा था। उसके

मुखमण्डल की उज्ज्वलता और दृवि की पवििता में िह

अवग्न थी ; वजसिे प्रताप की दुशे्चिाओां को क्षणमाि में भस्म

कर वदया ! उसे ज्ञाि हो गया और अपिे आन्दत्मक पति पर

ऐसी लिा उत्पन्न हुई वक िही ां खड़ा रोिे लगा।

इन्दन्द्रयोां िे वजतिे विकृि विकार उसके हृदय में उत्पन्न

कर वदये थे, िे सब इस दृश्य िे इस प्रकार लोप कर वदये,

157

जैसे उजाला अांधेरे को दूर कर देता है। इस समय उसे यह

इच्छा हुई वक विरजि के चरणोां पर वगरकर अपिे अपराधोां

की क्षमा माूँगे। जैसे वकसी महात्मा सांन्यासी के समु्मख

जाकर हमारे वचत्त की दशा हो जाती है, उसकी प्रकार

प्रताप के हृदय में स्वत: प्रायवश्चत के विचार उत्पन्न हुए।

वपशाच यहाूँ तक लाया, पर आगे ि ले जा सका। िह उलटे

पाूँिोां विरा और ऐसी तीव्रता से िावटका में आया और

चाहरदीिारी से कूछा, मािो उसका कोई पीछा करता है।

अरूणोदय का समय हो गया था, आकाश मे तारे

विलवमला रहे थे और चक्की का घुर-घुर शब् कव णगोचर

हो रहा था। प्रताप पाूँि दबाता, मिुष्योां की ऑांखें बचाता

गांगाजी की ओर चला। अचािक उसिे वसर पर हाथ रखा

तो टोपी का पता ि था और जेब जेब में घड़ी ही वदखाई

दी। उसका कलेजा सन्न-से हो गया। मुहॅ से एक हृदय-

िेधक आह विकल पड़ी।

कभी-कभी जीिि में ऐसी घटिाूँए हो जाती है, जो

क्षणमाि में मिुष्य का रुप पलट देती है। कभी माता-वपता

की एक वतरछी वचतिि पुि को सुयश के उच् वशखर पर

पहुूँचा देती है और कभी स्त्री की एक वशक्षा पवत के ज्ञाि-

चकु्षओां को खोल देती है। गिवशील पुरुर् अपिे सगोां की

दृवियोां में अपमावित होकर सांसार का भार बििा िही ां

चाहते। मिुष्य जीिि में ऐसे अिसर ईश्वरदत्त होते हैं।

प्रतापचन्द्र के जीिि में भी िह शुभ अिसर था, जब िह

सांकीणव गवलयोां में होता हुआ गांगा वकिारे आकर बैठा और

शोक तथा लिा के अशु्र प्रिावहत करिे लगा। मिोविकार

की पे्ररणाओां िे उसकी अधोगवत में कोई कसर उठा ि

रखी थी परनु्त उसके वलए यह कठोर कृपालु गुरु की

158

ताड़िा प्रमावणत हुई। क्या यह अिुभिवसद्व िही ां है वक विर्

भी समयािुसार अमृत का काम करता है ?

वजस प्रकार िायु का िोांका सुलगती हुई अवग्न को

दहका देता है, उसी प्रकार बहुधा हृदय में दबे हुए उत्साह

को भड़कािे के वलए वकसी बाह्य उद्योग की आिश्यकता

होती है। अपिे दुखोां का अिुभि और दूसरोां की आपवत्त

का दृश्य बहुधा िह िैराग्य उत्पन्न करता है जो सत्सांग,

अध्ययि और मि की प्रिृवत से भी सांभि िही ां। यद्यवप

प्रतापचन्द्र के मि में उत्तम और विस्वाथव जीिि व्यतीत

करिे का विचार पूिव ही से था, तथावप मिोविकार के धके्क

िे िह काम एक ही क्षण में पूरा कर वदया, वजसके पूरा होिे

में िर्व लगते। साधारण दशाओां में जावत-सेिा उसके जीिि

का एक गौण कायव होता, परनु्त इस चेताििी िे सेिा को

उसके जीिि का प्रधाि उदे्दश्य बिा वदया। सुिामा की

हावदवक अवभलार्ा पूणव होिे के सामाि पैदा हो गये। क्या

इि घटिाओां के अन्तगवत कोई अज्ञात पे्ररक शान्दक्त थी?

कौि कह सकता है?

159

21

सवदुर्ी वृजरानी

जब से मुांशी सांजीििलाल तीथव यािा को विकले और

प्रतापचन्द्र प्रयाग चला गया उस समय से सुिामा के जीिि

में बड़ा अन्तर हो गया था। िह ठेके के कायव को उन्नत

करिे लगी। मुांशी सांजीििलाल के समय में भी व्यापार में

इतिी उन्नवत िही ां हुई थी। सुिामा रात-रात भर बैठी ईांट-

पत्थरोां से माथा लड़ाया करती और गारे-चूिे की वचांता में

व्याकुल रहती। पाई-पाई का वहसाब समिती और कभी-

कभी स्वयां कुवलयोां के कायव की देखभाल करती। इि कायो

में उसकी ऐसी प्रिृवत हुई वक दाि और व्रत से भी िह पहले

का-सा पे्रम ि रहा। प्रवतवदि आय िृवद्व होिे पर भी सुिामा

िे व्यय वकसी प्रकार का ि बढ़ाया। कौड़ी-कौड़ी दाूँतो से

पकड़ती और यह सब इसवलए वक प्रतापचन्द्र धििाि हो

जाए और अपिे जीिि-पयवन्त सान्नद रहे।

सुिामा को अपिे होिहार पुि पर अवभमाि था।

उसके जीिि की गवत देखकर उसे विश्वास हो गया था वक

मि में जो अवभलार्ा रखकर मैंिे पुि माूँगा था, िह अिश्य

पूणव होगी। िह कालेज के वप्रांवसपल और प्रोिेसरोां से प्रताप

का समाचार गुप्त रीवत से वलया करती थी ओर उिकी

सूचिाओां का अध्ययि उसके वलए एक रसेचक कहािी के

तुल्य था। ऐसी दशा में प्रयाग से प्रतापचन्द्र को लोप हो

जािे का तार पहुूँचा मािोां उसके हुदय पर िज्र का वगरिा

था। सुिामा एक ठण्डी साूँसे ले, मस्तक पर हाथ रख बैठ

गयी। तीसरे वदि प्रतापचन्द्र की पुस्त, कपडे़ और सामवग्रयाूँ

भी आ पहुूँची, यह घाि पर िमक का वछड़काि था।

160

पे्रमिती के मरे का समाचार पाते ही प्राणिाथ पटिा से

और राधाचरण िैिीताल से चले। उसके जीते-जी आते तो

भेंट हो जाती, मरिे पर आये तो उसके शि को भी देखिे

को सौभाग्य ि हुआ। मृतक-सांस्कार बड़ी धूम से वकया

गया। दो सप्ताह गाूँि में बड़ी धूम-धाम रही। तत्पश्चात्

मुरादाबाद चले गये और प्राणिाथ िे पटिा जािे की तैयारी

प्रारम्भ कर दी। उिकी इच्छा थी वक स्त्रीको प्रयाग पहुूँचाते

हुए पटिा जायूँ। पर सेिती िे हठ वकया वक जब यहाूँ तक

आये हैं, तो विरजि के पास भी अिश्य चलिा चावहए िही ां

तो उसे बड़ा दु:ख होगा। समिेगी वक मुिे असहाय

जािकर इि लोगोां िे भी त्याग वदया।

सेिती का इस उचाट भिि मे आिा मािो पुष्पोां में

सुगन्ध में आिा था। सप्ताह भर के वलए सुवदि का

शुभागमि हो गया। विरजि बहुत प्रसन्न हुई और खूब

रोयी। माधिी िे मुनू्न को अांक में लेकर बहुत प्यार वकया।

पे्रमिती के चले जािे पर विरजि उस गृह में अकेली

रह गई थी। केिल माधिी उसके पास थी। हृदय-ताप और

मािवसक दु:ख िे उसका िह गुण प्रकट कर वदया, जा अब

तक गुप्त था। िह काव्य और पद्य-रचिा का अभ्यास करिे

लगी। कविता सच्ी भाििाओां का वचि है और सच्ी

भाििाएूँ चाहे िे दु:ख होां या सुख की, उसी समय सम्पन्न

होती हैं जब हम दु:ख या सुख का अिुभि करते हैं।

विरजि इि वदिोां रात-रात बैठी भार् में अपिे मिोभािोां के

मोवतयोां की माला गूूँथा करती। उसका एक-एक शब्

करुणा और िैराग्य से पररिूणव होता थाां अन्य कवियोां के

मिोां में वमिोां की िहा-िाह और काव्य-पे्रवतयोां के साधुिाद

161

से उत्साह पैदा होता है, पर विरजि अपिी दु:ख कथा अपिे

ही मि को सुिाती थी।

सेिती को आये दो- तीि वदि बीते थे। एक वदि

विरजि से कहा- मैं तुम्हें बहुधा वकसी ध्याि में मग्न देखती

ूंूँ और कुछ वलखते भी पाती ूंूँ। मुिे ि बताओगी? विरजि

लन्दित हो गयी। बहािा करिे लगी वक कुछ िही ां, योां ही जी

कुछ उदास रहता है। सेिती िे कहा-मैंि मािूूँगी। विर िह

विरजिका बाक्स उठा लायी, वजसमें कविता के वदव्य मोती

रखे हुए थे। वििश होकर विरजि िे अपिे िय पद्य सुिािे

शुरु वकये। मुख से प्रथम पद्य का विकलिा था वक सेिती

के रोएूँ खडे़ हो गये और जब तक सारा पद्य समाप्त ि

हुआ, िह तन्मय होकर सुिती रही। प्राणिाथ की सांगवत िे

उसे काव्य का रवसक बिा वदया था। बार-बार उसके िेि

भर आते। जब विरजि चुप हो गयी तो एक समाूँ बूँधा हुआ

था मािोां को कोई मिोहर राग अभी थम गया है। सेिती िे

विरजि को कण्ठ से वलपटा वलया, विर उसे छोड़कर दौड़ी

हुई प्राणिाथ के पास गयी, जैसे कोई िया बच्ा िया

न्दखलोिा पाकर हर्व से दौड़ता हुआ अपिे सावथयोां को

वदखािे जाता है। प्राणिाथ अपिे अिसर को प्राथविा-पि

वलख रहे थे वक मेरी माता अवत पीवड़ता हो गयी है, अतएि

सेिा में प्रसु्तत होिे में विलम्ब हुआ। आशा करता ूंूँ वक

एक सप्ताह का आकन्दस्मक अिकाश प्रदाि वकया जायगा।

सेिती को देखकर चट आपिा प्राथविा-पि वछपा वलया और

मुस्कराये। मिुष्य कैसा धूतव है! िह अपिे आपको भी धोख

देिे से िही ां चूकता।

सेिती- तविक भीतर चलो, तुम्हें विरजि की कविता

सुििाऊां , िड़क उठोगे।

162

प्राण0- अच्छा, अब उन्ें कविता की चाट हुई है?

उिकी भाभी तो गाया करती थी – तुम तो श्याम बडे़

बेखबर हो।

सेिती- तविक चलकर सुिो, तो पीछे हॅांसिा। मुिे तो

उसकी कविता पर आश्चयव हो रहा है।

प्राण0- चलो, एक पि वलखकर अभी आता ूंां।

सेिती- अब यही मुिे अच्छा िही ां लगता। मैं आपके

पि िोच डालूांगी।

सेिती प्राणिाथ को घसीट ले आयी। िे अभी तक यही

जािते थे वक विरजि िे कोई सामान्य भजि बिाया होगा।

उसी को सुिािे के वलए व्याकुल हो रही होगी। पर जब

भीतर आकर बैठे और विरजि िे लजाते हुए अपिी

भािपूणव कविता ‘पे्रम की मतिाली’ पढ़िी आरम्भ की तो

महाशय के िेि खुल गये। पद्य क्या था, हृदय के दुख की

एक धारा और पे्रम –रहस्य की एक कथा थी। िह सुिते थे

और मुग्ध होकर िुमते थे। शब्ोां की एक-एक योजिा पर,

भािोां के एक-एक उदगार पर लहालोट हुए जाते थे।

उन्ोांिे बहुतेरे कवियाां के काव्य देखे थे, पर यह उच्

विचार, यह िूतिता, यह भािोत्कर्व कही ां दीख ि पड़ा था।

िह समय वचवित हो रहा था जब अरुणोदय के पूिव

मलयाविल लहराता हुआ चलता है, कवलयाां विकवसत होती

हैं, िूल महकते हैं और आकाश पर हल्की लावलमा छा

जाती है। एक –एक शब् में ििविकवसत पुष्पोां की शोभा

और वहमवकरणोां की शीतलता विद्यमाि थी। उस पर

विरजि का सुरीलापि और ध्ववि की मधुरता सोिे में सुगन्ध

थी। ये छि थे, वजि पर विरजि िे हृदय को दीपक की

भ ूँवत जलाया था। प्राणिाथ प्रहसि के उदे्दश्य से आये थे।

163

पर जब िे उठे तो िसु्तत: ऐसा प्रतीत होता था, मािो छाती

से हृदय विकल गया है। एक वदि उन्ोांिे विरजि से कहा-

यवद तुम्हारी कविताऍां छपे, तो उिका बहुत आदर हो।

विरजि िे वसर िीचा करके कहा- मुिे विश्वास िही ां

वक कोई इिको पसि करेगा।

प्राणिाथ- ऐसा सांभि ही िही ां। यवद हृदयोां में कुछ भी

रवसकता है तो तुम्हारे काव्य की अिश्य प्रवतिा होगी। यवद

ऐसे लोग विद्यमाि हैं, जो पुष्पोां की सुगन्ध से आिन्दित हो

जाते हैं, जो पवक्षयोां के कलरि और चाूँदिी की मिोहाररणी

छटा का आिि उठा सकते हैं, तो िे तुम्हारी कविता को

अिश्य हृदय में स्थाि दें गे। विरजि के ह्दय मे िह गुदगुदी

उत्पन्न हुई जो प्रते्यक कवि को अपिे काव्यवचन्ति की

प्रशांसा वमलिे पर, कविता के मुवद्रत होिे के विचार से होती

है। यद्यवप िह िही ां–िही ां करती रही, पर िह, ‘िही ां’, ‘हाूँ’ के

समाि थी। प्रयाग से उि वदिोां ‘कमला’ िाम की अच्छी

पविका विकलती थी। प्राणिाथ िे ‘पे्रम की मतिाली’ को

िहाां भेज वदया। सम्पादक एक काव्य–रवसक महािुभाि थे

कविता पर हावदवक धन्यिाद वदया ओर जब यह कविता

प्रकावशत हुई, तो सावहत्य–सांसार में धूम मच गयी।

कदावचत ही वकसी कवि को प्रथम ही बार ऐसी ख्यावत

वमली हो। लोग पढते और विस्मय से एक-दूसरे का मुांह

ताकते थे। काव्य–पे्रवमयोां मे कई सप्ताह तक मतिाली

बाला के चचे रहे। वकसी को विश्वास ही ि आता था वक यह

एक ििजात कवि की रचिा है। अब प्रवत मास ‘कमला’ के

पृि विरजि की कविता से सुशोवभत होिे लगे और ‘भारत

मवहला’ को लोकमत िे कवियोां के सम्मावित पद पर पहुांचा

वदया। ‘भारत मवहला’ का िाम बचे्-बचे् की वजहिा पर

164

चढ गया। को इस समाचार-पि या पविका ‘भारत मवहला’

को ढूढिे लगते। हाां, उसकी वदव्य शन्दक्तया अब वकसी को

विस्मय में ि डालती उसिे स्वयां कविता का आदशव उच्

कर वदया था।

तीि िर्व तक वकसी को कुछ भी पता ि लगा वक

‘भारत मवहला’ कौि है। विदाि प्राण िाथ से ि रहा गया।

उन्ें विरजि पर भन्दक्त हो गयी थी। िे कई माांस से उसका

जीिि –चररि वलखिे की धुि में थे। सेिती के द्वारा धीरे-

धीरे उन्ोिें उसका सब जीिि चररि ज्ञात कर वदया और

‘भारत मवहला’ के शीर्वक से एक प्रभाि–पूररत लेख वलया।

प्राणिाथ िे पवहले लेख ि वलखा था, परनु्त श्रद्वा िे अभ्यास

की कमी पूरी कर दी थी। लेख अतयन्त रोचक,

समालोचिातमक और भािपूणव था।

इस लेख का मुवदत होिा था वक विरजि को चारोां

तरि से प्रवतिा के उपहार वमलिे लगे। राधाचरण

मुरादाबाद से उसकी भेंट को आये। कमला, उमादेिी,

चन्द्रकुिांर और सन्दखया वजन्ोिें उसे विस्मरण कर वदया था

प्रवतवदि विरजि के दशिों को आिे लगी। बडे बडे

गणमान्य सज्ज्ि जो ममता के अभीमाि से हवकमोां के

समु्मख वसर ि िुकाते, विरजि के द्वार पर दशिव को आते

थे। चन्द्रा स्वयां तो ि आ सकी, परनु्त पि में वलखा – जो

चाहता है वक तुम्हारे चरणें पर वसर रखकर घांटोां रोऊूँ ।

165

22

माधवी

कभी–कभी िि के िूलोां में िह सुगन्दन्धत और रांग-रुप

वमल जाता है जो सजी हुई िावटकाओां को कभी प्राप्त िही ां

हो सकता। माधिी थी तो एक मूखव और दररद्र मिुष्य की

लड़की, परनु्त विधाता िे उसे िाररयोां के सभी उत्तम गुणोां

से सुशोवभत कर वदया था। उसमें वशक्षा सुधार को ग्रहण

करिे की विशेर् योग्यता थी। माधिी और विरजि का

वमलाप उस समय हुआ जब विरजि ससुराल आयी। इस

भोली–भाली कन्या िे उसी समय से विरजि के सांग

असधारण प्रीवत प्रकट करिी आरम्भ की। ज्ञात िही ां, िह

उसे देिी समिती थी या क्या? परनु्त कभी उसिे विरजि

के विरुद्व एक शब् भी मुख से ि विकाला। विरजि भी उसे

अपिे सांग सुलाती और अच्छी–अच्छी रेशमी िस्त्र पवहिाती

इससे अवधक प्रीवत िह अपिी छोटी भवगिी से भी िही ां कर

सकती थी। वचत्त का वचत्त से सम्बन्ध होता है। यवद प्रताप

को िृजरािी से हावदवक समबन्ध था तो िृजरािी भी प्रताप

के पे्रम में पगी हुई थी। जब कमलाचरण से उसके वििाह

की बात पक्की हुई जो िह प्रतापचन्द्र से कम दुखी ि हुई।

हाां लिािश उसके हृदय के भाि कभी प्रकट ि होते थे।

वििाह हो जािे के पश्चात उसे वित्य वचन्ता रहती थी वक

प्रतापचन्द्र के पीवडत हृदय को कैसे तसल्ली दूां? मेरा जीिि

तो इस भाांवत आिि से बीतता है। बेचारे प्रताप के ऊपर ि

जािे कैसी बीतती होगी। माधिी उि वदिोां ग्यारहिें िर्व में

थी। उसके रांग–रुप की सुिरता, स्वभाि और गुण देख–

देखकर आश्चयव होता था। विरजि को अचािक यह ध्याि

166

आया वक क्या मेरी माधिी इस योगय िही ां वक प्रताप उसे

अपिे कण्ठ का हार बिाये? उस वदि से िह माधिी के

सुधार और प्यार में और भी अवधक प्रिृत हो गयी थी िह

सोच-सोचकर मि –ही मि-िूली ि समाती वक जब माधिी

सोलह–सिह िर्व की हो जायेगी, तब मैं प्रताप के पास

जाऊां गी और उससे हाथ जोडकर कूंांगी वक माधिी मेरी

बवहि है। उसे आज से तुम अपिी चेरी समिो क्या प्रताप

मेरी बात टाल देगें? िही ां– िे ऐसा िही ां कर सकते। आिि

तो तब है जब वक चाची स्वयां माधिी को अपिी बूं बिािे

की मुिसे इच्छा करें । इसी विचार से विरजि िे प्रतापचन्द्र

के प्रशसिीय गुणोां का वचि माधिी के हृदय में खी ांचिा

आरम्भ कर वदया था, वजससे वक उसका रोम-रोम प्रताप के

पे्रम में पग जाय। िह जब प्रतापचन्द्र का िणवि करिे लगती

तो स्वत: उसके शब् असामान्य रीवत से मधुर और सरस

हो जाते। शिै:-शिै: माधिी का कामल हृदय पे्रम–रस का

आस्वादि करिे लगा। दपवण में बाल पड़ गया।

भोली माधिी सोचिे लगी, मैं कैसी भाग्यिती ूंां। मुिे

ऐसे स्वामी वमलेंगें वजिके चरण धोिे के योग्य भी मैं िही ां ूंां,

परनु्त क्या िें मुिे अपिी चेरी बिायेगें? कुछ तो, मैं अिश्य

उिकी दासी बिूांगी और यवद पे्रम में कुछ आकर्णव है, तो

मैं उन्ें अिश्य अपिा बिा लूांगी। परनु्त उस बेचारी को

क्या मालूम था वक ये आशाएां शोक बिकर िेिोां के मागव

से बह जायेगी ? उसको पन्द्रहिाां पूरा भी ि हुआ था वक

विरजि पर गृह-वििाश की आपवत्तयाां आ पडी। उस आांधी

के िोांकें िे माधिी की इस कन्दल्पत पुष्प िावठका का

सत्यािाश कर वदया। इसी बीच में प्रताप चन्द्र के लोप होिे

167

का समाचार वमला। आांधी िे जो कुछ अिवशि रखा था िह

भी इस अवग्न िे जलाकर भस्म कर वदया।

परनु्त मािस कोई िसु्त है, तो माधिी प्रतापचन्द्र की

स्त्री बि चुकी थी। उसिे अपिा ति और मि उन्ें समपवण

कर वदया। प्रताप को ज्ञाि िही ां। परनु्त उन्ें ऐसी अमूल्य

िसु्त वमली, वजसके बराबर सांसार में कोई िसु्त िही ां तुल

सकती। माधिी िे केिल एक बार प्रताप को देखा था और

केिल एक ही बार उिके अमृत–िचि सुिे थे। पर इसिे

उस वचि को और भी उििल कर वदया था, जो उसके

हृदय पर पहले ही विरजि िे खी ांच रखा था। प्रताप को

पता िही ां था, पर माधिी उसकी पे्रमावग्न में वदि-प्रवतवदि

घुलती जाती है। उस वदि से कोई ऐसा व्रत िही ां था, जो

माधिी ि रखती हो , कोई ऐसा देिता िही ां था, वजसकी िह

पूजा ि करती हो और िह सब इसवलए वक ईश्वर प्रताप

को जहाां कही ां िे होां कुशल से रखें। इि पे्रम–कल्पिाओां िे

उस बावलका को और अवधक दृढ सुशील और कोमल बिा

वदया। शायद उसके वचत िे यह विणयव कर वलया था वक

मेरा वििाह प्रतापचन्द्र से हो चुका। विरजि उसकी यह

दशा देखती और रोती वक यह आग मेरी ही लगाई हुई है।

यह ििकुसुम वकसके कण्ठ का हार बिेगा? यह वकसकी

होकर रहेगी? हाय रे वजस चीज को मैंिे इतिे पररश्रम से

अांकुररत वकया और मधुक्षीर से सी ांचा, उसका िूल इस

प्रकार शाखा पर ही कुम्हलाया जाता है। विरजि तो भला

कविता करिे में उलिी रहती, वकनु्त माधिी को यह

सन्तोर् भी ि था उसके पे्रमी और साथी उसके वप्रयतम का

ध्याि माि था–उस वप्रयतम का जो उसके वलए सिवथा

अपररवचत था पर प्रताप के चले जािे के कई मास पीछे

168

एक वदि माधिी िे स्वप्न देखा वक िे सतयासी हो गये है।

आज माधिी का अपार पे्रम प्रकट हांआ है। आकाशिाणी

सी हो गयी वक प्रताप िे अिश्य सांन्यास ते वलया। आज से

िह भी तपस्विी बि गयी उसिे सुख और विलास की

लालसा हृदय से विकाल दी।

जब कभी बैठे–बैठे माधिी का जी बहुत आकुल होता

तो िह प्रतापचिद्र के घर चली जाती। िहाां उसके वचत की

थोडी देर के वलए शाांवत वमल जाती थी। परनु्त जब अन्त में

विरजि के पविि और आदशो जीिि िे यह गाठ खोल दी

िे गांगा यमुिा की भाांवत परस्पर गले वमल गयी ां , तो

माधिी का आिागमि भी बढ गया। सुिामा के पास वदि –

वदि भर बैठी रह जाती, इस भिि की, एक-एक अांगुल

पृथ्वी प्रताप का स्मारक थी। इसी आूँगि में प्रताप िे काठ

के घोडे दौड़ाये और इसी कुण्ड में कागज की िािें

चलायी थी ां। िौकरी तो स्यात काल के भांिर में पडकर डूब

गयी ां, परनु्त घोडा अब भी विद्वमाि थी। माधिी िे उसकी

जजीरत अवसथ्योां में प्राण डाल वदया और उसे िावटका में

कुण्ड के वकिारे एक पाटलिृक्ष की छायोां में बाांध वदया।

यही ां भिि प्रतापचन्द्र का शयिागार था।माधिी अब उसे

अपिे देिता का मन्दिर समिती है। इस पलांग िे पांताप

को बहुत वदिोां तक अपिे अांक में थपक–थपककर सुलाया

था। माधिी अब उसे पुष्पोां से सुसन्दज्ज्त करती है। माधिी िे

इस कमरे को ऐसा सुसन्दित कर वदया, जैसे िह कभी ि

था। वचिोां के मुख पर से धूल का यिविका उठ गयी। लैम्प

का भाग्य पुि: चमक उठा। माधिी की इस अिित पे्रम-

भान्दक्त से सुिामा का दु:ख भी दूर हो गया। वचरकाल से

उसके मुख पर प्रतापचन्द्र का िाम अभी ि आया था।

169

विरजि से मेल-वमलाप हो गया, परनु्त दोिोां न्दस्त्रयोां में कभी

प्रतापचन्द्र की चचाव भी ि होती थी। विरजि लिा की

सांकुवचत थी और सुिामा क्रोध से। वकनु्त माधिी के

पे्रमािल से पत्थर भी वपघल गया। अब िह पे्रमविह्रिल

होकर प्रताप के बालपि की बातें पूछिे लगती तो सुिामा

से ि रहा जाता। उसकी आूँखोां से जल भर आता। तब दोिोां

रोती और वदि-वदि भर प्रताप की बातें समाप्त ि होती।

क्या अब माधिी के वचत्त की दशा सुिामा से वछप सकती

थी? िह बहुधा सोचती वक क्या तपन्दस्विी इसी प्रकार पे्रमवग्न

मे जलती रहेगी और िह भी वबिा वकसी आशा के? एक

वदि िृजरािी िे ‘कमला’ का पैकेट खोला, तो पहले ही पृि

पर एक परम प्रवतभा-पूणव वचि विविध रांगोां में वदखायी

पड़ा। यह वकसी महात्म का वचि था। उसे ध्याि आया वक

मैंिे इि महात्मा को कही ां अिश्य देखा है। सोचते-सोचते

अकस्मात उसका याि प्रतापचन्द्र तक जा पहुांचा। आिि

के उमांग में उछल पड़ी और बोली – माधिी, तविक यहाां

आिा।

माधिी िूलोां की क्याररयाां सी ांच रही ां थी। उसके वचत्त–

वििोद का आजकल िही ां कायव था। िह साड़ी पािी में

लथपथ, वसर के बाल वबखरे माथे पर पसीिे के वबिु और

ििोां में पे्रम का रस भरे हुए आकर खडी हो गयी। विरजि

िे कहा – आ तूिे एक वचि वदखाऊां ।

माधिी िे कहा – वकसका वचि है , देखूां।

माधिी िे वचि को यािपूिवक देखा। उसकी आांखोां में

आांसू आ गये।

विरजि – पहचाि गयी ?

170

माधिी - क्योां? यह स्वरुप तो कई बार स्वप्न में देख

चुकी ूंां? बदि से काांवत बरस रही है।

विरजि – देखो िृतान्त भी वलखा है।

माधिी िे दूसरा पन्ना उल्टा तो ‘स्वामी बालाजी’ शीर्वक

लेख वमला थोडी देर तक दोांिोां तन्मय होकर यह लेख

पढती रही ां, तब बातचीत होिे लगी।

विरजि – मैं तो प्रथम ही जाि गयी थी वक उन्ोिें

अिश्य सन्यास ले वलया होगा।

माधिी पृथ्वी की ओर देख रही थी, मुख से कुछ ि

बोली।

विरजि –तब में और अब में वकतिा अन्तर है।

मुखमण्डल से काांवत िलक रही है। तब ऐसे सुिर ि थे।

माधिी –ूंां।

विरजि – इश्ववर उिकी सहायता करे। बड़ी तपस्या की

है।(िेिो में जल भरकर) कैसा सांयोग है। हम और िे सांग–

सांग खेले, सांग–सांग रहे, आज िे सन्यासी हैं और मैं

वियोवगिी। ि जािे उन्ें हम लोांगोां की कुछ सुध भी हैं या

िही ां। वजसिे सन्यास ले वलया, उसे वकसी से क्या मतलब?

जब चाची के पास पि ि वलखा तो भला हमारी सुवध क्या

होगी? माधिी बालकपि में िे कभी योगी–योगी खेलते तो मैं

वमठाइयोां वक वभक्षा वदया करती थी।

माधिी िे रोते हुए ‘ि जािे कब दशवि होांगें’ कहकर

लिा से वसर िुका वलया।

विरजि– शीघ्र ही आयांगें। प्राणिाथ िे यह लेख बहुत

सुिर वलखा है।

माधिी– एक-एक शब् से भान्दक्त टपकती है।

171

विरजि -िकृ्ततता की कैसी प्रशांसा की है! उिकी

िाणी में तो पहले ही जादू था, अब क्या पूछिा! प्राण्िाथ

केवचत पर वजसकी िाणी का ऐसा प्रभाि हुआ, िह समस्त

पृथ्वी पर अपिा जादू िैला सकता है।

माधिी – चलो चाची के यहाूँ चलें।

विरजि- हाूँ उिको तो ध्याि ही िही ां रहाां देखें, क्या

कहती है। प्रसन्न तो क्या होगी।

मधिी- उिको तो अवभलार्ा ही यह थी, प्रसन्न क्योां ि

होगी ां?

उिकी तो अवभलार्ा ही यह थी, प्रसन्न क्योां ि होांगी?

विरजि- चल? माता ऐसा समाचार सुिकर कभी प्रसन्न

िही ां हो सकती। दोांिो स्त्रीयाूँ घर से बाहर विकली ां। विरजि

का मुखकमल मुरिाया हुआ था, पर माधिी का अांग–अांग

हर्व वसला जाता था। कोई उससे पूछे –तेरे चरण अब पृथ्वी

पर क्योां िही ां पहले? तेरे पीले बदि पर क्योां प्रसन्नता की

लाली िलक रही है? तुिे कौि-सी सम्पवत्त वमल गयी? तू

अब शोकान्दित और उदास क्योां ि वदखायी पडती? तुिे

अपिे वप्रयतम से वमलिे की अब कोई आशा िही ां, तुि पर

पे्रम की दृवि कभी िही ां पहुची विर तू क्योां िूली िही ां

समाती? इसका उत्तर माधिी देगी? कुछ िही ां। िह वसर

िुका लेगी, उसकी आांखें िीचे िुक जायेंगी, जैसे डवलयाां

िूलोां के भार से िुक जाती है। कदावचत् उिसे कुछ

अशु्रवबिु भी टपक पडे; वकनु्त उसकी वजह्रिा से एक शबद

भी ि विकलेगा।

माधिी पे्रम के मद से मतिाली है। उसका हृदय पे्रम

से उन्मत हैं। उसका पे्रम, हाट का सौदा िही ां। उसका

पे्रमवकसी िसु्त का भूखा सिही ां है। िह पे्रम के बदले पे्रम

172

िही ां चाहती। उसे अभीमाि है वक ऐसे पिीिता पुरुर् की

मूवतव मेरे हृदय में प्रकाशमाि है। यह अभीमाि उसकी

उन्मता का कारण है, उसके पे्रम का पुरस्कार है।

दूसरे मास में िृजरािी िे, बालाजी के स्वागत में एक

प्रभािशाली कविता वलखी यह एक विलक्षण रचिा थी। जब

िह मुवद्रत हुई तो विद्या जगत् विरजि की काव्य–प्रवतभा से

पररवचत होते हुए भी चमतृ्कत हो गया। िह कल्पिा-रुपी

पक्षी, जो काव्य–गगि मे िायुमण्डल से भी आगे विकल

जाता था, अबकी तारा बिकर चमका। एक–एक शब्

आकाशिाणी की ज्ोवत से प्रकावशत था वजि लोगोां िे यह

कविता पढी िे बालाजी के भ्क्क्त हो गये। कवि िह सांपेरा है

वजसकी वपटारी में स पोां के स्थाि में हृदय बि होते हैं।

173

23

कािी में आगमन

जब से िृजरािी का काव्य–चन्द्र उदय हुआ, तभी से

उसके यहाां सदैि मवहलाओां का जमघट लगा रहता था।

िगर मे स्त्रीयोां की कई सभाएां थी उिके प्रबांध का सारा

भार उसी को उठािा पडता था। उसके अवतररक्त अन्य

िगरोां से भी बहुधा स्त्रीयोां उससे भेंट करिे को आती रहती

थी जो तीथवयािा करिे के वलए काशी आता, िह विरजि से

अिरश्य वमलता। राज धमववसांह िे उसकी कविताओां का

सिािंग–सुिर सांग्रह प्रकावशत वकया था। उस सांग्रह िे

उसके काव्य–चमत्कार का डांका, बजा वदया था। भारतिर्व

की कौि कहे, यूरोप और अमेररका के प्रवतवित कवियोां िे

उसे उिकी काव्य मिोहरता पर धन्यिाद वदया था।

भारतिर्व में एकाध ही कोई रवसक मिुष्य रहा होगा

वजसका पुस्तकालय उसकी पुस्तक से सुशोवभत ि होगा।

विरजि की कविताओां को प्रवतिा करिे िालोां मे बालाजी

का पद सबसे ऊां चा था। िे अपिी प्रभािशावलिी

िकृ्तताओां और लेखोां में बहुधा उसी के िाक्योां का प्रमाण

वदया करते थे। उन्ोांिे ‘सरस्वती’ में एक बार उसके सांग्रह

की सविस्तार समालोचिा भी वलखी थी।

एक वदि प्रात: काल ही सीता, चन्द्रकुां िरी ,रुकमणी

और रािी विरजि के घर आयी ां। चन्द्रा िे इि वसत्र्ोां को

िां शव पर वबठाया और आदर सत्कार वकया। विरजि िहाां

िही ां थी क्योांवक उसिे प्रभात का समय काव्य वचन्ति के

वलए वियत कर वलया था। उस समय यह वकसी आिश्यक

कायव के अवतररक््त सन्दखयोां से वमलती–जुलती िही ां थी।

174

िावटका में एक रमणीक कुां ज था। गुलाब की सगन्दन्धत से

सुरवभत िायु चलती थी। िही ां विरजि एक वशलायि पर

बैठी हुई काव्य–रचिा वकया करती थी। िह काव्य रुपी

समुद्र से वजि मोवतयोां को विकालती, उन्ें माधिी लेखिी

की माला में वपरोां वलया करती थी। आज बहुत वदिोां के बाद

िगरिावसयोां के अिुरोध करिे पर विरजि िे बालाजी की

काशी आिे का विमांिण देिे के वलए लेखिी को उठाया

था। बिारस ही िह िगर था, वजसका स्मरण कभी–कभी

बालाजी को व्यग्र कर वदया करता था। वकनु्त काशी िालोां

के विरांतर आग्रह करिे पर भी उिहें काशी आिे का

अिकाश ि वमलता था। िे वसांहल और रां गूि तक गये,

परनु्त उन्ोिें काशी की ओर मुख ि िेरा इस िगर को िे

अपिा परीक्षा भिि समिते थे। इसवलए आज विरजि

उन्ें काशी आिे का विमांिण दे रही हैं। लोगें का विचार आ

जाता है, तो विरजि का चन्द्रािि चमक उठता है, परनु्त

इस समय जो विकास और छटा इि दोिोां पुष्पोां पर है, उसे

देख-देखकर दूर से िूल लन्दित हुए जाते हैं।

िौ बजते –बजते विरजि घर में आयी। सेिती िे कहा–

आज बड़ी देर लगायी।

विरजि – कुन्ती िे सूयव को बुलािे के वलए वकतिी

तपस्या की थी।

सीता – बाला जी बडे़ वििूर हैं। मैं तो ऐसे मिुष्य से

कभी ि बोलूां।

रुकवमणी- वजसिे सांन्यास ले वलया, उसे घर–बार से

क्या िाता?

चन्द्रकुूँ िरर– यहाां आयेगें तो मैं मुख पर कह दूांगी वक

महाशय, यह िखरे कहाां सीखें ?

175

रुकमणी – महारािी। ऋवर्-महात्माओां का तो

वशिाचार वकया करोां वजह्रिा क्या है कतरिी है।

चन्द्रकुूँ िरर– और क्या, कब तक सन्तोर् करें जी। सब

जगह जाते हैं, यही ां आते पैर थकते हैं।

विरजि– (मुस्कराकर) अब बहुत शीघ्र दशवि पाओगें।

मुिे विश्वास है वक इस मास में िे अिश्य आयेगें।

सीता– धन्य भाग्य वक दशवि वमलेगें। मैं तो जब उिका

िृताांत पढती ूंां यही जी चाहता हैं वक पाऊां तो चरण

पकडकर घण्ोां रोऊूँ ।

रुकमणी – ईश्वर िे उिके हाथोां में बड़ा यश वदया।

दारािगर की रािी सावहबा मर चुकी थी साांस टूट रही थी

वक बालाजी को सूचिा हुई। िट आ पहुांचे और क्षण–माि

में उठाकर बैठा वदया। हमारे मुांशीजी (पवत) उि वदिोां िही ां

थें। कहते थे वक रािीजी िे कोश की कुां जी बालाजी के

चरणोां पर रख दी ओर कहा–‘आप इसके स्वामी हैं’।

बालाजी िे कहा–‘मुिे धि की आिश्यक्ता िही ां अपिे राज्

में तीि सौ गौशलाएां खुलिा दीवजयें’। मुख से विकलिे की

देर थी। आज दारािगर में दूध की िदी बहती हैं। ऐसा

महात्मा कौि होगा।

चन्द्रकुिांरर – राजा ििलखा का तपेवदक उन्ी की

बूवटयोां से छूटा। सारे िैद्य डाक्टर जिाब दे चुके थे। जब

बालाजी चलिे लगें, तो महारािी जी िे िौ लाख का मोवतयोां

का हार उिके चरणोां पर रख वदया। बालाजी िे उसकी

ओर देखा तक िही ां।

रािी – कैसे रुखे मिुष्य हैं।

रुकमणी - ह , और क्या, उन्ें उवचत था वक हार ले

लेते– िही ां –िही ां कण्ठ में डाल लेते।

176

विरजि – िही ां, लेकर रािी को पवहिा देते। क्योां

सखी?

रािी – हाां मैं उस हार के वलए गुलामी वलख देती।

चन्द्रकुां िरर – हमारे यह (पवत) तो भारत–सभा के

सभ्य बैठे हैं ढाई सौ रुपये लाख यत्न करके रख छोडे थे,

उन्ें यह कहकर उठा ले गये वक घोड़ा लेंगें। क्या भारत–

सभािाले वबिा घोडे़ के िही ां चलते?

रािी–कल ये लोग शे्रणी बाांधकर मेरे घर के सामिे से

जा रहे थे,बडे भले मालूम होते थे।

इतिे ही में सेिती ििीि समाचार–पि ले आयी।

विरजि िे पूछा – कोई ताजा समाचार है?

सेिती–हाां, बालाजी माविकपुर आये हैं। एक अहीर िे

अपिी पुि् के वििाह का विमांिण भेजा था। उस पर प्रयाग

से भारतसभा के सभ्योां वहत रात को चलकर माविकपुर

पहुांचे। अहीरोां िे बडे उत्साह और समारोह के साथ उिका

स्वागत वकया है और सबिे वमलकर पाांच सौ गाएां भेंट दी हैं

बालाजी िे िधू को आशीिावरद वदया ओर दुले् को हृदय से

लगाया। पाांच अहीर भारत सभा के सदस्य वियत हुए।

विरजि-बडे़ अचे्छ समाचार हैं। माधिी, इसे काट के

रख लेिा। और कुछ?

सेिती- पटिा के पावसयोां िे एक ठाकुदद्वारा बििाया

हैं िहाूँ की भारतसभा िे बड़ी धूमधाम से उत्स्व वकया।

विरजि – पटिा के लोग बडे उत्साह से कायव कर रहें

हैं।

चन्द्रकुूँ िरर– गडूररयाां भी अब वसिूर लगायेंगी। पासी

लोग ठाकुर द्वारे बििायांगें ?

177

रुकमणी-क्योां, िे मिुष्य िही ां हैं ? ईश्वर िे उन्ें िही ां

बिाया। आप ही ां अपिे स्वामी की पूजा करिा जािती हैं ?

चन्द्रकुूँ िरर- चलो, हटो, मुिें पावसयोां से वमलाती हो।

यह मुिे अच्छा िही ां लगता।

रुकवमणी – हाूँ, तुम्हारा रांग गोरा है ि? और िस्त्र-

आभूर्णोां से सजी बहुत हो। बस इतिा ही अन्तर है वक

और कुछ?

चन्द्रकुूँ िरर- इतिा ही अन्तर क्योां हैं? पृत्वी आकाश से

वमलाती हो? यह मुिे अच्छा िही ां लगता। मुिे कछिाहोां

िांश में ूंूँ, कुछ खबर है?

रुन्दिणी- हाूँ, जािती ूंूँ और िही ां जािती थी तो अब

जाि गयी। तुम्हारे ठाकुर साहब (पवत) वकसी पासी से

बढकर मल्ल –युद्व करेंगें? यह वसिव टेढी पाग रखिा जािते

हैं? मैं जािती ूंां वक कोई छोटा –सा पासी भी उन्ें काूँख –

तले दबा लेगा।

विरजि - अच्छा अब इस वििाद को जािे तो। तुम

दोिोां जब आती हो, लडती हो आती हो।

सेिती- वपता और पुि का कैसा सांयोग हुआ है? ऐसा

मालुम होता हैं वक मुांशी शवलग्राम िे प्रतापचन्द्र ही के वलए

सांन्यास वलया था। यह सब उन्ी ां कर वशक्षा का िल हैं।

रन्दिणी – हाां और क्या? मुन्घ्शी शवलग्राम तो अब

स्वामी ब्रह्रमािि कहलाते हैं। प्रताप को देखकर पहचाि

गये होगें ।

सेिती – आिि से िूले ि समाये होगें।

रुन्दिणी-यह भी ईश्वर की पे्ररणा थी, िही ां तो प्रतापचन्द्र

मािसरोिर क्या करिे जाते?

सेिती–ईश्वर की इच्छा के वबिा कोई बात होती है?

178

विरजि–तुम लोग मेरे लालाजी को तो भूल ही गयी।

ऋर्ीकेश में पहले लालाजी ही से प्रतापचिद्र की भेंट हुई

थी। प्रताप उिके साथ साल-भर तक रहे। तब दोिोां आदमी

मािसरोिर की ओर चले।

रुन्दिणी–हाां, प्राणिाथ के लेख में तो यह िृतान्त था।

बालाजी तो यही कहते हैं वक मुांशी सांजीििलाल से वमलिे

का सौभाग्य मुिे प्राप्त ि होता तो मैं भी माांगिे–खािेिाले

साधुओां में ही होता।

चन्द्रकुां िरर-इतिी आत्मोन्नवत के वलए विधाता िे पहले

ही से सब सामाि कर वदये थे।

सेिती–तभी इतिी–सी अिस्था में भारत के सुयव बिे

हुए हैं। अभी पचीसिें िर्व में होगें?

विरजि – िही ां, तीसिाां िर्व है। मुिसे साल भर के जेठे

हैं।

रुन्दिणी -मैंिे तो उन्ें जब देखा, उदास ही देखा।

चन्द्रकुां िरर – उिके सारे जीिि की अवभलार्ाओां पर

ओांस पड़ गयी। उदास क्योां ि होांगी?

रुन्दिणी – उन्ोिे तो देिीजी से यही िरदाि माांगा

था।

चन्द्रकुां िरर – तो क्या जावत की सेिा गृहस्थ बिकर

िही ां हो सकती?

रुन्दिणी – जावत ही क्या, कोई भी सेिा गृहस्थ बिकर

िही ां हो सकती। गृहस्थ केिल अपिे बाल-बच्ोां की सेिा

कर सकता है।

चन्द्रकुां िरर – करिेिाले सब कुछ कर सकते हैं, ि

करिेिालोां के वलए सौ बहािे हैं।

179

एक मास और बीता। विरजि की िई कविता स्वागत

का सिेशा लेकर बालाजी के पास पहुची परनु्त यह ि

प्रकट हुआ वक उन्ोांिे विमांिण स्वीकार वकया या िही ां।

काशीिासी प्रतीक्षा करते–करते थक गये। बालाजी

प्रवतवदि दवक्षण की ओर बढते चले जाते थे। विदाि लोग

विराश हो गये और सबसे अधीक विराशा विरजि को हुई।

एक वदि जब वकसी को ध्याि भी ि था वक बालाजी

आयेंगे, प्राणिाथ िे आकर कहा–बवहि। लो प्रसन्न हो

जाओ, आज बालाजी आ रहे हैं।

विरजि कुछ वलख रही थी, हाथोां से लेखिी छूट पडी।

माधिी उठकर द्वार की ओर लपकी। प्राणिाथ िे हांसकर

कहा – क्या अभी आ थोडे़ ही गये हैं वक इतिी उवद्वग्न हुई

जाती हो।

माधिी – कब आयांगें इधर से हीहोकर जायांगें िए?

प्राणिाथ – यह तो िही ां ज्ञात है वक वकधर से आयेंगें –

उन्ें आडम्बर और धूमधाम से बडी घृणा है। इसवलए पहले

से आिे की वतवथ िही ां वियत की। राजा साहब के पास

आज प्रात:काल एक मिुष्य िे आकर सूचिा दी वक

बालाजी आ रहे हैं और कहा है वक मेरी आगिािी के वलए

धूमधाम ि हो, वकनु्त यहाां के लोग कब मािते हैं? अगिािी

होगी, समारोह के साथ सिारी विकलेगी, और ऐसी वक इस

िगर के इवतहास में स्मरणीय हो। चारोां ओर आदमी छूटे

हुए हैं। ज्ोांही उन्ें आते देखेंगे, लोग प्रते्यक मुहले्ल में

टेलीिोि द्वारा सूचिा दे दें गे। कालेज और सकूलोां के

विद्याथी िवदवयाां पहिे और िन्दण्डयाां वलये इन्तजार में खडे हैं

घर–घर पुष्प–िर्ाव की तैयाररयाां हो रही हैं बाजार में दुकािें

सजायी जा रही ां हैं। िगर में एक धूम सी मची हुई है।

180

माधिी - इधर से जायेगें तो हम रोक लेंगी।

प्राणिाथ – हमिे कोई तैयारी तो की िही ां, रोक क्या

लेंगे? और यह भी तो िही ां ज्ञात हैं वक वकधर से जायेंगें।

विरजि – (सोचकर) आरती उतारिे का प्रबन्ध तो

करिा ही होगा।

प्राणिाथ – ह अब इतिा भी ि होगा? मैं बाहर

वबछािि आवद वबछािाता ूंां।

प्राणिाथ बाहर की तैयाररयोां में लगे, माधिी िूल चुििे

लगी, विरजि िे चाांदी का थाल भी धोकर स्वच्छ वकया।

सेिती और चन्द्रा भीतर सारी िसु्तएां क्रमािुसार सजािे

लगी ां।

माधिी हर्व के मारे िूली ि समाती थी। बारम्बार

चौक–चौांककर द्वार की ओर देखती वक कही ां आ तो िही ां

गये। बारम्बार काि लगाकर सुिती वक कही ां बाजे की ध्ववि

तो िही ां आ रही है। हृदय हर्व के मारे धड़क रहा था। िूल

चुिती थी, वकनु्त ध्याि दूसरी ओर था। हाथोां में वकतिे ही

काांटे चुभा वलए। िूलोां के साथ कई शाखाऍां मरोड़ डाली ां।

कई बार शाखाओां में उलिकर वगरी। कई बार साड़ी काांटोां

में िां सा दी ां उसस समय उसकी दशा वबलकुल बच्ोां की-

सी थी।

वकनु्त विरजि का बदि बहुत सी मवलि था। जैसे

जलपूणव पाि तविक वहलिे से भी छलक जाता है, उसी

प्रकार ज्ोां-ज्ोां प्राचीि घटिाएूँ स्मरण आती थी, त्योां-त्योां

उसके िेिोां से अशु्र छलक पड़ते थे। आह! कभी िे वदि थे

वक हम और िह भाई-बवहि थे। साथ खेलते, साथ रहते थे।

आज चौदह िर्व व्यतीत हुए, उिकास मुख देखिे का

सौभग्य भी ि हुआ। तब मैं तविक भी रोती िह मेरे ऑांसू

181

पोछतें और मेरा जी बहलाते। अब उन्ें क्या सुवध वक ये

ऑांखे वकतिी रोयी हैं और इस हृदय िे कैसे-कैसे कि

उठाये हैं। क्या खबर थी की हमारे भाग्य ऐसे दृश्य

वदखायेंगे? एक वियोवगि हो जायेगी और दूसरा सन्यासी।

अकस्मात् माधिी को ध्याि आया वक सुिमस को

कदावचत बाजाजी के आिे की सुचिा ि हुई हो। िह

विरजि के पास आक बोली- मैं तविक चची के यह ूँ जाती

ूंूँ। ि जािे वकसी िे उिसे कहा या िही ां?

प्राणिाथ बाहर से आ रहे थे, यह सुिकर बोले- िह ूँ

सबसे पहले सूचिा दी गयी ां भली-भ ूँवत तैयाररय ूँ हो रही है।

बालाजी भी सीधे घर ही की ओर पधारें गे। इधर से अब ि

आयेंगे।

विरजि- तो हम लोगोां का चलिा चावहए। कही ां देर ि

हो जाए। माधिी- आरती का थाल लाऊूँ ?

विरजि- कौि ले चलेगा ? महरी को बुला लो

(चौांककर) अरे! तेरे हाथोां में रुवधर कह ूँ से आया?

माधिी- ऊूँ ह! िूल चुिती थी, क ूँटे लग गये होांगे।

चन्द्रा- अभी ियी साड़ी आयी है। आज ही िाड़ के

रख दी।

माधिी- तुम्हारी बला से!

माधिी िे कह तो वदया, वकनु्त ऑखें अशु्रपूणव हो गयी ां।

चन्द्रा साधारणत: बहुत भली स्त्री थी। वकनु्त जब से बाबू

राधाचरण िे जावत-सेिा के वलए िौकरी से इस्तीिा दे वदया

था िह बालाजी के िाम से वचढ़ती थी। विरजि से तो कुछ

ि कह सकती थी, परनु्त माधिी को छेड़ती रहती थी।

विरजि िे चन्द्रा की ओर घूरकर माधिी से कहा- जाओ,

182

सिूक से दूसरी साड़ी विकाल लो। इसे रख आओ। राम-

राम, मार हाथ छलिी कर डाले!

माधिी- देर हो जायेगी, मैं इसी भ ूँवत चलूूँगी।

विरजि- िही, अभी घण्ा भर से अवधक अिकाश है।

यह कहकर विरजि िे प्यार से माधिी के हाथ धोये।

उसके बाल गूांथे, एक सुिर साड़ी पवहिायी, चादर ओढ़ायी

और उसे हृदय से लगाकर सजल िेिोां से देखते हुए कहा-

बवहि! देखो, धीरज हाथ से ि जाय।

माध्वी मुस्कराकर बोली- तुम मेरे ही सांग रहिा, मुिे

सभलती रहिा। मुिे अपिे हृदय पर भरोसा िही ां है।

विरजि ताड़ गई वक आज पे्रम िे उन्मत्ततास का पद

ग्रहण वकया है और कदावचत् यही उसकी पराकािा है। ह ूँ

! यह बािली बालू की भीत उठा रही है।

माधिी थोड़ी देर के बाद विरजि, सेिती, चन्द्रा आवद

कई स्त्रीयोां के सांग सुिाम के घर चली। िे िह ूँ की तैयाररय ूँ

देखकर चवकत हो गयी ां। द्वार पर एक बहुत बड़ा चूँदोिा

वबछािि, शीशे और भ ूँवत-भाूँवत की सामवग्रयोां से सुसन्दित

खड़ा था। बधाई बज रही थी! बडे़-बडे़ टोकरोां में वमठाइय ूँ

और मेिे रखे हुए थे। िगर के प्रवतवित सभ्य उत्तमोत्तम

िस्त्र पवहिे हुए स्वागत करिे को खडे़ थे। एक भी विटि

या गाड़ी िही ां वदखायी देती थी, क्योांवक बालाजी सिवदा

पैदल चला करते थे। बहुत से लोग गले में िोवलय ूँ डालें हुए

वदखाई देते थे, वजिमें बालाजी पर समपवण करिे के वलये

रुपये-पैसे भरे हुए थे। राजा धमववसांह के प ूँचोां लड़के रांगीि

िस्त्र पवहिे, केसररया पगड़ी बाांधे, रेशमी िन्दण्डयाां कमरे से

खोसें वबगुल बजा रहे थे। ज्ोांवह लोगोां की दृवि विरजि पर

पड़ी, सहस्ोां मस्तक वशिाचार के वलए िुक गये। जब ये

183

देवियाां भीतर गयी ां तो िहाां भी आांगि और दालाि ििागत

िधू की भाांवत सुसन्दित वदखे! सैकड़ो स्त्रीयाां मांगल गािे के

वलए बैठी थी ां। पुष्पोां की रावशयाूँ ठौर-ठौर पड़ी थी। सुिामा

एक शे्वत साड़ी पवहिे सन्तोर् और शान्दन्त की मूवतव बिी हुई

द्वार पर खड़ी थी। विरजि और माधिी को देखते ही सजल

ियि हो गयी। विरजि बोली- चची! आज इस घर के भाग्य

जग गये।

सुिामा िे रोकर कहा- तुम्हारे कारण मुिे आज यह

वदि देखिे का सौभाग्य हुआ। ईश्वर तुम्हें इसका िल दे।

दुन्दखया माता के अन्त:करण से यह आशीिावद

विकला। एक माता के शाप िे राजा दशरथ को पुिशोक में

मृतु्य का स्वाद चखाया था। क्या सुिामा का यह आशीिावद

प्रभािहीि होगा?

दोिोां अभी इसी प्रकार बातें कर रही थी ां वक घणे् और

शांख की ध्ववि आिे लगी। धूम मची की बालाजी आ पहुांचे।

स्त्रीयोां िे मांगलगाि आरम्भ वकया। माधिी िे आरती का

थाल ले वलया मागव की ओर टकटकी बाांधकर देखिे लगी।

कुछ ही काल मे अदै्वताम्बरधारी िियुिकोां का समुदाय

दखयी पड़ा। भारत सभा के सौ सभ्य घोड़ोां पर सिार चले

आते थे। उिके पीछे अगवणत मिुष्योां का िुण्ड था। सारा

िगर टूट पड़ा। कने्ध से कन्धा वछला जाता था मािो समुद्र

की तरांगें बढ़ती चली आती हैं। इस भीड़ में बालाजी का

मुखचन्द्र ऐसा वदखायी पड़ताथ मािो मेघाच्छवदत चन्द्र

उदय हुआ है। ललाट पर अरुण चिि का वतलक था और

कण्ठ में एक गेरुए रांग की चादर पड़ी हुई थी।

सुिामा द्वार पर खड़ी थी, ज्ोांही बालाजी का स्वरुप

उसे वदखायी वदया धीरज हाथ से जाता रहा। द्वार से बाहर

184

विकल आयी और वसर िुकाये, िेिोां से मुक्तहार गूांथती

बालाजी के ओर चली। आज उसिे अपिा खोया हुआ लाल

पाया है। िह उसे हृदय से लगािे के वलए उवद्वग्न है।

सुिामा को इस प्रकार आते देखकर सब लोग रुक

गये। विवदत होता था वक आकाश से कोई देिी उतर आयी

है। चतुवदवक सन्नाटा छा गया। बालाजी िे कई डग आगे

बढ़कर मातीजी को प्रमाण वकया और उिके चरणोां पर

वगर पडे़। सुिामा िे उिका मस्तक अपिे अांक में वलया।

आज उसिे अपिा खोया हुआ लाल पाया है। उस पर

आांखोां से मोवतयोां की िृवि कर रही ां है।

इस उत्साहिद्ववक दृश्य को देखकर लोगोां के हृदय

जातीयता के मद में मतिाले हो गये ! पचास सहस् स्वर से

ध्ववि आयी-‘बालाजी की जय।’ मेघ गजाव और चतुवदवक से

पुष्पिृवि होिे लगी। विर उसी प्रकार दूसरी बार मेघ की

गजविा हुई। ‘मुांशी शावलग्राम की जय’ और सहस्ोां मिुषे्य

स्वदेश-पे्रम के मद से मतिाले होकर दौडे़ और सुिामा के

चरणोां की रज माथे पर मलिे लगे। इि ध्ववियोां से सुिामा

ऐसी प्रमुवदत हो रही ां थी जैसे महुअर के सुििे से िावगि

मतिाली हो जाती है। आज उसिे अपिा खोया

हुआ लाल पाया है। अमूल्य रत्न पािे से िह रािी हो गयी है।

इस रत्न के कारण आज उसके चरणोां की रज लोगो के िेिोां

का अांजि और माथे का चिि बि रही है।

अपूिव दृश्य था। बारम्बार जय-जयकार की ध्ववि

उठती थी और स्वगव के वििावसयोां को भातर की जागृवत का

शुभ-सांिाद सुिाती थी। माता अपिे पुि को कलेजे से

लगाये हुए है। बहुत वदि के अिन्तर उसिे अपिा खोया

हुआ लाल है, िह लाल जो उसकी जन्म-भर की कमाई था।

185

िूल चारोां और से विछािर हो रहे है। स्वणव और रत्नोां की

िर्ाव हो रही है। माता और पुि कमर तक पुष्पोां के समुद्र में

डूबे हुए है। ऐसा प्रभािशाली दृश्य वकसके िेिोां िे देखा

होगा।

सुिामा बालाजी का हाथ पकडे़ हुए घरकी ओर चली।

द्वार पर पहुूँचते ही स्त्रीय ूँ मांगल-गीत गािे लगी ां और माधिी

स्वणव रवचत थाल दीप और पुष्पोां से आरती करिे लगी।

विरजि िे िूलोां की माला-वजसे माधिी िे अपिे रक्त से

रां वजत वकया था- उिके गले में डाल दी। बालाजी िे सजल

िेिोां से विरजि की ओर देखकर प्रणाम वकया।

माधिी को बालाजी के दशिव की वकतिी अवभलार्ा

थी। वकनु्त इस समय उसके िेि पृथ्वी की ओर िुके हुए है।

िह बालाजी की ओर िही ां देख सकती। उसे भय है वक मेरे

िेि पृथ्वी हृदय के भेद को खोल दें गे। उिमे पे्रम रस भरा

हुआ है। अब तक उसकी सबसे बड़ी अवभलार्ा यह थी वक

बालाजी का दशिव पाऊूँ । आज प्रथम बार माधिी के हृदय

में ियी अवभलार्ाएां उत्पन्न हुई, आज अवभलार्ाओां िे वसर

उठाया है, मगर पूणव होिे के वलए िही ां, आज अवभलार्ा-

िावटका में एक ििीि कली लगी है, मगर न्दखलिे के वलए

िही ां, िरि मुरिािे वमट्टी में वमल जािे के वलए। माधिी को

कौि समिाये वक तू इि अवभलार्ाओां को हृदय में उत्पन्न

होिे दे। ये अवभलार्ाएां तुिे बहुत रुलायेंगी। तेरा पे्रम

काल्पविक है। तू उसके स्वाद से पररवचत है। क्या अब

िास्तविक पे्रम का स्वाद वलया चाहती है?

186

24

पे्रम का स्वप्न

मिुष्य का हृदय अवभलार्ाओां का क्रीड़ास्थल और

कामिाओां का आिास है। कोई समय िह थाां जब वक

माधिी माता के अांक में खेलती थी। उस समय हृदय

अवभलार्ा और चेिाहीि था। वकनु्त जब वमट्टी के घरौांदे

बिािे लगी उस समय मि में यह इच्छा उत्पन्न हुई वक मैं

भी अपिी गुवड़या का वििाह करुूँ गी। सब लड़वकयाां अपिी

गुवड़याां ब्याह रही हैं, क्या मेरी गुवड़याूँ कुूँ िारी रहेंगी? मैं

अपिी गुवड़याूँ के वलए गहिे बििाऊूँ गी, उसे िस्त्र

पहिाऊूँ गी, उसका वििाह रचाऊूँ गी। इस इच्छा िे उसे कई

मास तक रुलाया। पर गुवड़योां के भाग्य में वििाह ि बदा

था। एक वदि मेघ वघर आये और मूसलाधार पािी बरसा।

घरौांदा िृवि में बह गया और गुवड़योां के वििाह की

अवभलार्ा अपूणव हो रह गयी।

कुछ काल और बीता। िह माता के सांग विरजि के

यह ूँ आिे-जािे लगी। उसकी मीठी-मीठी बातें सुिती और

प्रसन्न होती, उसके थाल में खाती और उसकी गोद में

सोती। उस समय भी उसके हृदय में यह इच्छा थी वक मेरा

भिि परम सुिर होता, उसमें चाांदी के वकिाड़ लगे होते,

भूवम ऐसी स्वच्छ होती वक मक्खी बैठे और विसल जाए ! मैं

विरजि को अपिे घर ले जाती, िहाां अचे्छ-अचे्छ पकिाि

बिाती और न्दखलाती, उत्तम पलांग पर सुलाती और भली-

भ ूँवत उसकी सेिा करती। यह इच्छा िर्ों तक हृदय में

चुटवकयाूँ लेती रही। वकनु्त उसी घरौांदे की भाूँवत यह घर भी

ढह गया और आशाएूँ विराशा में पररिवतवत हो गयी।

187

कुछ काल और बीता, जीिि-काल का उदय हुआ।

विरजि िे उसके वचत्त पर प्रतापचन्द्र का वचत्त खी ांचिा

आरम्भ वकया। उि वदिोां इस चचाव के अवतररक्त उसे कोई

बात अच्छी ि लगती थी। विदाि उसके हृदय में प्रतापचन्द्र

की चेरी बििे की इच्छा उत्पन्न हुई। पडे़-पडे़ हृदय से बातें

वकया करती। राि में जागरण करके मि का मोदक खाती।

इि विचारोां से वचत्त पर एक उन्माद-सा छा जाता, वकनु्त

प्रतापचन्द्र इसी बीच में गुप्त हो गये और उसी वमट्टी के

घरौांदे की भाूँवत ये हिाई वकले ढह गये। आशा के स्थाि पर

हृदय में शोक रह गया।

अब विराशा िे उसक हृदय में आशा ही शेर् ि रखा।

िह देिताओां की उपासिा करिे लगी, व्रत रखिे लगी वक

प्रतापचन्द्र पर समय की कुदृवि ि पड़िे पाये। इस प्रकार

अपिे जीिि के कई िर्व उसिे तपन्दस्विी बिकर व्यतीत

वकये। कन्दल्पत पे्रम के उल्लास मे चूर होती। वकनु्त आज

तपन्दस्विी का व्रत टूट गया। मि में िूति अवभलार्ाओां िे

वसर उठाया। दस िर्व की तपस्या एक क्षण में भांग हो गयी।

क्या यह इच्छा भी उसी वमट्टी के घरौांदे की भाूँवत पददवलत

हो जाएगी?

आज जब से माधिी िे बालाजी की आरती उतारी

है,उसके आूँसू िही ां रुके। सारा वदि बीत गया। एक-एक

करके तार विकलिे लगे। सूयव थककर वछप गय और

पक्षीगण घोसलोां में विश्राम करिे लगे, वकनु्त माधिी के िेि

िही ां थके। िह सोचती है वक हाय! क्या मैं इसी प्रकार रोिे

के वलए बिायी गई ूंूँ? मैं कभी हूँसी भी थी वजसके कारण

इतिा रोती ूंूँ? हाय! रोते-रोते आधी आयु बीत गयी, क्या

शेर् भी इसी प्रकार बीतेगी? क्या मेरे जीिि में एक वदि भी

188

ऐसा ि आयेगा, वजसे स्मरण करके सन्तोर् हो वक मैंिे भी

कभी सुवदि देखे थे? आज के पहले माधिी कभी ऐसे

िैराश्य-पीवड़त और वछन्नहृदया िही ां हुई थी। िह अपिे

कन्दल्पत पेम मे विमग्न थी। आज उसके हृदय में ििीि

अवभलार्ाएूँ उत्पन्न हुई है। अशु्र उन्ी ां के पे्रररत है। जो हृदय

सोलह िर्व तक आशाओां का आिास रहा हो, िही इस

समय माधिी की भाििाओां का अिुमाि कर सकता है।

सुिामा के हृदय मे ििीि इच्छाओां िे वसर उठाया है।

जब तक बालजी को ि देखा था, तब तक उसकी सबसे

बड़ी अवभलार्ा यह थी वक िह उन्ें आूँखें भर कर देखती

और हृदय-शीतल कर लेती। आज जब आूँखें भर देख

वलया तो कुछ और देखिे की अच्छा उत्पन्न हुई। शोक ! िह

इच्छा उत्पन्न हुई माधिी के घरौांदे की भाूँवत वमट्टी में वमल

जािे क वलए।

आज सुिामा, विरजि और बालाजी में साांयकाल तक

बातें होती रही। बालाजी िे अपिे अिुभिोां का िणवि वकया।

सुिामा िे अपिी राम कहािी सुिायी और विरजि िे कहा

थोड़ा, वकनु्त सुिा बहुत। मुांशी सांजीििलाल के सन्यास का

समाचार पाकर दोिोां रोयी ां। जब दीपक जलिे का समयआ

पहुूँचा, तो बालाजी गांगा की ओर सांध्या करिे चले और

सुिामा भोजि बिािे बैठी। आज बहुत वदिोां के पश्चात

सुिामा मि लगाकर भोजि बिा रही थी। दोिोां बात करिे

लगी ां।

सुिामा-बेटी! मेरी यह हावदवक अवभलार्ा थी वक मेरा

लड़का सांसार में प्रवतवित हो और ईश्वर िे मेरी लालसा पूरी

कर दी। प्रताप िे वपता और कुल का िाम उज्ज्वल कर

वदया। आज जब प्रात:काल मेरे स्वामीजी की जय सुिायी

189

जा रही थी तो मेरा हृदय उमड़-उमड़ आया था। मैं केिल

इतिा चाहती ूंूँ वक िे यह िैराग्य त्याग दें। देश का उपकार

करिे से मैं उन्ें िही ां राकती। मैंिे तो देिीजी से यही

िरदाि माूँगा था, परनु्त उन्ें सांन्यासी के िेश में देखकर

मेरा हृदय विदीणव हुआ जाता है।

विरजि सुिामा का अवभप्राय समि गयी। बोली-चाची!

यह बात तो मेरे वचत्त में पवहले ही से जमी हुई है। अिसर

पाते ही अिश्य छेडूूँगी।

सुिामा-अिसर तो कदावचत ही वमले। इसका कौि

वठकाि? अभी जी में आये, कही ां चल दें। सुिती ूंूँ सोटा

हाथ में वलये अकेले ििोां में घूमते है। मुिसे अब बेचारी

माधिी की दशा िही ां देखी जाती। उसे देखती ूंूँ तो जैसे

कोई मेरे हृदय को मसोसिे लगता है। मैंिे बहुतेरी स्त्रीयाूँ

देखी ां और अिेक का िृत्तान्त पुस्तकोां में पढ़ा ; वकनु्त ऐसा

पे्रम कही ां िही ां देखा। बेचारी िे आधी आयु रो-रोकर काट

दी और कभी मुख ि मैला वकया। मैंिे कभी उसे रोते िही ां

देखा ; परनु्त रोिे िाले िेि और हूँसिे िाले मुख वछपे िही ां

रहते। मुिे ऐसी ही पुििधू की लालसा थी, सो भी ईश्वर िे

पूणव कर दी। तुमसे सत्य कहती ूंूँ, मैं उसे पुििधू समिती

ूंूँ। आज से िही ां, िर्ों से।

िृजरािी- आज उसे सारे वदि रोते ही बीता। बहुत

उदास वदखायी देती है।

सुिामा- तो आज ही इसकी चचाव छेड़ो। ऐसा ि हो वक

कल वकसी ओर प्रस्थाि कर दे, तो विर एक युग प्रतीक्षा

करिी पडे़।

190

िृजरािी- (सोचकर) चचाव करिे को तो मैं करुूँ , वकनु्त

माधिी स्वयां वजस उत्तमता के साथ यह कायव कर सकती है,

कोई दूसरा िही ां कर सकता।

सुिामा- िह बेचारी मुख से क्या कहेगी?

िृजरािी- उसके िेि सारी कथा कह दें गे?

सुिामा- ललू्ल अपिे मि में क्या कहांगे?

िृजरािी- कहेंगे क्या ? यह तुम्हारा भ्रम है जो तुम

उसे कुूँ िारी समि रही हो। िह प्रतापचन्द्र की पत्नी बि

चुकी। ईश्वर के यहाूँ उसका वििाह उिसे हो चुका यवद

ऐसा ि होता तो क्या जगत् में पुरुर् ि थे? माधिी जैसी स्त्री

को कौि िेिोां में ि स्थाि देगा? उसिे अपिा आधा यौिि

व्यथव रो-रोकर वबताया है। उसिे आज तक ध्याि में भी

वकसी अन्य पुरुर् को स्थाि िही ां वदया। बारह िर्व से

तपन्दस्विी का जीिि व्यतीत कर रही है। िह पलांग पर िही ां

सोयी। कोई रांगीि िस्त्र िही ां पहिा। केश तक िही ां गुूँथाये।

क्या इि व्यिहारोां से िही ां वसद्व होता वक माधिी का वििाह

हो चुका? हृदय का वमलाप सच्ा वििाह है। वसिूर का

टीका, ग्रन्दन्थ-बन्धि और भाूँिर- ये सब सांसार के ढकोसले

है।

सुिामा- अच्छा, जैसा उवचत समिो करो। मैं केिल

जग-हूँसाई से डरती ूंूँ।

रात को िौ बजे थे। आकाश पर तारे वछटके हुए थे।

माधिी िावटका में अकेली वकनु्त अवत दूर हैं। क्या कोई

िहाूँ तक पहुूँच सकता है? क्या मेरी आशाएूँ भी उन्ी

िक्षिोां की भाूँवत है? इतिे में विरजि िे उसका हाथ

पकड़कर वहलाया। माधिी चौांक पड़ी।

विरजि-अूँधेरे में बैठी क्या कर रही है?

191

माधिी- कुछ िही ां, तो तारोां को देख रही ूंूँ। िे कैसे

सुहाििे लगते हैं, वकनु्त वमल िही ां सकते।

विरजि के कलेजे मे बछी-सी लग गयी। धीरज धरकर

बोली- यह तारे वगििे का समय िही ां है। वजस अवतवथ के

वलए आज भोर से ही िूली िही ां समाती थी, क्या इसी प्रकार

उसकी अवतवथ-सेिा करेगी?

माधिी- मैं ऐसे अवतवथ की सेिा के योग्य कब ूंूँ?

विरजि- अच्छा, यहाूँ से उठो तो मैं अवतवथ-सेिा की

रीवत बताऊूँ ।

दोिोां भीतर आयी ां। सुिामा भोजि बिा चुकी थी।

बालाजी को माता के हाथ की रसोई बहुत वदिोां में प्राप्त

हुई। उन्ोांिे बडे़ पे्रम से भोजि वकया। सुिामा न्दखलाती

जाती थी और रोती जाती थी। बालाजी खा पीकर लेटे, तो

विरजि िे माधिी से कहा- अब यहाूँ कोिे में मुख बाूँधकर

क्योां बैठी हो?

माधिी- कुछ दो तो खाके सो रूंूँ, अब यही जी चाहता

है।

विरजि- माधिी! ऐसी विराश ि हो। क्या इतिे वदिोां

का व्रत एक वदि में भांग कर देगी?

माधिी उठी, परनु्त उसका मि बैठा जाता था। जैसे

मेघोां की काली-काली घटाएूँ उठती है और ऐसा प्रतीत

होता है वक अब जल-थल एक हो जाएगा, परनु्त अचािक

पछिा िायु चलिे के कारण सारी घटा काई की भाूँवत िट

जाती है, उसी प्रकार इस समय माधिी की गवत हो रही है।

िह शुभ वदि देखिे की लालसा उसके मि में बहुत

वदिोां से थी। कभी िह वदि भी आयेगा जब वक मैं उसके

दशवि पाऊूँ गी? और उिकी अमृत-िाणी से श्रिण तृप्त

192

करुूँ गी। इस वदि के वलए उसिे मान्याएूँ कैसी मािी थी?

इस वदि के ध्याि से ही उसका हृदय कैसा न्दखला उठता

था!

आज भोर ही से माधिी बहुत प्रसन्न थी। उसिे बडे़

उत्साह से िूलोां का हार गूूँथा था। सैकड़ोां काूँटे हाथ में चुभा

वलये। उन्मत्त की भाूँवत वगर-वगर पड़ती थी। यह सब हर्व

और उमांग इसीवलए तो था वक आज िह शुभ वदि आ गया।

आज िह वदि आ गया वजसकी ओर वचरकाल से आूँखे

लगी हुई थी ां। िह समय भी अब स्मरण िही ां, जब यह

अवभलार्ा मि में िही ां, जब यह अवभलार्ा मि में ि रही

हो। परनु्त इस समय माधिी के हृदय की िह गाते िही ां है।

आिि की भी सीमा होती है। कदावचत् िह माधिी के

आिि की सीमा थी, जब िह िावटका में िमू-िमूकर

िूलोां से आूँचल भर रही थी। वजसिे कभी सुख का स्वाद ही

ि चखा हो, उसके वलए इतिा ही आिि बहुत है। िह

बेचारी इससे अवधक आिि का भार िही ां सूँभाल सकती।

वजि अधरोां पर कभी हूँसी आती ही िही ां, उिकी मुस्काि

ही हूँसी है। तुम ऐसोां से अवधक हूँसी की आशा क्योां करते

हो? माधिी बालाजी की ओर परनु्त इस प्रकार इस प्रकार

िही ां जैसे एक ििेली बूं आशाओां से भरी हुई शृ्रांगार वकये

अपिे पवत के पास जाती है। िही घर था वजसे िह अपिे

देिता का मन्दिर समिती थी। जब िह मन्दिर शून्य था, तब

िह आ-आकर आूँसुओां के पुष्प चढ़ाती थी। आज जब

देिता िे िास वकया है, तो िह क्योां इस प्रकार मचल-मचल

कर आ रही है?

रावि भली-भाूँवत आद्रव हो चुकी थी। सड़क पर घांटोां के

शब् सुिायी दे रहे थे। माधिी दबे पाूँि बालाजी के कमरे

193

के द्वार तक गयी। उसका हृदय धड़क रहा था। भीतर जािे

का साहस ि हुआ, मािो वकसी िे पैर पकड़ वलए। उले्ट

पाूँि विर आयी और पृथ्वी पर बैठकर रोिे लगी। उसके

वचत्त िे कहा- माधिी! यह बड़ी लिा की बात है। बालाजी

की चेरी सही, मािा वक तुिे उिसे पे्रम है ; वकनु्त तू उसकी

स्त्री िही ां है। तुिे इस समय उिक गृह में रहिा उवचत िही ां

है। तेरा पे्रम तुिे उिकी पत्नी िही ां बिा सकता। पे्रम और

िसु्त है और सोहाग और िसु्त है। पे्रम वचत की प्रिृवत्त है

और ब्याह एक पविि धमव है। तब माधिी को एक वििाह

का स्मरण हो आया। िर िे भरी सभा मे पत्नी की बाूँह

पकड़ी थी और कहा था वक इस स्त्री को मैं अपिे गृह की

स्वावमिी और अपिे मि की देिी समिता रूंूँगा। इस सभा

के लोग, आकाश, अवग्न और देिता इसके साक्षी रहे। हा! ये

कैसे शुभ शब् है। मुिे कभी ऐसे शब् सुििे का मौका

प्राप्त ि हुआ! मैं ि अवग्न को अपिा साक्षी बिा सकती ूंूँ, ि

देिताओां को और ि आकाश ही को; परनु्त है अवग्न! है

आकाश के तारो! और हे देिलोक-िावसयोां! तुम साक्षी

रहिा वक माधिी िे बालाजी की पविि मूवतव को हृदय में

स्थाि वदया, वकनु्त वकसी विकृि विचार को हृदय में ि आिे

वदया। यवद मैंिे घर के भीतर पैर रखा हो तो है अवग्न! तुम

मुिे अभी जलाकर भस्म कर दो। हे आकाश! यवद तुमिे

अपिे अिेक िेिोां से मुिे गृह में जाते देखा, तो इसी क्षण

मेरे ऊपर इन्द्र का िज्र वगरा दो।

माधिी कुछ काल तक इसी विचार मे मग्न बैठी रही।

अचािक उसके काि में भक-भक की ध्ववि आयीय।

उसिे चौांककर देखा तो बालाजी का कमरा अवधक

प्रकावशत हो गया था और प्रकाश न्दखड़वकयोां से बाहर

194

विकलकर आूँगि में िैल रहा था। माधिी के पाूँि तले से

वमट्टी विकल गयी। ध्याि आया वक मेज पर लैम्प भभक

उठा। िायु की भाूँवत िह बालाजी के कमरे में घुसी। देखा

तो लैम्प िटक पृथ्वी पर वगर पड़ा है और भूतल के

वबछािि में तेल िैल जािे के कारण आग लग गयी है।

दूसरे वकिारे पर बालाजी सुख से सो रहे थे। अभी तक

उिकी विद्रा ि खुली थी। उन्ोांिे कालीि समेटकर एक

कोिे में रख वदया था। विदु्यत की भाूँवत लपककर माधिी िे

िह कालीि उठा वलया और भभकती हुई ज्वाला के ऊपर

वगरा वदया। धमाके का शब् हुआ तो बालाजी िे चौांककर

आूँखें खोली। घर मे धुआूँ भरा था और चतुवदवक तेल की

दुगवन्ध िैली हुई थी। इसका कारण िह समि गये। बोले-

कुशल हुआ, िही ां तो कमरे में आग लग गयी थी।

माधिी- जी हाूँ! यह लैम्प वगर पड़ा था।

बालाजी- तुम बडे़ अिसर से आ पहुूँची।

माध्वी- मैं यही ां बाहर बैठी हुई थी।

बालाजी –तुमको बड़ा कि हुआ। अब जाकर शयि

करो। रात बहुत हा गयी है।

माधिी– चली जाऊूँ गी। शयि तो वित्य ही करिा है।

यअ अिसर ि जािे विर कब आये?

माधिी की बातोां से अपूिव करुणा भरी थी। बालाजी िे

उसकी ओर ध्याि-पूिवक देखा। जब उन्ोांिे पवहले माधिी

को देखा था,उसक समय िह एक न्दखलती हुई कली थी

और आज िह एक मुरिाया हुआ पुष्प है। ि मुख पर

सौियव था, ि िेिोां में आिि की िलक, ि माूँग में सोहाग

का सांचार था, ि माथे पर वसांदूर का टीका। शरीर में

आभूर्ाणोां का वचन् भी ि था। बालाजी िे अिुमाि से जािा

195

वक विधाता से जाि वक विधाता िे ठीक तरुणािस्था में इस

दुन्दखया का सोहाग हरण वकया है। परम उदास होकर

बोले-क्योां माधिी! तुम्हारा तो वििाह हो गया है ि?

माधिी के कलेज मे कटारी चुभ गयी। सजल िेि

होकर बोली- हाूँ, हो गया है।

बालाजी- और तुम्हार पवत?

माधिी- उन्ें मेरी कुछ सुध ही िही ां। उिका वििाह

मुिसे िही ां हुआ।

बालाजी विन्दस्मत होकर बोले- तुम्हारा पवत करता क्या

है?

माधिी- देश की सेिा।

बालाजी की आूँखोां के सामिे से एक पदाव सा हट गया।

िे माधिी का मिोरथ जाि गये और बोले- माधिी इस

वििाह को वकतिे वदि हुए?

बालाजी के िेि सजल हो गये और मुख पर जातीयता

के मद का उन्माद– सा छा गया। भारत माता! आज इस

पवततािस्था में भी तुम्हारे अांक में ऐसी-ऐसी देवियाूँ खेल

रही हैं, जो एक भाििा पर अपिे यौिि और जीिि की

आशाऍां समपवण कर सकती है। बोले- ऐसे पवत को तुम

त्याग क्योां िही ां देती?

माधिी िे बालाजी की ओर अवभमाि से देखा और

कहा- स्वामी जी! आप अपिे मुख से ऐसे कहें! मैं आयव-

बाला ूंूँ। मैंिे गान्धारी और सावििी के कुल में जन्म वलया

है। वजसे एक बार मि में अपिा पवत माि ेाचुकी उसे िही ां

त्याग सकती। यवद मेरी आयु इसी प्रकार रोते-रोते कट

जाय, तो भी अपिे पवत की ओर से मुिे कुछ भी खेद ि

होगा। जब तक मेरे शरीर मे प्राण रहेगा मैं ईश्वर से उिक

196

वहत चाहती रूंूँगी। मेरे वलए यही क्या कमक है, जो ऐसे

महात्मा के पे्रम िे मेरे हृदय में वििास वकया है? मैं इसी का

अपिा सौभाग्य समिती ूंूँ। मैंिे एक बार अपिे स्वामी को

दूर से देखा था। िह वचि एक क्षण के वलए भी आूँखोां से

िही उतरा। जब कभी मैं बीमार हुई ूंूँ, तो उसी वचि िे मेरी

शुशु्रर्ा की है। जब कभी मैंिे वियोेेग के आूँसू बहाये हैं, तो

उसी वचि िे मुिे सान्घ्त्विा दी है। उस वचि िाले पवत को

मै। कैसे त्याग दूूँ? मैं उसकी ूंूँ और सदैि उसी का रूंूँगी।

मेरा हृदय और मेरे प्राण सब उिकी भेंट हो चुके हैं। यवद िे

कहें तो आज मैं अवग्न के अांक मांेे ऐसे हर्वपूिवक जा बैठूूँ

जैसे िूलोां की शैय्या पर। यवद मेरे प्राण उिके वकसी काम

आयें तो मैं उसे ऐसी प्रसन्नता से दे दूूँ जैसे कोई उपसाक

अपिे इिदेि को िूल चढ़ाता हो।

माधिी का मुखमण्डल पे्रम-ज्ोवत से अरुणा हो रहा

था। बालाजी िे सब कुछ सुिा और चुप हो गये। सोचिे

लगे- यह स्त्री है ; वजसिे केिल मेरे ध्याि पर अपिा जीिि

समपवण कर वदया है। इस विचार से बालाजी के िेि

अशु्रपूणव हो गये। वजस पे्रम िे एक स्त्री का जीिि जलाकर

भस्म कर वदया हो उसके वलए एक मिुष्य के घैयव को जला

डालिा कोई बात िही ां! पे्रम के सामिे धैयव कोई िसु्त िही ां

है। िह बोले- माधिी तुम जैसी देवियाूँ भारत की गौरि है।

मैं बड़ा भाग्यिाि ूंूँ वक तुम्हारे पे्रम-जैसी अिमोल िसु्त इस

प्रकार मेरे हाथ आ रही है। यवद तुमिे मेरे वलए योवगिी

बििा स्वीकार वकया है तो मैं भी तुम्हारे वलए इस सन्यास

और िैराग्य का त्याग कर सकता ूंूँ। वजसके वलए तुमिे

अपिे को वमटा वदया है।, िह तुम्हारे वलए बड़ा-से-बड़ा

बवलदाि करिे से भी िही ां वहचवकचायेगा।

197

माधिी इसके वलए पहले ही से प्रसु्तत थी, तुरन्त बोली-

स्वामीजी! मैं परम अबला और बुवद्वहीि सिी ूंूँ। परनु्त मैं

आपको विश्वास वदलाती ूंूँ वक विज विलास का ध्याि आज

तक एक पल के वलए भी मेरे मि मे िही आया। यवद

आपिे यह विचार वकया वक मेर पे्रम का उदे्दश्य केिल यह

क आपके चरणोां में साांसाररक बन्धिोां की बेवड़याूँ डाल दूूँ ,

तो (हाथ जोड़कर) आपिे इसका तत्व िही ां समिा। मेरे पे्रम

का उदे्दश्य िही था, जो आज मुिे प्राप्त हो गया। आज का

वदि मेरे जीिि का सबसे शुभ वदि है। आज में अपिे

प्राणिाथ के समु्मख खड़ी ूंूँ और अपिे कािोां से उिकी

अमृतमयी िाणी सुि रही ूंूँ। स्वामीजी! मुिे आशा ि थी

वक इस जीिि में मुिे यह वदि देखिे का सौभाग्य होगा।

यवद मेरे पास सांसार का राज् होता तो मैं इसी आिि से

उसे आपके चरणोां में समपवण कर देती। मैं हाथ जोड़कर

आपसे प्राथविा करती ूंूँ वक मुिे अब इि चरणोां से अलग ि

कीवजयेगा। मै। सन्यस ले लूूँगी और आपके सांग रूंूँगी।

िैरावगिी बिूूँगी, भभूवत रमाऊूँ गी; परन््त आपका सांग ि

छोडूूँगी। प्राणिाथ! मैंिे बहुत दु:ख सहे हैं, अब यह जलि

िही ां सकी जाती।

यह कहते-कहते माधिी का कां ठ रुूँ ध गया और आूँखोां

से पे्रम की धारा बहिे लगी। उससे िहाूँ ि बैठा गया।

उठकर प्रणाम वकया और विरजि के पास आकर बैठ

गयी। िृजरािी िे उसे गले लगा वलया और पूछा– क्या

बातचीत हुई?

माधिी- जो तुम चहाती थी ां।

िृजरािी- सच, क्या बोले?

माधिी- यह ि बताऊूँ गी।

198

िृजरािी को मािो पड़ा हुआ धि वमल गया। बोली-

ईश्वर िे बहुत वदिोां में मेरा मिारेथ पूरा वकया। मे अपिे

यहाूँ से वििाह करुूँ गी।

माधिी िैराश्य भाि से मुस्करायी। विरजि िे कन्दम्पत

स्वर से कहा- हमको भूल तो ि जायेगी? उसकी आूँखोां से

आूँसू बहिे लगे। विर िह स्वर सूँभालकर बोली- हमसे तू

वबछुड़ जायेगी।

माधिी- मैं तुम्हें छोड़कर कही ां ि जाऊूँ गी।

विरजि- चल; बातें िे बिा।

माधिी- देख लेिा।

विरजि- देखा है। जोड़ा कैसा पहिेगी?

माधिी- उज्ज्वल, जैसे बगुले का पर।

विरजि- सोहाग का जोड़ा केसररया रांग का होता है।

माधिी- मेरा शे्वत रहेगा।

विरजि- तुिे चन्द्रहार बहुत भाता था। मैं अपिा दे

दूूँगी।

माधिी-हार के स्थाि पर कां ठी दे देिा।

विरजि- कैसी बातें कर रही हैं?

माधिी- अपिे शृ्रांगार की!

विरजि- तेरी बातें समि में िही ां आती। तू इस समय

इतिी उदास क्योां है? तूिे इस रत्न के वलए कैसी-कैसी

तपस्याएूँ की, कैसा-कैसा योग साधा, कैसे-कैसे व्रत वकये

और तुिे जब िह रत्न वमल गया तो हवर्वत िही ां देख पड़ती!

माधिी- तुम वििाह की बातीचीत करती हो इससे मुिे

दु:ख होता है।

विरजि- यह तो प्रसन्न होिे की बात है।

199

माधिी- बवहि! मेरे भाग्य में प्रसन्नता वलखी ही िही ां!

जो पक्षी बादलोां में घोांसला बिािा चाहता है िह सिवदा

डावलयोां पर रहता है। मैंिे विणवय कर वलया है वक जीिि

की यह शेर् समय इसी प्रकार पे्रम का सपिा देखिे में

काट दूूँगी।

200

25

सवदाई

दूसरे वदि बालाजी स्थाि-स्थाि से वििृत होकर राजा

धमववसांह की प्रतीक्षा करिे लगे। आज राजघाट पर एक

विशाल गोशाला का वशलारोपण होिे िाला था, िगर की

हाट-बाट और िीवथयाूँ मुस्काराती हुई जाि पड़ती थी।

सडृक के दोिोां पाश्वव में िणे्ड और िवणयाूँ लहरा रही थी ां।

गृहद्वार िूलोां की माला पवहिे स्वागत के वलए तैयार थे,

क्योांवकआज उस स्वदेश-पे्रमी का शुभगमि है, वजसिे

अपिा सिवस्व देश के वहत बवलदाि कर वदया है।

हर्व की देिी अपिी सखी-सहेवलयोां के सांग टहल रही

थी। िायु िमूती थी। दु:ख और विर्ाद का कही ां िाम ि था।

ठौर-ठौर पर बधाइयाूँ बज रही थी ां। पुरुर् सुहाििे िस्त्र

पहिे इठालते थे। स्त्रीयाूँ सोलह शृ्रांगार वकये मांगल-गीत

गाती थी। बालक-मण्डली केसररया सािा धारण वकये

कलोलें करती थी ां हर पुरुर्-स्त्री के मुख से प्रसन्नता िलक

रही थी, क्योांवक आज एक सचे् जावत-वहतैर्ी का शुभगमि

है वजसेिे अपिा सिवस्व जावत के वहत में भेंट कर वदया है।

बालाजी अब अपिे सुहदोां के सांग राजघाट की ओर

चले तो सूयव भगिाि िे पूिव वदशा से विकलकर उिका

स्वागत वकया। उिका तेजस्वी मुखमण्डल ज्ोां ही लोगोां िे

देखा सहस्ो मुखोां से ‘भारत माता की जय’ का घोर शब्

सुिायी वदया और िायुमांडल को चीरता हुआ आकाश-

वशखर तक जा पहुांिा। घण्ोां और शांखोां की ध्ववि वििावदत

हुई और उत्सि का सरस राग िायु में गूूँजिे लगा। वजस

प्रकार दीपक को देखते ही पतांग उसे घेर लेते हैं उसी

201

प्रकार बालाजी को देखकर लोग बड़ी शीघ्रता से उिके

चतुवदवक एकि हो गये। भारत-सभा के सिा सौ सभ्योां िे

आवभिादि वकया। उिकी सुिर िावदवयाूँ और मिचले

घोड़ोां िेिोां में खूब जाते थे। इस सभा का एक-एक सभ्य

जावत का सच्ा वहतैर्ी था और उसके उमांग-भरे शब्

लोगोां के वचत्त को उत्साह से पूणव कर देते थें सड़क के दोिोां

ओर दशवकोां की शे्रणी थी। बधाइयाूँ बज रही थी ां। पुष्प और

मेिोां की िृवि हो रही थी। ठौर-ठौर िगर की ललिाएूँ शृ्रांगार

वकये, स्वणव के थाल में कपूर, िूल और चिि वलये आरती

करती जाती थी ां। और दूकािे ििागता िधू की भाूँवत

सुसन्दित थी ां। सारा िगेर अपिी सजािट से िावटका को

लन्दित करता था और वजस प्रकार श्रािण मास में काली

घटाएां उठती हैं और रह-रहकर िि की गरज हृदय को

कूँ पा देती है और उसी प्रकार जिता की उमांगिद्ववक ध्ववि

(भारत माता की जय) हृदय में उत्साह और उते्तजिा उत्पन्न

करती थी। जब बालाजी चौक में पहुूँचे तो उन्ोांिे एक

अदु्भत दृश्य देखा। बालक-िृि ऊदे रांग के लेसदार कोट

पवहिे, केसररया पगड़ी बाूँधे हाथोां में सुिर छवड़याूँ वलये

मागव पर खडे थे। बालाजी को देखते ही िे दस-दस की

शे्रवणयोां में हो गये एिां अपिे डणे्ड बजाकर यह ओजस्वी

गीत गािे लगे:-

बालाजी तेरा आिा मुबारक होिे।

धवि-धवि भाग्य हैं इस िगरी के ; धवि-धवि भाग्य

हमारे।।

धवि-धवि इस िगरी के बासी जहाूँ तब चरण पधारे।

बालाजी तेरा आिा मुबारक होिे।।

202

कैसा वचत्ताकर्वक दृश्य था। गीत यद्यवप साधारण था,

परनु्त अिके और सधे हुए स्वरोां िे वमलकर उसे ऐसा

मिोहर और प्रभािशाली बिा वदया वक पाांि रुक गये।

चतुवदवक सन्नाटा छा गया। सन्नाटे में यह राग ऐसा सुहाििा

प्रतीत होता था जैसे रावि के सन्नाटे में बुलबुल का चहकिा।

सारे दशवक वचत्त की भाूँवत खडे़ थे। दीि भारतिावसयोां,

तुमिे ऐसे दृश्य कहाूँ देखे? इस समय जी भरकर देख लो।

तुम िेश्याओां के िृत्य-िाद्य से सनु्ति हो गये। िाराांगिाओां

की काम-लीलाएूँ बहुत देख चुके, खूब सैर सपाटे वकये ;

परनु्त यह सच्ा आिि और यह सुखद उत्साह, जो इस

समय तुम अिुभि कर रहे हो तुम्हें कभी और भी प्राप्त

हुआ था? मिमोहिी िेश्याओां के सांगीत और सुिररयोां का

काम-कौतुक तुम्हारी िैर्वयक इच्छाओां को उते्तवजत करते

है। वकनु्त तुम्हारे उत्साहोां को और विबवल बिा देते हैं और

ऐसे दृश्य तुम्हारे हृदयो में जातीयता और जावत-अवभमाि

का सांचार करते हैं। यवद तुमिे अपिे जीिि मे एक बार भी

यह दृश्य देखा है, तो उसका पविि वचहि तुम्हारे हृदय से

कभी िही ां वमटेगा।

बालाजी का वदव्य मुखमांडल आन्दत्मक आिि की

ज्ोवत से प्रकावशत था और िेिोां से जात्यावभमाि की वकरणें

विकल रही थी ां। वजस प्रकार कृर्क अपिे लहलहाते हुए

खेत को देखकर आििोन्मत्त हो जाता है, िही दशा इस

समय बालाजी की थी। जब रागे बि हो गेया, तो उन्ोांिे

कई डग आगे बढ़कर दो छोटे-छोटे बच्ोां को उठा कर

अपिे कां धोां पर बैठा वलया और बोले, ‘भारत-माता की

जय!’

203

इस प्रकार शिै: शिै लोग राजघाट पर एकि हुए। यहाूँ

गोशाला का एक गगिस्पशी विशाल भिि स्वागत के वलये

खड़ा था। आूँगि में मखमल का वबछािि वबछा हुआ था।

गृहद्वार और स्तांभ िूल-पवत्तयोां से सुसन्दित खडे़ थे। भिि

के भीतर एक सहस गायें बांधी हुई थी ां। बालाजी िे अपिे

हाथोां से उिकी ि ूँदोां में खली-भूसा डाला। उन्ें प्यार से

थपवकय ूँ दी। एक विसृ्तत गृह मे सांगमर का अिभुज

कुण्ड बिा हुआ था। िह दूध से पररिूणव था। बालाजी िे

एक चुलू्ल दूध लेकर िेिोां से लगाया और पाि वकया।

अभी आूँगि में लोग शान्दन्त से बैठिे भी ि पाये थे कई

मिुष्य दौडे़ हुए आये और बोल-पन्दण्डत बदलू शास्त्री, सेठ

उत्तमचन्द्र और लाला माखिलाल बाहर खडे़ कोलाहल

मचा रहे हैं और कहते है। वक हमा को बालाजी से दो-दो

बाते कर लेिे दो। बदलू शास्त्री काशी के विख्यात पांन्दण्डत

थे। सुिर चन्द्र-वतलक लगाते, हरी बिात का अांगरखा

पररधाि करते औश्र बसन्ती पगड़ी बाूँधत थे। उत्तमचन्द्र

और माखिलाल दोिोां िगर के धिी और लक्षाधीश मिुषे्य

थे। उपावध के वलए सहस्ोां व्यय करते और मुख्य

पदावधकाररयोां का सम्माि और सत्कार करिा अपिा प्रधाि

कत्तवव्य जािते थे। इि महापुरुर्ोां का िगर के मिुष्योां पर

बड़ा दबिा था। बदलू शास्त्री जब कभी शास्त्रीथव करते, तो

वि:सांदेह प्रवतिादी की पराजय होती। विशेर्कर काशी के

पणे्ड और प्राग्वाल तथा इसी पन्थ के अन्य धावमतग्िव तो

उिके पसीिे की जगह रुवधर बहािे का उद्यत रहते थे।

शास्त्री जी काशी मे वहिू धमव के रक्षक और महाि् स्तम्भ

प्रवसद्व थे। उत्मचन्द्र और माखिलाल भी धावमवक उत्साह

की मूवतव थे। ये लोग बहुत वदिोां से बालाजी से शास्त्राथव

204

करिे का अिसर ढूांढ रहे थे। आज उिका मिोरथ पूरा

हुआ। पांडोां और प्राग्वालोां का एक दल वलये आ पहुूँचे।

बालाजी िे इि महात्मा के आिे का समाचार सुिा तो

बाहर विकल आये। परनु्त यहाूँ की दशा विवचि पायी।

उभय पक्ष के लोग लावठयाूँ सूँभाले अूँगरखे की बाूँहें चढाये

गुथिे का उद्यत थे। शास्त्रीजी प्राग्वालोां को वभड़िे के वलये

ललकार रहे थे और सेठजी उच् स्वर से कह रहे थे वक इि

शूद्रोां की धन्दिय ूँ उड़ा दो अवभयोग चलेगा तो देखा

जाएगा। तुम्हार बाल-ब ूँका ि होिे पायेगा। माखिलाल

साहब गला िाड़-िाड़कर वचल्लाते थे वक विकल आये

वजसे कुछ अवभमाि हो। प्रते्यक को सब्जबाग वदखा दूूँगा।

बालाजी िे जब यह रांग देखा तो राजा धमववसांह से बोले-आप

बदलू शास्त्री को जाकर समिा दीवजये वक िह इस दुिता

को त्याग दें , अन्यथा दोिोां पक्षिालोां की हावि होगी और

जगत में उपहास होगा सो अलग।

राजा साहब के िेिोां से अवग्न बरस रही थी। बोले- इस

पुरुर् से बातें करिे में अपिी अप्रवतिा समिता ूंूँ। उसे

प्राग्वालोां के समूहोां का अवभमाि है परनु्त मै। आज उसका

सारा मद चूणव कर देता ूंूँ। उिका अवभप्राय इसके

अवतररक्त और कुछ िही ां है वक िे आपके ऊपर िार करें ।

पर जब तक मै। और मरे प ूँच पुि जीवित हैं तब तक कोई

आपकी ओर कुदृवि से िही ां देख सकता। आपके एक

सांकेत-माि की देर है। मैं पलक मारते उन्ें इस दुिता का

सिाद चखा दूांगा।

बालाजी जाि गये वक यह िीर उमांग में आ गया है।

राजपूत जब उमांग में आता है तो उसे मरिे-मारिे क

अवतररक्त और कुछ िही ां सूिता। बोले-राजा साहब, आप

205

दूरदशी होकर ऐसे िचि कहते है? यह अिसर ऐसे िचिोां

का िही ां है। आगे बढ़कर अपिे आदवमयोां को रोवकये, िही ां

तो पररणाम बुरा होगा।

बालालजी यह कहते-कहते अचािक रुक गये। समुद्र

की तरांगोां का भाूँवत लोग इधर-उधर से उमड़ते चले आते

थे। हाथोां में लावठयाूँ थी और िेिोां में रुवधर की लाली,

मुखमांडल कु्रद्व, भृकुटी कुवटल। देखते-देखते यह जि-

समुदाय प्राग्वालोां के वसर पर पहुूँच गया। समय सवन्नकट था

वक लावठयाूँ वसर को चुमे वक बालाजी विदु्यत की भाूँवत

लपककर एक घोडे़ पर सिार हो गये और अवत उच् स्वर

में बोले:

‘भाइयो ! क्या अांधेर है? यवद मुिे आपिा वमि समिते

हो तो िटपट हाथ िीचे कर लो और पैरोां को एक इांच भी

आगे ि बढ़िे दो। मुिे अवभमाि है वक तुम्हारे हृदयोां में

िीरोवचत क्रोध और उमांग तरां वगत हो रहे है। क्रोध एक

पविि उद्वोग और पविि उत्साह है। परनु्त आत्म-सांिरण

उससे भी अवधक पविि धमव है। इस समय अपिे क्रोध को

दृढ़ता से रोको। क्या तुम अपिी जावत के साथ कुल का

कत्तवव्य पालि कर चुके वक इस प्रकार प्राण विसजवि करिे

पर कवटबद्व हो क्या तुम दीपक लेकर भी कूप में वगरिा

चाहते हो? ये उलोग तम्हारे स्वदेश बान्धि और तुम्हारे ही

रुवधर हैं। उन्ें अपिा शिु मत समिो। यवद िे मूखव हैं तो

उिकी मूखवता का वििारण करिा तुम्हारा कतवव्य हैं। यवद

िे तुम्हें अपशब् कहें तो तुम बुरा मत मािोां। यवद ये तुमसे

युद्व करिे को प्रसु्तत हो तुम िम्रता से स्वीकार कर तो और

एक चतुर िैद्य की भाांवत अपिे विचारहीि रोवगयोां की

और्वध करिे में तल्लीि हो जाओ। मेरी इस आशा के

206

प्रवतकूल यवद तुममें से वकसी िे हाथ उठाया तो िह जावत

का शिु होगा।

इि समुवचत शब्ोां से चतुवदवक शाांवत छा गयी। जो

जहाां था िह िही ां वचि वलन्दखत सा हो गया। इस मिुष्य के

शब्ोां में कहाां का प्रभाि भरा था,वजसिे पचास सहस्

मिुष्योां के उमडते हुए उदे्वग को इस प्रकार शीतल कर

वदया ,वजस प्रकार कोई चतुर सारथी दुि घोडोां को रोक

लेता हैं, और यह शन्दक्त उसे वकसिे की दी थी ? ि उसके

वसर पर राजमुकुट था, ि िह वकसी सेिा का िायक था।

यह केिल उस पविि् और वि:स्वाथव जावत सेिा का प्रताप

था, जो उसिे की थी। स्वजवत सेिक के माि और प्रवतिा

का कारण िे बवलदाि होते हैं जो िह अपिी जवत के वलए

करता है। पण्डोां और प्राग्वालोां िेबालाजी का प्रतापिाि रुप

देखा और स्वर सुिा, तो उिका क्रोध शान्त हो गया। वजस

प्रकार सूयव के विकलिे से कुहरा आ जाता है उसी प्रकार

बालाजी के आिे से विरोवधयोां की सेिा वततर वबतर हो

गयी। बहुत से मिुष्य – जो उपद्रि के उदेश्य से आये थे –

श्रद्वापूिवक बालाजी के चरणोां में मस्तक िुका उिके

अिुयावययोां के िगव में सन्दित हो गये। बदलू शास्त्री िे बहुत

चाहा वक िह पण्डोां के पक्षपात और मूखवरता को उतेवजत

करें ,वकनु्त सिलता ि हुई।

उस समय बालाजी िे एक परम प्रभािशाली िकृ्तता

दी वजसका एक –एक शब् आज तक सुििेिालोां के हृदय

पर अांवकत हैं और जो भारत –िावसयोां के वलए सदा दीप

का काम करेगी। बालाजी की िकृ्तताएां प्राय: सारगवभवत हैं।

परनु्त िह प्रवतभा, िह ओज वजससे यह िकृ्तता अलांकृत

है, उिके वकसी व्याख्याि में दीख िही ां पडते। उन्ोिें

207

अपिे िाकयोां के जादू से थोड़ी ही देर में पण्डो को अहीरोां

और पावसयोां से गले वमला वदया। उस िकतृता के अांवतम

शब् थे:

यवद आप दृढता से कायव करते जाएां गे तो अिश्य एक

वदि आपको अभीि वसवद्व का स्वणव स्तम्भ वदखायी देगा।

परनु्त धैयव को कभी हाथ से ि जािे देिा। दृढता बडी प्रबल

शन्दक्त हैं। दृढता पुरुर् के सब गुणोां का राजा हैं। दृढता

िीरता का एक प्रधाि अांग हैं। इसे कदावप हाथ से ि जािे

देिा। तुम्हारी परीक्षाएां होांगी। ऐसी दशा में दृढता के

अवतररक्त कोई विश्वासपाि पथ-प्रदशवक िही ां वमलेगा।

दृढता यवद सिल ि भी हो सके, तो सांसार में अपिा िाम

छोड़ जाती है’।

बालाजी िे घर पहुचांकर समाचार-पि खोला, मुख

पीला हो गया, और सकरुण हृदय से एक ठण्डी साांस

विकल आयी। धमववसांह िे घबराकर पूछा– कुशल तो है ?

बालाजी–सवदया में िदी का बाांध िट गया बस साहस

मिुष्य गृहहीि हो गये।

धमववसांह- ओ हो।

बालाजी– सहस्ोां मिुष्य प्रिाह की भेंट हो गये। सारा

िगर िि हो गया। घरोां की छतोां पर िािें चल रही हैं। भारत

सभा के लोग पहुच गयें हैं और यथा शन्दक्त लोगोां की रक्षा

कर रहें है, वकनु्त उिकी सांख्या बहुत कम हैं।

धमववसांह(सजलियि होकर) हे इश्वर। तू ही इि अिाथोां

को िाथ हैं। गयी ां। तीि घणे् तक विरन्तर मूसलाधार पािी

बरसता रहा। सोलह इांच पािी वगरा। िगर के उतरीय

विभाग में सारा िगर एकि हैं। ि रहिे कोां गृह है, ि खािे

को अन्न। शि की रावशयाां लगी हुई हैं बहुत से लोग भूखे

208

मर जाते है। लोगोां के विलाप और करुणाक्रिि से कलेजा

मुांह को आता हैं। सब उत्पात–पीवडत मिुष्य बालाजी को

बुलािे की रट लगा रह हैं। उिका विचार यह है वक मेरे

पहुांचिे से उिके दु:ख दूर हो जायांगे।

कुछ काल तक बालाजी ध्याि में मग्न रहें, तत्पश्चात

बोले–मेरा जािा आिश्यक है। मैं तुरांत जाऊां गा। आप

सवदयोां की , ‘भारत सभा’ की तार दे दीवजये वक िह इस

कायव में मेरी सहायता करिे को उद्यत् रहें।

राजा साहब िे सवििय वििेदि वकया – आज्ञा हो तो मैं

चलूां ?

बालाजी – मैं पहुांचकर आपको सूचिा दूूँगा। मेरे

विचार में आपके जािे की कोई आिश्यकता ि होगी।

धमववसांह -उतम होता वक आप प्रात:काल ही जाते।

बालाजी – िही ां। मुिे यह ूँ एक क्षण भी ठहरिा कवठि

जाि पड़ता है। अभी मुिे िहाां तक पहुचांिे में कई वदि

लगेंगें।

पल – भर में िगर में ये समाचार िैल गये वक सवदयोां

में बाढ आ गयी और बालाजी इस समय िहाां आ रहें हैं।

यह सुिते ही सहस्ोां मिुष्य बालाजी को पहुांचािे के वलए

विकल पडे़। िौ बजते–बजते द्वार पर पचीस सहस् मिुष्योां

क समुदाय एकि् हो गया। सवदया की दुघवटिा प्रते्यक

मिुष्य के मुख पर थी लोग उि आपवत–पीवडत मिुष्योां की

दशा पर सहािुभूवत और वचन्ता प्रकावशत कर रहे थे।

सैकडोां मिुष्य बालाजी के सांग जािे को कवटबद्व हुए।

सवदयािालोां की सहायता के वलए एक िण्ड खोलिे का

परामशव होिे लगा।

209

उधर धमववसांह के अन्त: पुर में िगर की मुख्य प्रवतवित

न्दस्त्रयोां िे आज सुिामा को धन्यािाद देिे के वलए एक सभा

एकि की थी। उस उच् प्रसाद का एक-एक कौिा न्दस्त्रयोां

से भरा हुआ था। प्रथम िृजरािी िे कई न्दस्त्रयोां के साथ

एक मांगलमय सुहाििा गीत गाया। उसके पीछे सब न्दस्त्रयाां

मण्डल बाांध कर गाते – बजाते आरती का थाल वलये

सुदामा के गृह पर आयी ां। सेिती और चिा अवतवथ-सत्कार

करिे के वलए पहले ही से प्रसु्तत थी सुिामा प्रते्यक मवहला

से गले वमली और उन्ें आशीिादव वदया वक तुम्हारे अांक में

भी ऐसे ही सुपूत बचे् खेलें। विर रािीजी िे उसकी आरती

की और गािा होिे लगा। आज माधिी का मुखमांडल पुष्प

की भाांवत न्दखला हुआ था। माि िह उदास और वचांवतत ि

थी। आशाएां विर् की गाांठ हैं। उन्ी ां आशाओां िे उसे कल

रुलाया था। वकनु्त आज उसका वचि उि आशाओां से ररक्त

हो गया हैं। इसवलए मुखमण्डल वदव्य और िेि विकवसत

है। विराशा रहकर उस देिी िे सारी आयु काट दी, परनु्त

आशापूणव रह कर उससे एक वदि का दु:ख भी ि सहा

गया।

सुहाििे रागोां के आलाप से भिि गूांज रहा था वक

अचािक सवदया का समाचार िहाां भी पहुांचा और राजा

धमववसहां यह कहते यह सुिायी वदये – आप लोग बालाजी

को विदा करिे के वलए तैयार हो जायें िे अभी सवदया जाते

हैं।

यह सुिते ही अधवरावि का सन्नाटा छा गया। सुिामा

घबडाकर उठी और द्वार की ओर लपकी, मािोां िह

बालाजी को रोक लेगी। उसके सांग सब –की–सब न्दस्त्रयाां

उठ खडी हुई और उसके पीछे –पीछे चली। िृजरािी िे

210

कहा –चची। क्या उन्ें बरबस विदा करोगी ? अभी तो िे

अपिे कमरे में हैं।

‘मैं उन्ें ि जािे दूांगी। विदा करिा कैसा ?

िृजरािी- मैं क्या सवदया को लेकर चाटूांगी ? भाड में जाय।

मैं भी तो कोई ूंां? मेरा भी तो उि पर कोई अवधकार है ?

िृजरािी –तुम्हें मेरी शपथ, इस समय ऐसी बातें ि

करिा। सहस्ोां मिुष्य केिल उिके भरासे पर जी रहें हैं।

यह ि जायेंगे तो प्रलय हो जायेगा।

माता की ममता िे मिुष्यत्व और जावतत्व को दबा

वलया था, परनु्त िृजरािी िे समिा–बुिाकर उसे रोक

वलया। सुिामा इस घटिा को स्मरण करके सिवदा पछताया

करती थी। उसे आश्चयव होता था वक मैं आपसे बाहर क्योां हो

गयी। रािी जी िे पूछा-विरजि बालाजी को कौि जयमाल

पवहिायेगा।

विरजि –आप।

रािीजी – और तुम क्या करोगी ?

विरजि –मैं उिके माथे पर वतलक लगाऊां गी।

रािीजी – माधिी कहाां हैं ?

विरजि (धीरे–से) उसे ि छडोां। बेचार, अपिे याि में

मग्न हैं। सुिामा को देखा तो विकट आकर उसके चरण

स्पशव वकयें। सुिामा िे उन्ें उठाकर हृदय में लगाया। कुछ

कहिा चाहती थी, परनु्त ममता से मुख ि खोल सकी। रािी

जी िूलोां की जयमाल लेकर चली वक उसके कण्ठ में डाल

दूां , वकनु्त चरण थरावये और आगे ि बढ सकी ां। िृजरािी

चिि का थाल लेकर चली ां, परनु्त िेि-श्रािण –धि की

भवत बरसिे लगें। तब माधि चली। उसके िेिोां में पे्रम की

िलक थी और मुांह पर पे्रम की लाली। अधरोां पर मवहिी

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मुस्काि िलक रही थी और मि पे्रमोन्माद में मग्न था।

उसिे बालाजी की ओर ऐसी वचतिि से देखा जो अपार पे्रम

से भरी हुई। तब वसर िीचा करके िूलोां की जयमाला

उसके गले में डाली। ललाट पर चिि का वतलक लगाया।

लोक–सांस्कारकी नू्यिता, िह भी पूरी हो गयी। उस समय

बालाजी िे गम्भीर स स ली। उन्ें प्रतीत हुआ वक मैं अपार

पे्रम के समुद्र में िहाां जा रहा ूंां। धैयव का लांगर उठ गया

और उसे मिुष्य की भाांवत जो अकस्मात् जल में विसल

पडा हो, उन्ोांिे माधिी की बाांह पकड़ ली। परनु्त हाां :वजस

वतिके का उन्ोांिे सहारा वलया िह स्वयां पे्रम की धार में

तीब्र गवत से बहा जा रहा था। उिका हाथ पकडते ही

माधिी के रोम-रोम में वबजली दौड गयी। शरीर में से्वद-

वबिु िलकिे लगे और वजस प्रकार िायु के िोांके से

पुष्पदल पर पडे़ हुए ओस के जलकण पृथ्वी पर वगर जाते

हैं, उसी प्रकार माधिी के िेिोां से अशु्र के वबिु बालाजी के

हाथ पर टपक पडे़। पे्रम के मोती थें, जो उि मतिाली

आांखोां िे बालाजी को भेंट वकये। आज से ये ओांखें विर ि

रोयेंगी।

आकाश पर तारे वछटके हुए थे और उिकी आड़ में

बैठी हुई न्दस्त्रयाां यह दृश्य देख रही थी आज प्रात:काल

बालाजी के स्वागत में यह गीत गाया था :

बालाजी तेरा आिा मुबारक होिे।

और इस समय न्दस्त्रयाां अपिे मि –भािे स्वरोां से गा

रही ां हैं :

बालाजी तेरा आिा मुबारक होिे।

आिा भी मुबारक था और जािा भी मुबारक हैं। आिे

के समय भी लोगोां की आांखोां से आांसूां विकले थें और जािे

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के समय भी विकल रहें हैं। कल िे ििागत के अवतवथ

स्वागत के वलए आये थें। आज उसकी विदाई कर रहें हैं

उिके रांग – रुप सब पूिवित है :परनु्त उिमें वकतिा अन्तर

हैं।

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मतवाली य़ोसगनी

माधिी प्रथम ही से मुरिायी हुई कली थी। विराशा िे

उसे खाक मे वमला वदया। बीस िर्व की तपन्दस्विी योवगिी

हो गयी। उस बेचारी का भी कैसा जीिि था वक या तो मि

में कोई अवभलार्ा ही उत्पन्न ि हुई, या हुई दुदैि िे उसे

कुसुवमत ि होिे वदया। उसका पे्रम एक अपार समुद्र था।

उसमें ऐसी बाढ आयी वक जीिि की आशाएां और

अवभलार्ाएां सब िि हो गयी ां। उसिे योवगिी के से िस््त्र

पवहि वलयें। िह साांसररक बन्धिोां से मुक्त हो गयी। सांसार

इन्ी इच्छाओां और आशाओां का दूसरा िाम हैं। वजसिे

उन्ें िैराश्य–िद में प्रिावहत कर वदया, उसे सांसार में

समििा भ्रम हैं।

इस प्रकार के मद से मतिाली योवगिी को एक स्थि

पर शाांवत ि वमलती थी। पुष्प की सुगवधां की भाांवत देश-देश

भ्रमण करती और पे्रम के शब् सुिाती विरती थी। उसके

प्रीत िणव पर गेरुए रांग का िस्त्र परम शोभा देता था। इस

पे्रम की मूवतव को देखकर लोगोां के िेिोां से अशु्र टपक

पडते थे। जब अपिी िीणा बजाकर कोई गीत गािे

लगती तो िुििे िालोां के वचत अिुराग में पग जाते थें

उसका एक–एक शब् पे्रम–रस डूबा होता था।

मतिाली योवगिी को बालाजी के िाम से पे्रम था। िह

अपिे पदोां में प्राय: उन्ी ां की कीवतव सुिाती थी। वजस वदि से

उसिे योवगिी का िेर् घारण वकया और लोक–लाज को

पे्रम के वलए पररत्याग कर वदया उसी वदि से उसकी वजह्वा

पर माता सरस्वती बैठ गयी। उसके सरस पदोां को सुििे के

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वलए लोग सैकडोां कोस चले जाते थे। वजस प्रकार मुरली की

ध्ववि सुिकर गोवपांयाां घरोां से ियाकुल होकर विकल पड़ती

थी ां उसी प्रकार इस योवगिी की ताि सुिते ही श्रोताजिोां का

िद उमड़ पड़ता था। उसके पद सुििा आिि के प्याले

पीिा था।

इस योवगिी को वकसी िे हांसते या रोते िही ां देखा। उसे

ि वकसी बात पर हर्व था, ि वकसी बात का विर्ाद्। वजस

मि में कामिाएां ि होां, िह क्योां हांसे और क्योां रोये ? उसका

मुख–मण्डल आिि की मूवतव था। उस पर दृवि पड़ते ही

दशवक के िेि पविि् आिि से पररपूणव हो जाते थे।